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असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन ने एसटी दर्जा देने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया

असम में चाय जनजाति के लोगों का इतिहास डेढ़ सौ साल पुराना है लेकिन आज भी यह समुदाय राज्य के सबसे पिछड़े समुदायों में से एक माना जाता है.

राज्य के चाय बागान समुदाय (Tea garden community) के लिए अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe) का दर्जा देने की मांग करते हुए असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन (ATTSA) के सदस्यों ने सोमवार को डिब्रूगढ़ में डिप्टी कमीशनर कार्यालय के सामने दो घंटे का विरोध प्रदर्शन किया.

प्रदर्शनकारियों ने केंद्र और राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ नारे लगाए और उन पर राज्य के चाय समुदाय को एसटी का दर्जा देने के अपने वादे से पीछे हटने का आरोप लगाया.

साथ ही उन्होंने यह भी धमकी दी कि अगर सरकार वादे के मुताबिक उन्हें एसटी का दर्जा देने में विफल रहती है तो वे बड़े पैमाने पर राज्यव्यापी आंदोलन शुरू करेंगे.

असम के छह जातीय समूहों – ताई अहोम, मोरन, मटक, चुटिया, कोच राजबंशी और चाय जनजाति को एसटी का दर्जा देना 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और 2016 के असम विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा का एक प्रमुख चुनावी वादा था.

लेकिन भगवा पार्टी ने 2021 असम विधानसभा चुनाव के अपने चुनावी अभियान के दौरान इन जातीय समूहों को एसटी का दर्जा देने के संबंध में पूरी तरह से चुप्पी बनाए रखी.

एटीटीएसए डिब्रूगढ़ जिला अध्यक्ष बिमल बाग ने कहा, “असम में ये आदिवासी समुदाय पिछले 76 वर्षों से एसटी दर्जे के लिए लड़ रहा है. समुदाय एसटी का दर्जा देने के लिए आवश्यक सभी मानदंडों को पूरा करता है। भाजपा एसटी का दर्जा देने के वादे के साथ कई चुनाव जीतती रही है. नौ साल बीत गए लेकिन अभी भी इस मुद्दे पर कोई स्पष्टता नहीं है.”

वहीं सोमवार के विरोध प्रदर्शन के अंत में एटीटीएसए सदस्यों ने डिप्टी कमिशनर के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक ज्ञापन भेजा.

चाय जनजाति लंबे समय से एसटी दर्जे की मांग कर रहे हैं. चाय श्रमिक विभिन्न आदिवासी समुदायों से आते हैं जिन्हें अन्य राज्यों में एसटी का दर्जा दिया गया है ऐसे में असम में भी वो ऐसा ही चाहते हैं. एसटी का दर्जा देने से सदस्यों को आरक्षण और छूट जैसे कुछ सामाजिक लाभ मिलते हैं, जो वर्तमान में चाय जनजातियों के लिए नहीं हैं.

चाय जनजाति कौन हैं?

औपनिवेशिक काल में, 1823 में रॉबर्ट ब्रूस नामक एक ब्रिटिश अधिकारी द्वारा चाय की पत्तियों को उगाए जाने के बाद वर्तमान के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों से आदिवासी समुदायों के लोगों को असम में चाय बागानों में काम करने के लिए लाया गया था. 1862 तक असम में 160 चाय बागान थे. इनमें से कई समुदायों को उनके गृह राज्यों में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया है.

असम में इन लोगों को चाय जनजाति के रूप में जाना जाने लगा. वे एक विषम, बहु-जातीय समूह हैं और सोरा, ओडिया, सदरी, कुरमाली, संताली, कुरुख, खारिया, कुई, गोंडी और मुंडारी जैसी विविध भाषाएं बोलते हैं.

उन्होंने औपनिवेशिक काल में इन चाय बागानों में काम किया था और उनके वंशज आज भी राज्य में चाय बागानों में काम कर रहे हैं. वे असम को अपना घर बना रहे हैं और इसके समृद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने को जोड़ रहे हैं. आज असम में 8 लाख से अधिक चाय बागान कर्मचारी हैं और चाय जनजातियों की कुल जनसंख्या 65 लाख से अधिक होने का अनुमान है.

