तेलंगाना विधानसभा चुनाव में बस कुछ ही दिन रह गए हैं. राज्य की सभी दिग्गज पार्टियां चुनाव प्रचार में जुट गई हैं.
राज्य में रहने वाले आदिवासी सिर्फ़ आरक्षित विधानसभा सीटों पर ही नहीं बल्कि कई अन्य सीटों पर असर रखते हैं. इसलिए यहां पर आदिवासियों को कोई भी पार्टी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती है.
तेलंगाना में 12 विधानसभा और 2 लोकसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. विधानसभा चुनावों के संदर्भ में देखें तो कुल 119 सीटों में से आदिवासी कम से कम 56 सीटों पर असर रखते हैं. जिनमें रहने वाले आदिवासियों का विभाजन कुछ इस प्रकार है.

इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस राज्य में आदिवासी जनसंख्या चुनाव में कितने मायने रखती है.
इस बार राज्य में बीआरएस, कांग्रेस और बीजेपी के बीच में त्रिकोणीय मुकाबला माना जा रहा है. तेलंगाना राज्य में आदिवासी आमतौर पर कांग्रेस पार्टी के वोटर माने जाते रहे हैं.
2014 में अलग तेलंगाना राज्य के गठन के बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी इलाकों में कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली थी.
हालांकि उसके ज़्यादातर आदिवासी विधायकों को सत्ताधारी भारत राष्ट्रीय समिति ने तोड़ लिए थे.
तेलंगाना के आदिवासी इलाकों में बीजेपी को अभी तक चुनाव की नज़र से ख़ास सफलता नहीं मिली है. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने आदिलाबाद की सीट जीत ली थी.
आदिलाबाद लोकसभा सीट पर बीजेपी को कई समीकरणों से जीत मिली थी. मसलन यह ज़िला महाराष्ट्र से लगता हुआ है.
इस ज़िले में करीब 30 प्रतिशत जनसंख्या मराठाओं की है. इसके अलावा यहां पर बड़ी संख्या मुसलमानो की रहती है.
बीजेपी को यहां पर मराठा बनाम मुस्लिम धुर्विकरण का फ़ायदा भी मिला. लेकिन यह माना जाता है कि इस सीट पर बीजेपी के पक्ष में माहौल लंबाड़ी बनाम गोंड लड़ाई की वजह से बना था.
दरअसल तेलंगाना में लंबाड़ी या लंबाड़ा जिन्हें लम्बाड़ी भी लिखा जाता है को जनजाति का दर्जा हासिल है.
गोंड आदिवासियो का कहना है कि लंबाड़ी आदिवासी आरक्षण का पूरा फ़ायदा उठा लेते हैं. जबकि इस समुदाय को कायदे से अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलना ही नहीं चाहिए.
इस लड़ाई में बीजेपी ने गोंड समुदाय के पक्ष में स्टैंड लिया है. इसका फ़ायदा उसे लोकसभा चुनाव में हुआ है.
इस विधान सभा चुनाव में भी बीजेपी कुछ ऐसा ही प्रयास कर रही है. यह हो सकता है कि बीजेपी को इस रणनीति से तेलंगाना की कुछ आदिवासी विधान सभा सीटों पर फ़ायदा हो जाए.
लेकिन केंद्र में सरकार चलाने वाली पार्टी से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह दो समुदायों के बीच कड़वाहट का फ़ायदा उठा कर चुनाव जीतने की कोशिश करे.
वैसे भी किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची मे रखना है या नहीं यह फ़ैसला तो केंद्र सरकार के हाथ में ही होता है.