छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव (Chhattisgarh assembly election) के लिए बीजेपी-कांग्रेस तैयारियों में लगे हैं. राज्य में इस साल होने वाले चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी (AAP) ने भी चुनाव लड़ने की घोषणा की है. आप ने कहा है कि वह सभी 90 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की तैयारी कर रही है.
वहीं दूसरी तरफ सर्व आदिवासी समाज (Sarva Advisasi Samaj) भी चुनाव मैदान में उतरने की घोषणा कर चुका है. इस घोषणा ने बीजेपी और कांग्रेस के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं. इस घोषणा के बाद 29 सीटों पर चुनाव के समीकरम बदल सकते हैं. क्योंकि ये 29 सीटें आदिवासी बहुल इलाके की हैं.
सर्व आदिवासी समाज के नेता अरविंद नेताम ने बीजेपी-कांग्रेस पर आरोप लगाया है. उनका कहना है कि दोनों पार्टियां सत्ता में रहीं लेकिन आदिवासी समाज के विकास के लिए कोई काम नहीं किया. अब सर्व आदिवासी समाज विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारेगा.
सर्व आदिवासी समाज की रणनीति
सर्व आदिवासी समाज की इस घोषणा के बाद से बीजेपी-कांग्रेस को नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी पड़ेगी. क्योंकि 23 वर्षों में छत्तीसगढ़ की आदिवासी राजनीति काफी हद तक दोतरफा मामला रही है. लेकिन पिछले साल के भानुप्रतापपुर उपचुनाव में अपने प्रदर्शन के दम पर सर्व आदिवासी समाज छत्तीसगढ़ में एक नए खिलाड़ी के रूप में उभर रहा है.
सर्व आदिवासी समाज संगठन (SASS) द्वारा समर्थित एक निर्दलीय उम्मीदवार को दिसंबर 2022 के उपचुनाव में 16 प्रतिशत वोट मिले. पूर्व उप महानिरीक्षक (डीआईजी) अकबर राम कोर्रम ने उपचुनाव में तीसरा स्थान हासिल किया. यह सीट को कांग्रेस ने जीत ली थी.
सर्व आदिवासी समाज संगठन में IPS, IAS और IRS के साथ-साथ राज्य सिविल सेवाओं के कई सेवानिवृत्त अधिकारी शामिल हैं. एसएएसएस अब साल के अंत में होने वाले चुनाव में राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 50 पर उम्मीदवारों का समर्थन करने के उद्देश्य से बड़े पैमाने पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहता है.
29 आदिवासी-आरक्षित सीटों के अलावा संगठन लगभग 20 सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है. ये 29 सीटें वे हैं जहाँ अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) की आबादी 20 से 40 हज़ार है.
पूर्व सांसद अरविंद नेताम, जिन्होंने इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकारों में मंत्री के रूप में कार्य किया है, सर्व आदिवासी समाज संगठन का नेतृत्व करते हैं.
सर्व आदिवासी समाज के नेता अरविंद नेताम ने मीडिया से बातचीत में कहा कि छत्तीसगढ़ की आदिवासी राजनीति पिछले 23 वर्षों में “दिशाहीन” हो गई है.
उन्होंने भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली राज्य की कांग्रेस सरकार और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम के तहत बनाए गए नियमों का जिक्र करते हुए कहा कि जल, जंगल, जमीन कानून और पेसा एक्ट के लिए 15 साल से बीजेपी से लड़ रहे आदिवासी के साथ धोखा हुआ है.
उन्होंने आगे कहा, “पेसा लागू किया गया है लेकिन इसकी भाषा बदल दी गई है. आदिवासियों के जल, जंगल या जमीन के उपयोग या अधिग्रहण के लिए पेसा ने ग्राम सभा से ‘अनुमति’ लेने का प्रावधान किया है. हालांकि, इसे लागू करते समय राज्य सरकार ने ‘अनुमति’ शब्द को ‘परामर्श’ में बदल दिया. इस तरह आदिवासियों को धोखा दिया गया है.”
आदिवासी और राज्य की राजनीति
छत्तीसगढ़ आबादी 2.75 करोड़ है, जिसमें से 34 फीसदी आदिवासी हैं. आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 सीटों के अलावा समुदाय के सदस्य दो अन्य सीटों से भी चुनाव लड़ते हैं जहां वे बहुमत में हैं.
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 28 आदिवासी सीटों पर जीत हासिल की थी. वहीं लोकसभा स्तर पर राज्य की 11 सीटों में से 4 – बस्तर, कांकेर, रायगढ़ और सरगुजा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. इसमें से कांग्रेस ने 2019 में सिर्फ बस्तर जीता, बाकी 3 बीजेपी के खाते में गए. सरगुजा की सांसद रेणुका सिंह केंद्रीय जनजातीय मामलों की राज्य मंत्री हैं.
मुख्यमंत्री के रूप में भूपेश बघेल एक बड़े आदिवासी का दिल जीतने की भरसक कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद आदिवासियों की हजारों एकड़ जमीन वापस कर दी, जिसे राज्य सरकार ने एक प्रस्तावित टाटा स्टील परियोजना के लिए अधिग्रहित किया था.
