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तेलंगाना: भारत का ये सबसे बड़ा आदिवासी त्योहार राष्ट्रीय दर्जे का कर रहा है इंतजार

2014 में तेलंगाना अलग राज्य बना था और अब आदिवासी समुदाय के लोग जतारा मेले को राष्ट्रीय दर्जा मिलने का इंतिजार कर रहें हैं. राज्य सरकार केंद्र को पत्र लिखकर अनुरोध कर रहें हैं. लेकिन इस बार उसने राज्य आदिवासी कल्याण विभाग से द्विवार्षिक मेले के लिए की जाने वाली जरूरी व्यवस्थाओं और उस पर होने वाले प्रस्तावित कुल व्यय के बारे में अतिरिक्त विवरण भेजने के लिए कहा है.

भारत का सबसे बड़ा द्विवार्षिक आदिवासी त्योहार – सममाका-सरलाम्मा जातरा (Sammakka Saralamma Jatara) जो तेलंगाना (Telangana) के मुलुग जिले (Mulug District) के तड़वई ब्लॉक के घने जंगलों में एक छोटे से गांव में फरवरी में आयोजित किया जाता है उसे “राष्ट्रीय त्योहार” का दर्जा मिल सकता है.

अगर केंद्र सरकार राज्य सरकार के लंबे समय से लंबित प्रस्ताव को मंजूरी दे देती है.जातरा (मेला) को दक्षिण का कुंभ मेला कहा जाता है. ये देश भर से 1 करोड़ से अधिक आदिवासियों की सबसे बड़ी सभा का गवाह बनता है.

राज्य आदिवासी कल्याण विभाग के आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक, 2022 में 16 से 18 फरवरी तक आयोजित तीन दिवसीय उत्सव में दर्शकों की संख्या 1.3 करोड़ थी. जून 2014 में तेलंगाना के एक अलग राज्य बनने के बाद से राज्य सरकार केंद्र से त्योहार की विशिष्टता और देश के सभी हिस्सों से लाखों आदिवासियों की सभा को ध्यान में रखते हुए सममाका-सरलाम्मा जातरा को राष्ट्रीय त्योहार का दर्जा देने का अनुरोध कर रही है.

आदिवासी कल्याण के अतिरिक्त निदेशक वी सर्वेश्वर रेड्डी, जो आदिवासी सांस्कृतिक अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान के निदेशक भी हैं. उन्होंने कहा, “इस बार भी हमने केंद्र को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि त्योहार को राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मान्यता दी जाए.”राज्य सरकार की मांग पर केंद्र की प्रतिक्रिया इन सभी वर्षों में मूक थी.

लेकिन इस बार उसने राज्य आदिवासी कल्याण विभाग से द्विवार्षिक मेले के लिए की जाने वाली जरूरी व्यवस्थाओं और उस पर होने वाले प्रस्तावित कुल व्यय के बारे में अतिरिक्त विवरण भेजने के लिए कहा है.रेड्डी ने कहा, ” सममाका-सरलाम्मा जातरा को राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मान्यता देने पर कोई विशेष प्रतिबद्धता नहीं थी. केंद्र ने मेले के बारे में कुछ विवरण मांगे हैं और हम उसे प्रस्तुत कर रहे हैं.

“केंद्र कुंभ मेले और दुर्गा पूजा की तर्ज पर आदिवासी मेले को राष्ट्रीय त्योहार का दर्जा देता है तो मेले के संचालन का पूरा खर्च वहन करेगा.एक अधिकारी ने कहा, “पिछले साल राज्य सरकार ने सम्मक्का सरलाम्मा जतारा पर 75 करोड़ से अधिक खर्च किए जबकि केंद्र ने कुछ बुनियादी ढांचे के कार्यों के लिए सिर्फ 7 करोड़ जारी किए थे.

अगर केंद्र पूरा खर्च वहन करता है तो यह राज्य के लिए बड़ी राहत होगी.”एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि राज्य सममाका-सरलाम्मा जातरा को यूनेस्को से मान्यता दिलाने की भी पैरवी कर रही है.

जिससे स्थानीय लोगों के लिए बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा होने के अलावा इस आयोजन को वैश्विक पर्यटन मानचित्र पर लाने में मदद मिलेगी.

