HomeAdivasi Dailyबोंडा समुदाय का पारंपरिक ज्ञान और फ़सलें बचाने के प्रयास

बोंडा समुदाय का पारंपरिक ज्ञान और फ़सलें बचाने के प्रयास

दक्षिणी ओडिशा के मलकानगिरी जिले की पहाड़ियों पर भारी बारिश होती है. ज़ाहिर है कि भारी बारिश से उपलब्ध पानी से धान की खेती आसान होती है. लेकिन धान की खेती में धीरे धीरे रासायनिक खाद का इस्तेमाल ज़मीन की उपजाऊ शक्ति को नष्ट करता है. बोंडा आदिवासी जो फ़सल पैदा करते रहे हैं वो उनके पारंपरिक ज्ञान और जलवायु की समझ के आधार पर विकसित हुई हैं.

ओडिशा के मलकानगिरी जिले की सुदूर जंगली पहाड़ियों में स्थित बोंडाघाटी बोंडा जनजाति का घर है. जो राज्य के 13 विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों (PVTG) में से एक है. 2011 की जनगणना के मुताबिक करीब 12 हज़ार 321 बोंडा लोग 32 पहाड़ी गांवों में रहते थे. मलकानगिरी भारत के 100 सबसे अविकसित और गरीबी से त्रस्त जिलों में से एक है.

बोंडा लोग ऑस्ट्रो-एशियाई जातीय समूह से संबंधित हैं और माना जाता है कि 60 हज़ार साल पहले अफ्रीका से प्रवास की पहली लहर का हिस्सा थे. उनका जीवन उस वन भूमि से जुड़ा हुआ है जिसमें वे निवास करते हैं. पीढ़ियों से जनजाति ने पारंपरिक फसलों की खेती और मामूली वन उपज जमा कर खुद को बनाए रखा है.

विशेषज्ञ कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में जलवायु परिवर्तन ने उनके निर्वाह जीवन को अपरिवर्तनीय रूप से प्रभावित किया है. भारी वर्षा ढलानों से उपजाऊ ऊपरी मिट्टी को बहा ले जाती है. इसके अलावा कृषि के आधुनिक तरीकों के आगमन ने उनकी पारंपरिक कृषि पद्धतियों को प्रभावित किया है. बाजरा केंद्रित मिश्रित फसल प्रणाली से बोंडा किसान धीरे-धीरे धान में बदल गई है. जिससे उनके मुख्य भोजन की उपलब्धता प्रभावित हुई है.

हालाँकि बोंडा महिलाएं देशी बाजरे की किस्मों – फिंगर (रागी), फॉक्सटेल (काकुम या कंगनी), बरनार्ड (सानवा), प्रोसो (चेना) और मोती (बाजरा) बाजरा की खेती की ओर लौटकर इन मुद्दों को संबोधित कर रही हैं जो कि जलवायु हैं. 

अब इस मामले में इस समुदाय में कुछ जागरूकता बढ़ रही है. कुछ बोंडा वॉलेंटियर्स और स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों द्वारा पोषण और जलवायु चुनौतियों पर इस समुदाय में जागरूकता का काम किया जा रहा है. इसके अलावा ओडिशा मिलेट्स मिशन द्वारा दिए गए संस्थागत प्रोत्साहन जैसे सुनिश्चित खरीद और उच्च मूल्य भी अच्छे परिणाम दे रहे हैं.

2020 के नीति आयोग के एक अध्ययन के मुताबिक ओडिशा ने प्रति किसान परिवार बाजरे के सकल मूल्य में 2016-17 में 3957 रुपये से 2018-19 में 12,486 रुपये की वृद्धि दर्ज की है. इसी अवधि में बाजरा की खेती का रकबा 2,949 हेक्टेयर से बढ़कर 5,182 हेक्टेयर हो गया है और उपज दर में 120 फीसदी की वृद्धि हुई है जैसा कि अध्ययन से पता चला है.

दक्षिणी ओडिशा के मलकानगिरी जिले की पहाड़ियों पर भारी बारिश होती है. ज़ाहिर है कि भारी बारिश से उपलब्ध पानी से धान की खेती आसान होती है. लेकिन धान की खेती में धीरे धीरे रासायनिक खाद का इस्तेमाल ज़मीन की उपजाऊ शक्ति को नष्ट करता है. बोंडा आदिवासी जो फ़सल पैदा करते रहे हैं वो उनके पारंपरिक ज्ञान और जलवायु की समझ के आधार पर विकसित हुई हैं. लेकिन समय और उत्पादन की मांग के दबाव में इन आदिवासियों ने भी अपने परंपरागत बीजों को छोड़ दिया था. 

