समाज के अलग अलग वर्गों को राजनीतिक दल वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं. लेकिन ज़्यादातर वर्ग चुनवा के बाद दबाव बना कर अपने लिए कुछ ना कुछ हासिल कर ही लेते हैं.
लेकिन आदिवासी समुदाय ऐसा है जिसे चुनाव में वादे मिल जाएँ तो मिल जाएँ, चुनाव के बाद कुछ नहीं मिलता है.
फ़िलहाल देश के कई राज्यों में चुनावों का माहौल बन चुका है और असम उनमें से एक राज्य है. ज़ाहिर है जब चुनाव पास हों तो इन सब समुदायों को पार्टियां याद करने लगती हैं, और उनके लिए अलग से प्लान भी बनाने लगती हैं.
असम में फ़िलहाल यही हो रहा है. अप्रैल के महीने में चुनाव होने हैं, तो पार्टियों ने वादों की बौछार करनी शुरू कर दी है.
असम में टी ट्राइब की अनुसूचित जनजाति दर्जे की मांग काफ़ी पुरानी है.
2016 के चुनाव से पहले भी इस मामले ने तूल पकड़ा था, और भाजपा ने इन्हें एसटी स्टेटस का वादा किया था. अब अगला चुनाव सिर पर है, लेकिन अनुसूचित जनजाति के दर्जे का सपना अभी भी अधूरा है.
हालांकि यह साफ़ है कि पार्टियां इस मुद्दे को भूली नहीं हैं. विधानसभा चुनाव से पहले अब राज्य की भाजपा सरकार ने चाय के बागानों में काम करने वालों का दैनिक भत्ता 50 रुपए बढ़ा दिया है.
उधर, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पिछले हफ़्ते इसे 167 रुपए से बढ़ाकर 365 रुपए करने का वादा किया था.
दरअसल, टी ट्राइब कहे जाने वाले यह लोग आदिवासी ही हैं, जिन्हें अंग्रेज़ अफ़सर चाय के बागानों में काम करने के लिए मध्य भारत से लाए थे. यह लोग असम की आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा हैं, और राज्य की 126 विधानसभा सीटों में से 45 में एक बड़ा वोट बैंक हैं.
राज्य सरकार के ऐलान के बाद इस मुद्दे पर चुनावी सरगर्मी तेज़ हो गई है.
कांग्रेस ने इस बढ़ोत्तरी को मामूली कहकर सरकार की कड़ी आलोचना की है. भाजपा ने 2016 चुनाव से पहले जारी किए अपने विज़न डॉक्यूमेंट में दैनिक भत्ते को 351 रुपए करने की बात कही थी.
कांग्रेस का कहना है कि अगर केरल में चाय बागान मज़दूरों को ठीकठाक पैसे दिए जा सकते हैं, तो असम में क्यों नहीं.