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Rajasthan Assembly Election 2023: मानगढ़ धाम के जरिए राजस्थान के आदिवासियों तक पहुंचना चाहती है भाजपा

राजस्थान की 200 विधानसभा सीटों के लिए शनिवार को मतदान होना है. इस बार चुनावी सभाओं में आदिवासी समुदाय का जिक्र हुआ. ऐसा ही एक आदिवासी गांव है मानगढ़ धाम जिसके जरिए जनता को अपने पाले में करने की बीजेपी ने कोशिश की है.

राजस्थान विधानसभा चुनाव में इन दिनों आदिवासियों का काफी जिक्र हुआ है. प्रधानमंत्री मोदी ने लगभग अपनी हर चुनावी रैली में आदिवासियों की बात की है. अब एक आदिवासी गांव में सड़क, बिजली और पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की गूंज राजनीतिक पटल पर देखी जा रही है.

यह गांव राजस्थान और गुजरात की सीमा पर बसा है और इसका नाम है मानगढ़ धाम..यह भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए चुनाव में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक केंद्र बिंदु के रूप में उभरा है.

ऊंची पहाड़ियों और शांत जंगलों की पृष्ठभूमि में बना मानगढ़ धाम हाल ही में दो महत्वपूर्ण कारणों से ध्यान में आया है. इसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व को पहचानते हुए इसे राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिया गया है. इसकी वजह से यह राजनीतिक परिदृश्य में अहम बन गया है.

पिछले साल नवंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘मानगढ़ धाम की गौरव गाथा’ कार्यक्रम के दौरान इसे राष्ट्रीय स्मारक की उपाधि दी गई.

पिछले महीने अपने मन की बात रेडियो कार्यक्रम में मोदी ने बांसवाड़ा में भील स्वतंत्रता सेनानी गोविंद गुरु के अलावा उन आदिवासियों को भी याद किया था, जिनका 1913 में राजस्थान के मानगढ़ में ब्रिटिश सेना ने नरसंहार किया था.

वहीं कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी आदिवासी चिंताओं पर जोर देते हुए रणनीतिक रूप से अगस्त में यहां राजस्थान चुनाव अभियान शुरू किया था.

राजस्थान-गुजरात सीमा पर बांसवाड़ा जिले में स्थित मानगढ़ धाम एक ऐतिहासिक स्थान है. 1913 में मानगढ़ धाम पर गोविंद गुरु महाराज अपने भक्तों के साथ आंदोलन कर रहे थे तभी ब्रिटिश अधिकारियों ने भीलों और अन्य जनजातियों पर गोलियां चला दीं. जो श्री गोविंद गुरु के नेतृत्व में शांतिपूर्वक एकत्र हुए थे. इस नरसंहार में 1500 से अधिक आदिवासी भाई बहन शाहिद हुए थे.

मानगढ़ धाम भील समुदाय के लिए गहरा ऐतिहासिक महत्व रखता है, जो 1913 के दुखद नरसंहार से उपजा है. मानगढ़ धाम को राजस्थान का जलियांवाला बाग हत्याकांड के रूप में भी देखा जाता है.

हाल ही में मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने से वोटों पर असर पड़ने की उम्मीद है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने में हो देरी की आलोचना करते हुए चिंता व्यक्त की थी.

डूंगरपुर और उदयपुर के बीच आदिवासी क्षेत्र में 17 सीटें हैं; 2018 में बीजेपी ने आठ, कांग्रेस ने सात और भारतीय ट्राइबल पार्टी ने दो सीटें जीतीं.

आसपुर से मानगढ़ धाम की 80 किलोमीटर की यात्रा चुनौतीपूर्ण बनी हुई है, चल रहे कुछ सड़क कार्यों से स्थानीय लोगों में आशा जगी है.

बेदुवा गांव के 60 वर्षीय निवासी सुमोभाई पारगी को नई सरकार से मामूली लेकिन महत्वपूर्ण उम्मीद है और वो है एक हैंडपंप की स्थापना. 12 सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण करते हुए, सुमोभाई अपने छोटे से खेत में गेहूं और मक्का की खेती करते हैं.

पारगी ने कहा, “पास में एक झील है लेकिन उसके खेतों तक पानी पहुंचाना एक चुनौती बनी हुई है. बिजली सुविधा भी उपलब्ध नहीं है. हम बस अपने गांव में एक हैंडपंप की मांग करते हैं.”

वहीं डोकर गांव के 28 वर्षीय और बीएड स्नातक महेश पटेल पिछले कुछ वर्षों से रोजगार की तलाश में है. उन्होंने कहा, ”हमने कांग्रेस को पांच साल दिए. अब हमें बीजेपी को मौका देना चाहिए. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा स्थापित यह स्मारक आदिवासियों के लिए बेहद गर्व की बात है. यह आदिवासियों की लंबे समय से लंबित मांग थी. साथ ही हम चाहते हैं कि अगर बीजेपी सत्ता में आती है तो हमारे क्षेत्र में विकास परियोजनाएं आएं.”

डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिले के जो इलाके गुजरात-राजस्थान सीमा क्षेत्रों से मिलते हैं उनके गुजरात के साथ एक मजबूत संबंध है. जिसके चलते इन क्षेत्रों का गुजरात से वित्तीय लेनदेन, टैक्सी संचालन, सिरेमिक, कपड़ा और हीरे जैसे उद्योगों में रोजगार शामिल हैं. इसके अलावा उदयपुर के युवाओं द्वारा गांधीनगर में आईटी सेवाओं में योगदान से आर्थिक संबंध भी मजबूत हुए हैं.

गुजरात के साथ अपने मजबूत संबंधों के लिए पहचाने जाने वाले इन क्षेत्रों को भाजपा लुभा रही है.

डूंगरपुर जिले के रहने वाले प्रताप राजपूत ने कहा कि उन्होंने बेहतर आजीविका की तलाश में कई साल पहले अहमदाबाद प्रवास का फैसला किया था.

प्रताप, जो राजस्थान में रहकर अपने छह लोगों के परिवार का भरण-पोषण करते हैं. उन्होंने कहा, “गाँव में हमारा खेत बहुत उपजाउ नहीं था और उससे अपने परिवार का भरण-पोषण करना चुनौतीपूर्ण था. थोड़ी-बहुत औपचारिक शिक्षा के साथ जब मैंने अपने गांव के अन्य लोगों को भी ऐसा करते देखा तो मैंने भी गुजरात में अवसरों की तलाश की. एकदम नए सिरे से शुरुआत करते हुए 15 साल बाद अब मेरे पास दो टैक्सियाँ हैं और मैं अपनी दोनों बेटियों की कॉलेज शिक्षा का खर्च भी उठा सकता हूँ.”

वांडा गांव के 46 वर्षीय चुन्नीलाल कटारा कई डिग्रियां रखने के बावजूद ऑटोरिक्शा चलाते हैं. वह कांग्रेस के काम की प्रशंसा करते हैं और उन्हें राजस्थान में हर पांच साल में सरकार बदलने का चलन पसंद नहीं है.

कटारा बताते हैं कि पलायन का मुद्दा चिंताजनक है और इसे स्थानीय रोजगार पैदा करने वाली उद्योग-अनुकूल पहल के माध्यम से संबोधित करने की जरूरत है.

दूसरी तरफ राज्य में भारतीय ट्राइबल पार्टी और भारतीय आदिवासी पार्टी जैसी जनजातीय पार्टियों का लक्ष्य सभी 17 सीटों पर जनजातीय वोट हासिल करना है.

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