लेकिन ओडिशा जैविक नीति 2018 के तहत राज्य के इस पीवीटीजी समुदाय को एक बार फिर से पारंपरिक बीजों से खेती के लिए प्रेरित किया जा रहा है. 

बाजरा बनाम अनाज

विशेषज्ञों के अनुसार बाजराऔर दूसरी पारंपरिक फसल न सिर्फ बोंडाओं की खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करता है बल्कि जैव विविधता को भी संरक्षित करता है. बाजरा को धान की तुलना में 60 फीसदी कम पानी की जरूरत होती है और धान या गेहूं के लिए 120 दिनों-150 दिनों के मुकाबले 70 दिनों-100 दिनों के भीतर कटाई की जा सकती है. उन्होंने कहा कि वे सूखे, लवणता, अत्यधिक गर्मी के साथ-साथ कीटों और बीमारियों के लिए भी प्रतिरोधी हैं, उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र के ढलान वाले इलाके में इनकी खेती की जा सकती है.

2017 में ओडिशा के कृषि और किसान अधिकारिता विभाग ने आदिवासी क्षेत्रों में बाजरा की खपत को बढ़ावा देने, बाजरा फसलों की उत्पादकता में सुधार, किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने, विकेन्द्रीकृत प्रसंस्करण सुविधाओं की स्थापना और बाजरा शामिल करने के लिए आदिवासी क्षेत्रों में पांच साल का प्रमुख कार्यक्रम शुरू किया. मॉडल को सात जिलों में लॉन्च किया गया था और बाद में इसे बढ़ाकर 14 कर दिया गया.

2017-18, नीति आयोग के एक अध्ययन के मुताबिक 2017-18 और 2018-19 के बीच प्रति किसान परिवार में उत्पादित बाजरा के सकल मूल्य में 215 फीसदी की वृद्धि और 2016-17 के बीच उपज दर में 120 फीसदी की वृद्धि हुई है. बाजरा मिशन ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को मजबूत किया है और बाजरा की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली और एकीकृत बाल विकास सेवा के लिए सरकारी खरीद का आश्वासन दिया है.

2020-21 के दौरान राज्य सरकार ने ओडिशा बाजरा मिशन फंडिंग को 65.54 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 536.98 करोड़ रुपये कर दिया है. जिसमें से 223.92 करोड़ रुपये परियोजना कार्यान्वयन के लिए है और 313.06 करोड़ रुपये सार्वजनिक वितरण प्रणाली में रागी की खरीद और वितरण के लिए है. ओडिशा आजीविका मिशन के ब्लॉक परियोजना प्रबंधक श्रीनिबास दास ने कहा, “राज्य पोषण कार्यक्रम के तहत राशन कार्ड धारक को 2019-20 में खरीदी गई मात्रा से चावल के विकल्प के रूप में 14 जिलों में एक महीने के लिए 50 लाख लाभार्थियों तक पहुंचने के लिए 2 किलो रागी प्राप्त हुई. 

बीज बैंक

ओडिशा बाजरा मिशन पहल अगले फसल मौसम के लिए बीज-पर्याप्तता सुनिश्चित करने और बीज संरक्षण की संस्कृति को बढ़ावा देने पर भी ध्यान केंद्रित करती है. 14 जिलों में स्थापित समुदाय-प्रबंधित बीज केंद्र किसानों की अपनी फसलों से बीजों को बचाने और इस्तेमाल करने की आदत को बहाल करने और अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों तक पहुंच बढ़ाने के लिए काम करते हैं. 

इस कोशिश में 2018 और 2020 के बीच, समुदाय-प्रबंधित बीज केंद्रों ने करीब 392.66 क्विंटल बीज संरक्षित किए हैं. जिनमें से करीब 155.95 क्विंटल किसानों के बीच वितरित किए गए. 

इस कोशिश में लगे संगठनों और लोगों का कहना है कि इन क्षेत्रों में बीज बैंक सफल हुए हैं जहां निर्वाह खेती प्रमुख है और खाद्य फसलों की पारंपरिक किस्में उगाई जाती हैं.

ओडिशा मिलेट्स मिशन की पहल को राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली है लेकिन आदिवासी समुदायों के बीच खाद्य और पोषण सुरक्षा पर काम करने वाले विशेषज्ञ अधिक रणनीतिक दृष्टिकोण की वकालत करते रहे हैं. क्योंकि परंपरागत बीजों से फसल का उत्पादन सीमित हो जाता है. इसलिए इन फ़सलों को बोने में नई तकनीक का इस्तेमाल मदद कर सकता है. इसके अलावा इन फ़सलों की बिक्री और मूल्य के सही इंतज़ाम भी ज़रूरी है. 

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