इसके अलावा सरकार ने धान के समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की है. साथ ही वन उपज के समर्थन मूल्य में भी वृद्धि की, इसके लिए एक बाजार स्थापित किया और राज्य सरकार द्वारा इसकी खरीद की व्यवस्था की.
पूर्व चुनाव अधिकारी और राजनीतिक विश्लेषक सुशील कुमार त्रिवेदी के मुताबिक, अविभाजित मध्य प्रदेश के दिनों से, जिससे छत्तीसगढ़ बना – राजनीतिक रूप से केवल एक आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग रही है.
हालांकि, आदिवासियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के नाम पर बड़े आदिवासी नेताओं के परिवार फलते-फूलते रहे हैं और अब भी ऐसा ही हो रहा है. लेकिन पूर्व मंत्री और बस्तर से राज्य भाजपा नेता महेश गागड़ा इस बात से असहमत हैं. उन्होंने कहा कि अगर आदिवासियों को राजनीतिक रूप से जागृत नहीं किया होता तो नौकरशाही का झुकाव उनकी ओर नहीं होता.
उन्होंने तब कहा था कि उनके परिवार से कोई भी राजनीति में नहीं है लेकिन फिर भी वह विधायक और मंत्री बने हैं. उन्होंने कहा कि दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों में विधायक के रूप में सेवानिवृत्त आईएएस, आईपीएस और अन्य सेवाओं के अधिकारी हैं. उन्होंने कहा, “हाल ही में एक और आईएएस अधिकारी ने चुनाव लड़ने के लिए इस्तीफा दे दिया. इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि आदिवासी राजनीति की धार कुंद हो गई है.”
आदिवासी आरक्षित विधानसभा सीटें राज्य के 5 प्रशासनिक डिविजन में से दो में केंद्रित हैं – सरगुजा (14) और बस्तर (12). 2000 में जब अजीत जोगी (Ajit Jogi) छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने दस्तावेजों में खुद को आदिवासी घोषित कर आदिवासी आरक्षित मरवाही विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ा और जीत गए.
उस समय सरगुजा संभाग के कद्दावर आदिवासी नेता रहे नंद कुमार साय को भाजपा ने छत्तीसगढ़ विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था. आदिवासियों के बीच भाजपा की उपस्थिति को मजबूत करने के प्रयास में साय ने जोगी की आदिवासी पहचान पर सवाल उठाना शुरू किया. और यह भाजपा के लिए काम करता दिखाई दिया.
2003, 2008 और 2013 के लगातार तीन चुनावों में बीजेपी ने आदिवासी इलाकों में शानदार प्रदर्शन किया. 2003 में बीजेपी को 25 आदिवासी सीटें मिलीं. जिनमें बस्तर में 11 और सरगुजा में 14 सीटें थीं.
2008 में बीजेपी को 19 आदिवासी सीटें मिलीं, जिनमें बस्तर में 11 और सरगुजा में 8. अगले चुनाव में उसने 11 सीटें जीतीं – बस्तर में 5 और सरगुजा में 6 सीटें. हालांकि, बाद में जब जोगी को एक सरकारी समिति द्वारा गैर-आदिवासी घोषित किया गया और फिर 2016 में वो कांग्रेस से अलग हो गए तो पार्टी की किस्मत बदल गई.
2018 में आदिवासियों ने कांग्रेस के लिए भारी मतदान किया. जो विभाजन से पहले के दिनों के बाद से एसटी-आरक्षित सीटों पर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था. नंद कुमार साय पिछले महीने ही बीजेपी से कांग्रेस में चले गए हैं. उन्होंने MBB से ख़ास बातचीत में कहा कि बीजेपी में आदिवासियों को ख़ास उद्देश्य के रूप में इस्तेमाल करने की प्रथा है. उन्होंने कहा, “23 साल तक मेरे साथ ऐसा ही हुआ.”
उन्होंने कहा कि एक आदिवासी महिला (द्रौपदी मुर्मू) को राष्ट्रपति बनाया गया और आदिवासियों के सम्मान के प्रतीक के रूप में इस फैसले को पूरे देश में प्रचारित किया जा रहा है.
उन्होंने कहा, “लेकिन जब नए संसद भवन के उद्घाटन का समय आया तो राष्ट्रपति को इसके उद्घाटन के लिए भी आमंत्रित नहीं किया गया. आप इसे क्या कहेंगे?”
आदिवासियों की चर्चा अच्छी है
छत्तीसगढ़ उन राज्यों में से है जहां चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही मुकाबला रहता है. इस मुकाबले में भी आदिवासी मतदाता और उसके विकास की चर्चा तो होती है, लेकिन वह परंपरागत ढांचे में ही चलती है.
लेकिन जब इस तरह की लड़ाई में क्षेत्रीय दल या आम आदमी पार्टी जैसा नया दल चुनाम मैदान में उतरता है तो फिर आदिवासियों के अधिकारों के चैंपियन बनने की प्रतिस्पर्धा थोड़ी और मुश्किल हो जाती है.
इस लिहाज़ से सर्व आदिवासी समाज और आप की एंट्री सत्ताधारी कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही आदिवासी मतदाताओं को संजीदगी से लेने पर मजबूर ज़रूर करेगी.