कैसे मनाया जाता है जातरा?

ये आदिवासी मेला “माघ शुद्ध पूर्णिमा” (माघ महीने की पूर्णिमा का दिन) पर 13वीं शताब्दी की दो आदिवासी महिलाओं – सममाका और उनकी बेटी सरलाम्मा की देवताओं के रूप में पूजा करने के लिए मनाया जाता है. इसमें तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से श्रद्धालु आते हैं. इस मेले में गैर-आदिवासी श्रद्धालु भी बड़ी संख्या में आते हैं.

आदिवासियों का मानना है कि सम्मक्का और सरलम्मा ने काकतीय राजवंश के शक्तिशाली सम्राटों से लड़ते हुए अपने जीवन का बलिदान दिया था. जिन्होंने राजशाही की मांग करते हुए उनके छोटे से आदिवासी गांव पर हमला किया था और उनके जीवन और संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की थी.अन्य धार्मिक सभाओं के विपरीत सममाका-सरलाम्मा जातरा में इन देवताओं के लिए कोई मंदिर नहीं बनाया गया है.

वे केवल दो खंभे हैं जिन्हें दो अलग-अलग स्थानों से लाया जाता है.चिलकलागुट्टा नामक पड़ोसी पहाड़ी से सममाका और कन्नेपल्ली गांव से सरलाम्मा को ढोल और तुरही बजाने के बीच पारंपरिक आदिवासी रीति-रिवाजों के साथ जुलूस में लाया जाता है. फिर दो प्लेटफार्मों पर खड़ा किया जाता है

जहां अगले दो दिन उनकी पूजा की जाती है.देश विभिन्न राज्यों खासकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और झारखंड के कुछ हिस्सों से लाखों आदिवासी श्रद्धालु जातरा में हिस्सा लेते हैं.

भक्त देवी-देवताओं को अपने वजन के बराबर मात्रा में गुड़ के रूप में बंगाराम (सोना) चढ़ाते हैं और एक स्थानीय जलधारा जम्पन्ना वागु में पवित्र स्नान करते हैं. देवताओं के लिए बकरियों, भेड़ों और मुर्गों की बलि भी पूजा का हिस्सा रही है.मेले का इतिहासइस विशाल मेले का इतिहास 700 से ज्यादा साल पुराना है. 13वीं शताब्दी में कोया आदिवासी के लोग यहां जंगल में शिकार के लिए गए थे.

इसी दौरान उन्हें एक छोटी बच्ची मिली जिसे वे अपने साथ ले आए.कोया आदिवासी के मुखिया ने उस बच्ची का पालन-पोषण किया और उस बच्ची का नाम समक्का रखा. जब सम्मक्का बड़ी हुई तब अपने कबीले का नेतृत्व करने लगी. समक्का की शादी पगिदिद्दा राजू के साथ हुई जो वारंगल की काकतीय सेना में आदिवासी टुकड़ी का नायक था.

इनकी दो पुत्रियां सारालम्मा और नागुलम्मा और एक पुत्र जम्मपन्न थे.इसी के बाद यहां अकाल पड़ा और गोदावरी में पानी कम हो गया. इस स्थिति में तत्कालीन काकतीय राजा प्रताप रुद्रदेव ने कर बढ़ा दिया. जिसका कोया समुदाय के लोगों ने विरोध किया.

जिसके बाद राजा ने अपनी सेना भेजी.कोया आदिवासियों और काकतीय सेना के बीच भारी संघर्ष हुआ. कोया समुदाय की समक्का और उनकी पुत्री सारालम्मा और पुत्र जम्मपन्न ने इसका नेतृत्व किया. इस युद्ध में समक्का का पुत्र जम्मपन्न मारा गया. इस संघर्ष में समक्का और सारालम्मा की भी मृत्यु हो गई.इस घटना के बाद से ही कोया समुदाय समक्का-सारालम्मा देवी की याद में हर दो साल में इस मेले का आयोजन करता है.

यहां समक्का और सारालम्मा देवियां स्थापित हैं. वहीं मेडारम गांव के पास गोदावरी के बहाव में जम्पन्न भी डूब गया. अब इस जगह को जम्पन्न वागू कहा जाता है. जहां श्रद्धालु स्नान करने आते हैं.

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