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जोधइया बाई बैगा: खुद जीवित रहने की लड़ाई से लेकर कला को जीवित रखने तक का सफ़र

आदिवासी कला को संरक्षित और जीवत रखने के लिए 70 वर्षीय आदिवासी महिला को राष्ट्रपति ने पद्म श्री से सम्मानित किया है. उनका नाम जोधइया बाई बैगा (Jodhaiya Bai Baiga) है. इन्हें साल 2023 में कला के क्षेत्र में पद्म श्री से नवाज़ा गया है.

भारत के आदिवासी समुदायों में ज्यादातर आदिवासी अपनी घरों की दीवारों पर अलग-अलग तरह के चित्र बनाते है. दीवारों पर बनाए जाने वाले इन चित्रों में आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएं, जीवन शैली या फिर सामाजिक मान्यताओं को देखा जा सकता है.

वैसे तो यह दावा भी किया जाता है कि किसी ज़माने में आदिवासी गुफ़ाओं में चित्र बना कर एक-दूसरे को संदेश भी देते थे.

लेकिन यह एक स्थापित तथ्य है कि आदिवासियों के घरों की दीवारों पर जो चित्र बनाए जाते हैं वे ज़्यादातर धार्मिक या सामाजिक आयोजन में ही बनाए जाते हैं.

आदिवासी समुदायों की ऐसी ही एक कला के संरक्षण के प्रयासों के लिए बैगा समुदाय की जोधइया बाई को पद्मश्री पुरुस्कार से सम्मानित किया गया है.

उन्होंने आराम करने की उम्र में एक कला को संरक्षित करने के बारे में सोचा और उस कला यानी बैगा कला को संरक्षित करने में जुट गई.

जोधइया बाई बैगा

मध्य प्रदेश के उमरिया ज़िले के लोरहा नाम के एक छोटे से गांव में रहने वाली जोधइया बाई बैगा को कला के क्षेत्र में पद्म श्री से नवाज़ा गया है.

जोधइया बाई बैगा ने गांव में अन्य आदिवासी महिलाओं की तरह ही साधारण जिंदगी गुजारी है. वह लकड़ियां और गोबर बेचकर घर चलाने में अपने पति की मदद करती थीं.

उनके पति एक दिहाड़ी मज़दूर थे जो मामूली से काम कर के कुछ पैसा कमाते थे. इस पैसे से उनके लिए अपना परिवार पालना आसान नहीं था.

पद्म श्री अवार्ड मिलने के बाद मीडिया को दिये एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि वह 30 साल की उम्र में विधवा हो गई थी.

उन्होंने लोगों के घरों, खेतों में काम किया और अपने बच्चों की देखभाल के लिए कई छोटे-मोटे काम किए.

उन्होंने बताया कि दशकों बाद यानी 70 साल की उम्र में उन्होंने बैगा समुदाय की कहानियों को रंगीन तरीके से बताने के बारे में सोचा.

जोधइया बाई बैगा ने बताया की उनके जनजाति के लोग अपने शानदार नृत्यों के लिए जाने जाते है और उनके वहां के बैगा आदिवासी कारीगर हैं. जो लकड़ी, लोहे और धातु पर काम करते हैं और यह दिखने में कमाल का लगता है.

लेकिन अपने समुदाय में वे एकमात्र चित्रकार थीं जिन्होंने बैगा आदिवासी कहानियों को रंगों में वर्णित किया है.

जोधइया बाई बैगा ने कहा है कि उन्होंने पहली बार 70 साल की उम्र में सूखी लौकी और तोरई पर पेंटिंग करना शुरू किया और धीरे-धीरे, जैसे-जैसे उनमें आत्मविश्वास बढ़ता गया तो उन्होंने कागज पर काम करना शुरू कर दिया.

उन्होंने यह भी बताया है कि उन्हें हर महीने सरकार के तरफ से 1,600 रुपये मिलते हैं. जो रंग और कागज को खरीदने में खर्च हो जाते है.

इसके अलावा उन्होंने बताया है कि कुछ दयालु लोगों ने उन्हें अपनी जमीन पर एक झोपड़ी में रहने की अनुमति दी है. जिस से उनका जीवन यहां थोड़ा बेहतर गुजर रहा है.

जोधइया बाई बैगा ने कहा है कि उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया है. यह बात उनके लिए बहुत मायने रखती है.

कब सीखी बैगा कला ?

ऐसा दावा किया जाता है कि जब जोधइया बाई बैगा के पति की मृत्यु हुई तो उनके दिमाग में चित्रकारी करने का ख्याल आया.

उस समय दिवंगत कलाकार आशीष स्वामी जनगण तस्वीर खाना यानी स्टूडियो चलाते थे. उनके इसी स्टूडियो में जोधइया बाई बैगा ने चित्रकारी सीखी.

पहले फर्श पर रंगोली बनानी सीखी, फिर सब्जियों पर चित्रकारी की और बाद में लकड़ी पर अपनी कला को उभारा.

इसके बाद उन्होंने कागज, हैंडमेड पेपर और कैनवास पर चित्रकारी करनी शुरू की.

