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छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 2023: धर्म परिवर्तन, पलायन, विस्थापन, पर्यावरण या फिर आदिवासी जीविका

2018 के विधान सभा चुनाव में छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में कांग्रेस पार्टी को ज़बरदस्त समर्थन मिला था. लेकिन इस बार आदिवासी इलाकों में धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर आदिवासी बंटा हुआ नज़र आया था. क्या यह मुद्दा चुनाव में भी असर डालेगा?

90 सदस्यीय छत्तीसगढ़ विधानसभा (Chhattisgarh assembly) में अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) के लिए 29 सीटें आरक्षित हैं. इन सीटों के नतीजे छत्तीसगढ़ में सत्ता पर काबिज होने वाले किसी भी दल के लिए बेहद अहम है.

हालांकि ऐतिहासिक रूप से यहां धर्म परिवर्तन कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं रहा है लेकिन इस बार यह बड़ा मुद्दा बनता दिखाई दे रहा है.

यह बात सही है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में कुछ लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया है. इसी तरह कुछ हिंदूवादी संगठन में राज्य में आदिवासी इलाकों में काम करते हैं.

लेकिन धर्म परिवर्तन राज्य में कभी राजनीतिक या चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया था. लेकिन पिछले चुनाव मे शिकस्त के बाद बीजेपी को इस मुद्दे में शायद ऐसी संभावना नज़र आ रही है जो उसे आदिवासी इलाकों में जीत दिला सकती है.

बस्तर का नया संकट – सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

छत्तीसगढ़ में आदिवासी संस्कृति के गढ़ बस्तर में राज्य की 29 आरक्षित अनुसूचित जनजाति सीटों में से 11 सीटें हैं. 2018 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बस्तर की 11 में से 10 सीटों पर जीत हासिल की थी. वहीं दंतेवाड़ा के बीजेपी विधायक भीमा मंडावी की हत्या के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल की. इससे बस्तर संभाग में कांग्रेस की संख्या 11 में से 11 हो गई थी.

बस्तर संभाग का नारायणपुर धर्म परिवर्तन के मुद्दों का केंद्र है, जो आसपास की सीटों पर भी फैल सकता है.

इस साल की शुरुआत में नारायणपुर में धर्मांतरण का मुद्दा गरमाया था. लोग सड़कों पर उतरकर गुस्सा जाहिर कर रहे थे. प्रदर्शनकारियों ने मौके पर पहुंचे नारायणपुर के एसपी सदानंद कुमार पर हमला कर दिया था. इस हमले में उनके सिर पर गंभीर चोट आई थी.

धर्मांतरण को लेकर जिले के अलग-अलग गांवों में बवाल हुआ. आदिवासी समाज के लोगों ने इस मामले विरोध में रैली भी निकाली थी.

कोंडागांव और नारायणपुर के करीब 33 गांवों के लोगों ने अलग-अलग सामुदायिक भवन, चर्च, प्रार्थना घर और खेल स्टेडियम में ली थी. पीड़ित लोगों का आरोप था कि ईसाई धर्म से नाराज़ कई गांवों के लोगों ने संगठित होकर हमला किया.

कहीं मारपीट की गई, कही घरों में तोड़फोड़ की गई. कही प्रार्थना घर तोड़ दिया गया तो कहीं ईसाई धर्म को मानने वालों को गांवों से ही निकाल दिया गया.

दोनों समूहों के बीच संघर्ष इतना तेज़ हो गया कि ऐसी घटना हुई कि गैर-धर्मांतरित आदिवासियों के विरोध के तहत दफनाए गए शव को कब्र से बाहर निकाला गया.

इस क्षेत्र में जो आदिवासी लोग ईसाई नहीं बने हैं, उनका झुकाव भाजपा की ओर है. जो आदिवासी ईसाई धर्म अपना चुके हैं, वे खुद को परेशान महसूस कर रहे हैं और कांग्रेस सरकार से खुश नहीं हैं.

32 फीसदी आदिवासी जनसंख्या वाले छत्तीसगढ़ में पिछले कई सालों से बीजेपी ईसाई संगठनों पर आदिवासियों के धर्मांतरण का आरोप लगाती रही है.

भाजपा उन आदिवासी आबादी तक पहुंच गई है जिन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया है और उनके लिए बोल रही है.

दूसरी ओर कांग्रेस ने इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया है. आगामी चुनावों के लिए पादरियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है क्योंकि वे ईसाई आदिवासियों के मतदान निर्णयों को प्रभावित कर सकते है.

कोंडागांव जिला, जो धार्मिक रूपांतरणों से भी काफी प्रभावित है, उन आदिवासियों के पलायन का गवाह है, जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया है और वहां उत्पन्न संघर्ष के परिणामस्वरूप नारायणपुर से बेदखल कर दिए गए हैं. इस संकट के दौरान सरकार की निष्क्रियता ने नकारात्मक धारणाओं को जन्म दिया है.

बस्तर जिले में धर्मांतरण का मामला चित्रकोट विधानसभा में लगातार गरमाया हुआ है और कई मामले सामने आ चुके हैं.

इसके विपरीत उत्तरी बस्तर में जहां आदिवासी किसानों को धान के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से लाभ हुआ है, धान खरीद का मुद्दा वोटिंग पैटर्न को अहम रूप से प्रभावित करने की उम्मीद है. कुछ अन्य क्षेत्रों के विपरीत, यहां धार्मिक रूपांतरण का प्रभाव कम स्पष्ट है।

बस्तर के विरोध आंदोलन, माओवादी, आदिवासी चिंताएं

पिछले पांच वर्षों में सरकार के खिलाफ आंदोलनों से चिह्नित दक्षिणी बस्तर में शिकायतें खनन गतिविधियों से लेकर सुरक्षा बलों के शिविरों और पुल निर्माण तक हैं. इंद्रावती नदी के दोनों किनारों पर बड़े पैमाने पर आंदोलनों ने जड़ें जमा ली हैं.

