HomeAdivasi Dailyमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा अबुआ बीर दिशोम अभियान का शुभारंभ किया गया

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा अबुआ बीर दिशोम अभियान का शुभारंभ किया गया

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने आज यानि सोमवार को अबुआ बीर दिशोम अभियान की शुरुआत की है. सरकार का दावा है कि इस योजना के तहत प्रदेश में पहली बार एक व्यापक अभियान चलाया जा रहा है.

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने आज यानि सोमवार को अबुआ बीर दिशोम अभियान की शुरुआत की है. सरकार का दावा है कि इस योजना के तहत प्रदेश में पहली बार एक व्यापक अभियान चलाया जा रहा है.

इस अभियान के तहत आदिवासी और वन पर आश्रित रहने वाले लोगों को वनाधिकार पट्टा मुहैया कराया जा रहा है.

यह माना जा रहा है कि इस योजना से कम से कम 15 लाख आदिवासी परिवारों को छह से आठ माह में इस जोड़ा जाएगा.

अधिकारियों का कहना है कि जंगल, जमीन और इससे जु़ड़े संसाधनों की रक्षा के उद्देश्य से इस योजना की शुरुआत की गई है.

इस अवसर पर हेमंत सोरेन ने कहा की आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों को वनाधिकार पट्टा देने पर कभी भी ध्यान नहीं दिया गया है.

जिसके लिए उन्होंने उपायुक्तों एवं जिला वन अधिकारियों को भी जिम्मेदार ठहराया है. इस अभियान को सफल बनाने के सख्त निर्देश भी दिये हैं.

उन्होंने अभियान को सफल बनाने के लिए ग्राम, अनुमंडल एवं जिला स्तर पर वनाधिकार समिति का पुनर्गठन किया गया है.

यह समिति वन पर निर्भर लोगों और समुदायों को वनाधिकार पट्टा दिये जाने के लिए उनके दावा पर नियमानुसार अनुशंसा का काम करेगी.

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अबुआ बीर दिशोम अभियान को सफल बनाने के लिए मोबाइल एप्लीकेशन और वेबसाइट भी तैयार की गई है.

इस मौके पर यह तथ्य भी उज़ागर किया गया कि पिछले 17 साल में झारखंड के केवल 60 हजार लोगों को ही ज़मीन का पट्टा दिया गया है.

अफ़सोस की बात ये है कि इस राज्य में सामुदायिक वनाधिकार पट्टा तो बिल्कुल ही न के बराबर ही दिया गया है.

झारखंड में वनाधिकार कानून 2006 के प्रावधानों को लागू करने में देरी चिंता की बात है. ख़ासतौर से सामुदायिक पट्टों के मामले में झारखंड राज्य का रिकॉर्ड काफ़ी चिंताजनक रहा है.

झारखंड और अन्य आदिवासी बहुल राज्यों में सामुदायिक पट्टे देने में आनाकानी की जाती है.

ऐसा अहसास होता है कि वन विभाग और स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी वनों पर आदिवासियों के अधिकार को स्वीकार नहीं कर पाते हैं.

संसद में भी कई बार वन अधिकार कानून पर हुई बहस में यह चिंता मुख्य रूप से प्रकट की जाती रही है कि ज़्यादातर राज्य सामुदायिक पट्टों को देने में आनाकानी करते हैं.

वन संरक्षण कानून 1980 में संशोधन के लिए पेश विधेयक पर बहस के दौरान राज्य सभा में पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने यह बात ज़ोर दे कर उठाई थी.  

सामुदायिक पट्टे वनाधिकार कानून की आत्मा कही जा सकती है. क्योंकि इसके ज़रिए आदिवासी समुदायों को वन प्रबंधन का अधिकार मिलता है.

लेकिन झारखंड में सामुदायिक पट्टों का अनुपात काफ़ी खराब नज़र आता है. ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2021 तक झारखंड में सिर्फ 56 प्रतिशत सामुदायिक पट्टे ही दिये गए थे.

उम्मीद यह की जानी चाहिए कि देर से ही सही झारखंड में सरकार ने जो नई योजना शुरू की है वो इस चिंता को दूर करेगी और राज्य में वन अधिकार कानून का लाभ आदिवासी जनसंख्या को मिल पाएगा.

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