उपलब्धि

जोधइया बाई बैगा की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी र्सिफ मध्य प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश के कई शहरों में लगाई जा चुकी है.

साल 2019 में इटली में उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगाई गई थी. जिसके बाद साल 2022 में उनके कार्य की सराहना करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री रामनाथ कोविंद ने उनको नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया.

बैगा कला

बैगा कला आदिवासी कला का एक अनूठा रूप है. जिसको बैगा आदिवासी पीढ़ियों से करते आ रहे हैं.

बैगा आदिवासी मध्य भारत के मूल आदिवासियों में से एक हैं. इनकी कला प्रकृति के साथ इनके गहरे संबंध और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी दर्शाती है.

यह कला अपने जटिल डिजाइनों और ज्वलंत रंगों के लिए भी प्रसिद्ध है. जो प्रकृति से प्रेरित होते हैं.

बैगा आदिवासी का यह मानना है कि प्रकृति में सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है और उनकी कला इस दृश्य को पेश करती है.

ये आदिवासी अपनी कलाकृति बनाने के लिए मिट्टी, पत्तियों और पौधों के रंगों जैसी प्राकृतिक सामग्रियों का उपयोग करते हैं.

अक्सर इन बैगा आदिवासियों के डिजाइन प्राकृतिक दुनिया में पाए जाने वाले पैटर्न पर आधारित होते हैं. बैगा आदिवासियों की बैगा कला उनकी संस्कृति और परंपराओं के गहरे नाते को दर्शाता है.

बैगा कला का सबसे आम रूप गोदना है. जिसमें बैगा आदिवासी सदियों से टैटू गुदवाने का अभ्यास कर रहे हैं और उनके टैटू व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का एक रूप हैं. जो उनके जीवन और अनुभवों की कहानी को बताती हैं.

बैगा आदिवासी आमतौर पर बैगा टैटू को बांस से बनी सुई का उपयोग करके बनाते है और इसकी स्याही कोहला नाम के स्थानीय पेड़ के रस से बनाते है.

बैगा टैटू अपने जटिल डिज़ाइन और बोल्ड रंगों के लिए प्रसिद्ध है और अक्सर इनमें जानवरों, पक्षियों और पौधों जैसे डिज़ाइन बने होते हैं.

इसके अलावा बैगा कला का दूसरा रूप दीवार पेंटिंग है. जिसमें बैगा आदिवासी दीवार पर पेंटिंग करते है. जिस से आमतौर पर घरों और मंदिरों की दीवारों पर बनाया जाता हैं. जो बैगा आदिवासियों के लिए अपनी रचनात्मकता(creativity) व्यक्त करने और प्राकृतिक दुनिया से जुड़ने का एक तरीका हैं.

बैगा दीवार चित्रों में अक्सर भावात्मक(abstract) डिज़ाइन, ज्यामितीय पैटर्न(Geometric patterns), जानवरों और पक्षियों की छवियां बनाते हैं.

इसके अलावा बैगा आदिवासी अपने जीवंत रंगों और जटिल विवरणों(Description)के कारण प्रसिद्ध हैं. ये आदिवासी बैगा पेंटिंग में प्रकृति से बनाए गए रंगों का इस्तेमाल करते है.

कला से जुड़ी कहानी

बैगा कला की एक कहानी है. ऐसा दावा किया जाता है कि बैगा आदिवासियों के बुजुर्गों के अनुसार, इस कला को सबसे पहले उनकी आदिवासी समुदाय के मावई नाम की देवी द्वारा पेश किया गया था.

मावई स्वर्ग से आई थी और उन्होंने बैगा आदिवासियों को मिट्टी, पत्तियों और पौधों के रंगों जैसी प्राकृतिक सामग्रियों का उपयोग करके कला बनाना सिखाए जाने का दावा किया जाता है.

असल में यह कहा जाता है कि पूरी कहानी यह है कि मावई, बैगा आदिवासियों का प्रकृति के साथ जुड़ाव और पर्यावरण के साथ शांतिपूर्वक रहने की उनकी क्षमता से प्रसन्न थी.

वह प्रकृति के प्रति उनके सम्मान के लिए उन्हें पुरस्कृत करना चाहती थी और उन्हें कला का उपहार देने का फैसला किया.

मावई ने बैगा आदिवासियों को सिखाया कि कैसे सुंदर और जटिल डिजाइन बनाने के लिए प्राकृतिक सामग्रियों का उपयोग किया जाए. जो प्राकृतिक दुनिया की सुंदरता को दर्शाता हों.

बैगा आदिवासी इस नई कला से रोमांचित हुए और इसे बड़े उत्साह के साथ अपनाया. इन्होंने अपने शरीर, घरों और पूजा स्थलों पर कला बनाने के लिए अपने नए कौशल का उपयोग किया.

इन्होंने जटिल पैटर्न और डिज़ाइन बनाए जो प्राकृतिक दुनिया की सुंदरता का जश्न मनाते थे और पर्यावरण के साथ उनके गहरे संबंध को दर्शाते थे.

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