ग्रामीणों को लगता है कि इस तरह के विकास से सुरक्षा बलों को आदिवासी क्षेत्रों तक पहुंचने और अपने शिविर स्थापित करने में आसानी होती है.

आदिवासियों का मानना है कि ऐसे शिविर सुरक्षा बलों को क्षेत्र में अनियंत्रित पहुंच प्रदान करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बलों द्वारा उनका उत्पीड़न किया जाता है. यह धारणा आदिवासी आबादी के बीच व्यापक है और यह माओवादियों से प्रभावित नहीं है.

“सिलगेर आंदोलन” – जो अब दो साल से अधिक पुराना हो चुका है. ये आंदोलन सुरक्षा बलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान तीन आदिवासी युवाओं की दुखद मौत के बाद शुरू हुआ.

दरअसल 11 मई 2021 को बीजापुर जिले के सिलगेर गांव में स्थापित हुए नए पुलिस कैंप के विरोध में आसपास के सैकड़ों ग्रामीणों ने आंदोलन की शुरुआत की थी. आंदोलन के पांचवें दिन ग्रामीणों और पुलिस के बीच झड़प भी हुई जिसके बाद पुलिस के जवानों ने ग्रामीणों पर फायरिंग कर दी जिसमें तीन ग्रामीणों की मौत हो गई थी.

इस घटना के बाद से ग्रामीणों का आंदोलन और उग्र हो गया और आसपास के 50 से अधिक गांवों के हजारों आदिवासी सिलगेर में जुटने लगे.

आंदोलनकर्ता अपनी 3 सूत्रीय मांग को लेकर अड़े हुए हैं और लगातार धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. हालांकि इस मामले की जांच के लिए कांग्रेस कमेटी ने एक जांच टीम भी बनाई और इस पूरे मामले की जांच कर रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी.

अब दंतेवाड़ा में भी खनन गतिविधियों के खिलाफ ऐसा ही आंदोलन चल रहा है.

माओवादियों का प्रभाव चार सीटों – बीजापुर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा और कोंटा पर हो सकता है.  माओवादी बीजेपी का कट्टर विरोध करते हैं लेकिन कांग्रेस के समर्थक भी नहीं हैं. वे आदिवासियों को सीपीआई या अरविंद नेताम के नेतृत्व वाले नवगठित “सर्व आदिवासी समाज” को वोट देने के लिए प्रभावित कर सकते हैं.

राजनीति में अपने समृद्ध अनुभव के कारण नेताम को शिक्षित आदिवासी आबादी के बीच प्रतिष्ठा प्राप्त है. नेताम ने इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में राज्य मंत्री के रूप में भी काम किया था. नेताम 2018 में चुनाव से पहले दोबारा कांग्रेस में शामिल हो गए थे.

इस चुनाव में सीपीआई के लिए मनीष कुंजाम कांग्रेस के कवासी लखमा के लिए कड़ी चुनौती हैं.  सीपीआई बीजापुर, दंतेवाड़ा और कोंटा विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

सरगुजा संभाग

सरगुजा डिवीजन की बात करें तो यहां 9 आरक्षित एसटी सीटें दांव पर हैं. यहां हसदेव वन और चल रही खनन गतिविधियां बड़े मुद्दे हैं. छत्तीसगढ़ सरकार ने हसदेव अरण्य वन क्षेत्र में महत्वपूर्ण कोयला भंडार की पहचान की है और कोयला खनन कार्यों और अन्य औद्योगिक गतिविधियों के लिए जंगल को खोलने की योजना बनाई गई है.

इसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है, जिसका असर सरगुजा-रायगढ़ बेल्ट पर पड़ा है. हालांकि क्षेत्र में कांग्रेस से मोहभंग है लेकिन टीएस सिंहदेव के प्रभाव से पार्टी को समर्थन मिलने की उम्मीद है.  

वहीं मैदानी इलाकों में बाकी की 9 आरक्षित एसटी सीटों पर राजीव गांधी न्याय योजना के तहत धान के लिए ऐतिहासिक रूप से उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण कांग्रेस को समर्थन मिलने की संभावना है. क्योंकि इस योजना से किसानों को बहुत जरूरी वित्तीय राहत मिलेगी.  

राज्य में किसानों को धान के लिए एमएसपी के रूप में 2,640 रुपये प्रति क्विंटल मिलना तय है. जिसमें इनपुट सब्सिडी के रूप में 100 रुपये शामिल हैं. इसकी तुलना में केंद्र का 2,040 रुपए प्रति क्विंटल एमएसपी कम है.

2003, 2008 और 2013 के छत्तीसगढ़ चुनाव करीबी मामले थे. 2018 में ही छत्तीसगढ़ में चुनाव की लहर देखी गई. लेकिन 2018 एक अपवाद था क्योंकि यह भाजपा के खिलाफ तीन-कार्यकाल की सत्ता विरोधी लहर का परिणाम था जो समय के साथ बन रही थी. इस बार राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मतदान होगा.

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 29 सीटों के साथ आदिवासी आबादी यह तय करने में अहम भूमिका निभाएगी कि कौन सी पार्टी राज्य में शासन करेगी. खासकर तब जब चुनाव में किसी पार्टी की लहर न दिख रही हो.  

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