जहां आज के समय में कुछ आदिवासी समुदायों की पहचान लुप्त होने की कगार पर है. वहीं दूसरी ओर कुछ आदिवासी समुदाय अपनी पहचान को किसी न किसी तरीके से या अपने संस्कृति के त्योहारों को मनाकर जिंदा रख रहे हैं.
तेलंगाना के एक ज़िले में कुछ आदिवासी ऐसा ही एक प्रयास कर रहे है कि जिसके उनकी पहचान जिंदा रह सके.
तेलंगाना के पूर्ववर्ती आदिलाबाद ज़िले के आदिवासी जंगलों, पहाड़ी क्षेत्रों आदि में रहते हुए अपनी अनूठी संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाजों और जीवन शैली को बनाए रखते हैं.
यह ज़िला अपनी प्राकृतिक सुंदरता से सबका मन मोह लेता है और आदिवासी भी अपने रीति-रिवाजों को संरक्षित करने के लिए समान रूप से प्रतिबद्ध हैं.
समय के साथ विकसित होने के बावजूद भी यहां के आदिवासी अपनी संस्कृति और परंपराओं की रक्षा करते हुए अधिक सभ्य समाज की ओर बढ़ रहे हैं.
इसके अलावा जनजातियों की संस्कृति उनके पहनावे, उनकी वेशभूषा और उनके नृत्यों में झलकती है.
आदिलाबाद ज़िले के आदिवासियों कि पूजा
आदिलाबाद ज़िले के आदिवासी विभिन्न अवसरों को गहरी श्रद्धा के साथ मनाते हैं. वो अपने देवी-देवताओं की पूजा करने एंव हर त्योहार के लिए पारंपरिक पूजा करने के लिए पैदल यात्रा पर निकलते हैं.
इस ज़िले के सबसे महत्वपूर्ण उत्सवों में एक ग़ुस्सादी और ढंडारी है. जो दीपावली से पहले शुरू होता है और उसके बाद समाप्त होता है.
यह उत्सव पूरे 15 दिनों तक चलता है. इस उत्सव के दौरान आदिवासी समूह प्रत्येक गांव एंव ऑर्गनाइज कार्यक्रमों में जाते हैं और प्रार्थना करते हैं.
इस उत्सव को आमतौर पर आदिवासियों द्वारा गोदावरी नदी के तट पर मंचेरियल ज़िले के दांडेपल्ली मंडल के गुडिरेवु गांव में पद्मलपुरी खाको मंदिर में जाने के साथ शुरू होता है.
इस अवसर पर आदिवासी नदी में प्रसाद चढ़ाते है और त्योहार का समापन पद्मलपुरी खाको में करते हैं क्योंकि यह मंदिर जातीय समूहों से संबंधित लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
यहां के आदिवासी पारंपरिक प्रथाओं का पालन करते हुए अपनी मूर्तियों की पूजा करने के लिए लंबी दूरी तक पैदल रास्ता तय करते हैं.
दीपावली के दौरान मंचेरियल ज़िले के दांडेपल्ली मंडल में गोदावरी नदी के पास स्थित पद्मलपुरी काको मंदिर में पद्मलपुरी काको की पूजा करते हैं.
यह मंदिर आदिवासियों द्वारा पूजनीय है और दिवाली के दौरान यह बड़ी संख्या में भक्तों को आकर्षित करता है.
आदिलाबाद ज़िले में दिपावली के समय 15 दिनों तक चलने वाले उत्सव में बड़ी संख्या में आदिवासी पदमल पुरी काको मंदिर में जाते हैं.
यह काको मंदिर दक्षिण भारत में अद्वितीय है. जो आदिवासी देवता को समर्पित है.
इस मंदिर में न केवल पूर्व आदिलाबाद ज़िले से बल्कि तेलुगु के अगल राज्यों से भी श्रद्धालु भी आते है.
इसके साथ ही इस मंदिर में ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड और महाराष्ट्र के आदिवासी क्षेत्रों से डंडारी समूह अपनी संस्कृति और परंपरा के अनुसार विशेष पूजा करने भी आते है.
यहां के आदिवासी न केवल अपने देवताओं की पूजा करते हैं बल्कि भगवानों के प्रसादों के लिए विशेष व्यंजन भी तैयार करते हैं. जिसमें मीठे चावल और विभिन्न प्रकार के व्यंजन शामिल होते हैं. जो पारंपरिक रूप से तैयार और पेश किए जाते हैं.
आदिवासियों कि यह पूजा पूरे सांस्कृतिक परंपराओं से कि जाती है.
यहां के आदिवासी एक पैन में तिल और इप्पा के बीजों का उपयोग करके आसवन द्वारा तेल बनाते है. जिसे एक लंबी छड़ी से घुमाकर निकाला जाता है.
इस तेल का उपयोग उनके देवताओं को दीपदान करने के साथ ही विभिन्न प्रसाद बनाने के लिए किया जाता है.