ओडिशा सरकार ने अनुसूचित जनजाति के लोगों को अपनी जमीन गैर आदिवासियों को हस्तांतरित करने की अनुमति देने से संबंधित एक कानून में संशोधन करने के अपने फैसले पर विपक्षी दलों के विरोध के बीच रोक लगा दी.
राजस्व एवं आपदा प्रबंधन मंत्री सुदाम मारण्डी ने 14 नवंबर को मंत्रिमंडल की बैठक में लिए गए इस निर्णय को रोक देने की वजह नहीं बतायी.
उन्होंने ‘एक्स’ पर पोस्ट किया, ‘‘आदिवासी जमीन को हस्तांतरित करने के संबंध में 14 नवंबर को मंत्रिमंडल की बैठक में 1956 के विनियम -2 में जिस प्रस्तावित संशोधन पर चर्चा हुई थी, उस संशोधन को रोक दिया गया है.’’
मारण्डी ने कहा कि कैबिनेट के पास पैसे भी इस मामले में अंतिम निर्णय लेने का हक़ नहीं है. उन्होंने कहा कि राज्य विधानसभा द्वारा विधेयक पारित होने और राज्यपाल की सहमति के बाद भारत के राष्ट्रपति अंतिम निर्णय लेंगे.
तीन दिन पहले ही ओडिशा मंत्रिमंडल ने यह संशोधन करने का फैसला किया था.
राज्य मंत्रिमंडल ने ओडिशा अनुसूचित क्षेत्र अचल संपत्ति हस्तांतरण (अनुसूचित जनजाति द्वारा) विनियम, 1956 में संशोधन करने का फैसला किया था ताकि अनुसूचित जनजाति के लोग गैर आदिवासी को जमीन हस्तांतरित कर पाए.
मंत्रिमंडल के फैसले के मुताबिक, अनुसूचित जनजाति का कोई व्यक्ति लोक उद्देश्यों के लिए अपनी जमीन उपहार में दे सकता है, अदला-बदली कर सकता है, वह कृषि कार्य, आवास निर्माण, बच्चों की उच्च शिक्षा, स्वरोजगार, कोई छोटा-मोटा कारोबार शुरू करने के वास्ते किसी सरकारी वित्तीय संस्थान से लोन लेने के लिए भूखंड को गिरवी रख सकता है या इन उद्देश्यों के लिए गैर आदिवासी व्यक्ति को भी यह जमीन दे सकता है.
हालंकि अनुसूचित जनजाति के लोगों को अपनी जमीन बेचने के लिए उप जिलाधिकारी से लिखित अनुमति लेनी होगी. अगर उप जिलाधिकारी मंजूरी नहीं देते हैं तो व्यक्ति छह महीने के अंदर जिलाधिकारी के पास अपील कर सकता है और जिलाधिकारी का फैसला अंतिम होगा.
विपक्षी भाजपा और कांग्रेस ने बुधवार को आरोप लगाया कि यह ‘माफिया, उद्योगपतियों और ठेकेदारों को आदिवासी जमीन खदीदने में मदद पहुंचाने की साजिश है.’
वरिष्ठ कांग्रेस विधायक और विधानसभा में पार्टी के सचेतक तारा प्रसाद बाहिनीपति ने कहा कि 2002 में गैर आदिवासियों के हाथों आदिवासियों की जमीन के हस्तांतरण को रोकने का कानून पारित करने के बाद सरकार के लिए इस विनियम में संशोधन करने का कोई तुक नहीं है.
फ़िलहाल राजनीतिक दबाव और चुनाव में नुकसान की आशंका की वजह से सरकार इस फ़ैसले से पीछ हट गई है. लेकिन इस प्रस्तावित संशोधन ने सरकार की समझदारी पर कई सवाल उठा दिये हैं.
सरकार का यह कदम बताता है कि उसके भीतर एक बड़ा तबका यह मानता है कि आदिवासी की ज़मीन की ख़रीद बिक्री की छूट दी जानी ज़रूरी है.
दरअसल यह समझ सरकार के भीतर इसलिए भी बनी है क्योंकि सरकार आदिवासी इलाकों में रोज़गार के साधन बनाने में नकाम रही है. इसके साथ ही आज भी आदिवासी को बैंक या फिर किसी और संस्था से लोन मिलना टेढ़ी खीर है.
इन कमियों को दूर करने की बजाए सरकार आदिवासियों को उनकी ज़मीन गिरवी रख कर लोन लेने का रास्ता खोलना चाहती है. लेकिन यह कदम उठाते हुए सरकार यह भूल जाती है कि जब आदिवासियों की ज़मीन की ग़ैर आदिवासियों की ख़रीद फ़रोख्त का यह कानून लाया गया था तो उसकी ज़रूरत क्यों पड़ी थी.
इस कानून की ज़रूरत इसलिए पड़ी थी क्योंकि यह देखा गया था कि आदिवासी मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज का चालबाज़ियों में मुकाबला नहीं कर पाता है. इसलिए आदिवासी की ज़मीन आसानी से हड़पी जा सकती थी.