केरल (Kerala) के वायनाड ज़िले (Wayand district) के चप्पाराम आदिवासी इलाके (Chapparam tribal settlement) में मंगलवार, 7 नवंबर को माओवादियों (Maoists) और पुलिस अधिकारियों के बीच गोलीबारी हुई. इस गोलीबारी में असली संघर्ष आदिवासी समाज के अनीश और उसके परिवार को करना पड़ा.
यह पूरा इलाका जंगलों से ढका हुआ है. जहां लगभग 40 कुरिचिया समुदाय (Kurichia community) के लोग रहते है. ये सभी पेशे से किसान है. इसके साथ ही ये पूरा इलाका अत्यधिक माओवादियों के दहशत से प्रभावित है.
माओवादी अक्सर आदिवासियों के घर फोन चार्ज करने या दुकान से सामान मंगाने के बहाने आते रहते हैं. कभी कभी माओवादी आदिवासियों द्वारा मनाए जा रहे उत्सवों में खाने पीने के लिए आते है.
ऐसे ही किसी काम से माओवादियों का एक संगठन मंगलवार को अनीश के घर आए थे. जब अनीश रात 8:30 बजे अपना काम करके घर पंहुचा तो वहां चार माओवादी मौजूद थे. बाकी के सदस्य घर के बाहर पहरा दे रहे थे.
अनीश ने अपनी एक स्टेंटमेंट में बताया, “ जैसे ही सभी माओवादी घर से निकलने वाले थे. तभी दूसरी तरफ से पुलिस अधिकारी ने फायरिंग करना शुरू कर दी.
फायरिंग जैसे ही शुरू हुई पूरे इलाकें मे बिजली चली गई और चारो तरफ अंधेरा हो गया. माओवादियों के पास केवल एक ही बंदूक थी. जिसके द्वारा वे घर के अदंर छिपकर पुलिस के ऊपर फायरिंग कर रहे थे.
जो माओवादी घर के बाहर पहरा दे रहे थे. वो अंधेरे का सहारा लेकर फायरिंग के दौरान ही भागने में कामयाब हुए.
जैसे ही पुलिस के कुछ अधिकारी घर के अदंर आए. हम सभी चिल्लाने लगे और बच्चों की रोने की आवाज आने लगी. घर के अंदर माओवादी और मेरा परिवार भी था. इसलिए पुलिस कुछ भी समझ नहीं पा रही थी.
तभी पुलिस के एक अधिकारी ने हम सभी को झुकने को कहा. मैं वो डरवाना पल कभी नहीं भूल सकता. मेरे घर की दीवारों पर गोलियों के निशान मौजूद है.
अनीश के पड़ोसी ने बताया की गोलीबारी लगभग आधे घंटे तक चलती रही.
वहीं एक अन्य पड़ोसी द्वारा मिली जानकारी के अनुसार माओवादी अक्सर आदिवासियों के घर आते रहते हैं. वे कई बार उन्हें ये कहकर अपने ग्रुप में शामिल करने की कोशिश करते है की प्रशासन उनकी जरूरतों पर ठीक तरीके से ध्यान नहीं रखता.
ये आदिवासी इलाका कंबामाला के बेहद नज़दीक है. यहां पर स्थित केरल वन विकास निगम (KFDC) के दफ्तर में भी 28 सितंबर को माओवादियों द्वारा गोलीबारी की गई थी.
ये बात तो सत्य है की अक्सर आदिवासियों की जरूरत, समस्याओं और मांगों पर प्रशासन द्वारा कुछ खास दिलचस्पी नहीं दिखाई जाती. लेकिन इस बात में भी कोई संदेह नहीं है की आदिवासी हमेशा से शांतिपूर्वक रहना ही पसंद करते आए है.