असम की तरक्की में भूमिका

असम में जिन आदिवासी समुदायों को टी ट्राइब कहा जाता है उन्हें आज़ादी से पहले यहां पर लाया गया था. जब अंग्रेजी शासकों ने असम में चाय बाग़ानों के ज़रिए आर्थिक शोषण शुरू किया तब इन आदिवासियों को 1820 के आस-पास यहां लाना शुरू किया गया.

चाय उद्योग में मानव श्रम की जरूरत काफी ज्यादा होती है. इसलिए कई राज्यों से अलग अलग आदिवासी समुदायों को असम में चाय बागान लगाने और चाय उत्पादन से जुड़े दूसरे काम के लिए बड़ी तादाद में लाया गया.

वर्तमान में असम के दरांग, सोनितपुर, नोगांव, जोरहाट, गोलाघाट, डिब्रूगढ़, कछार, करीमगंज, तिनसुकिया और कोकराझार जिलों में इन आदिवासी समुदायों की आबादी है.

अंग्रेजों के ज़माने से अभी तक असम की तरक़्क़ी में चाय बाग़ानों की अहम भूमिका रही है. चाय उद्योग के विस्तार के साथ ही इस उद्योग के लिए और मज़दूरों की ज़रूरत बढ़ती गई. इसलिए आज़ादी के बाद भी अलग अलग राज्य से यहां पर लोगों का आना लगा रहा.

टी-ट्राइब्स का संघर्ष

असम में चाय जनजाति के लोगों का इतिहास डेढ़ सौ साल पुराना है लेकिन आज भी यह समुदाय राज्य के सबसे पिछड़े समुदायों में से एक माना जाता है.

चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासियों ने अपने साथ नाइंसाफी और भेदभाव का विरोध लंबे समय से किया है. इसके लिए उनके संगठन भी बने और उन्होंने आंदोलन भी किए. उनके संगठन और आंदोलन के दबाव में उनके शोषण को समाप्त करने के लिए कई कानून भी बनाए गए. संसद ने 1951 में प्लांटेशन लेबर एक्ट पास किया था. इस कानून में बाद में कई संशोधन भी किए गए थे.

इस कानून में चाय बाग़ानों से जुड़े लोगों के विकास के लिए कई प्रावधान किए गए थे. लेकिन इस कानून का कभी ईमानदारी से पालन ही नहीं किया गया. इसलिए शिक्षा या स्वास्थ्य या फिर अन्य मामलों में इन आदिवासी समुदाय की हालत निरंतर बिगड़ती चली गई.

उचित मजदूरी की लड़ाई

असम में दैनिक मजदूरी में भी काफी असामनता है. ब्रह्मपुत्र घाटी के श्रमिकों को एक दिन में 167 रुपए मिलते हैं जबकि बराक घाटी के श्रमिकों को केवल 145 रुपए मिलते हैं. काफी लंबे समय से चाय एस्टेट के कर्मचारी 351 रुपए की दैनिक मजदूरी की मांग कर रहे हैं, जिसे बीजेपी ने 2016 में सत्ता में आने से पहले वादा किया था. इसकी तुलना में दक्षिणी राज्य केरल में चाय श्रमिकों को प्रति दिन 380 रुपए से अधिक की कमाई होती है.

चाय जनजातियों की चुनावी ताकत

आज, चाय जनजातियाँ, जिनमें संथाल, कुरुख, मुंडा, गोंड, कोल और तांतियों सहित विभिन्न जातीय समूहों के लोग शामिल हैं, असम के कुल 126 विधानसभा क्षेत्रों में से 42 में प्रभावशाली हैं. इसलिए किसी भी पार्टी के लिए उनकी अनदेखी करना नामुमकिन है. लेकिन जैसा कि अब तक होता आया है, वादे तो तोड़ने के लिए ही किए जाते हैं.

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