HomeAdivasi Dailyआंध्र प्रदेश: लुप्त होती आदिवासी कलाओं को बचाने का प्रयास

आंध्र प्रदेश: लुप्त होती आदिवासी कलाओं को बचाने का प्रयास

आंध्र प्रदेश के ताजांगी गांव में ज़ल्द ही आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को सम्मानित करने के लिए संग्रहालय का निमार्ण किया जाएगा. ये पूरा संग्रहालय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियों को प्रदर्शित करेगा. इसके साथ ही इसका निमार्ण कार्य अप्रैल 2024 तक पूरा होने की उम्मीद है.

देशभर में आए दिन आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को सम्मानित करने के लिए संग्रहालय बनाए जा रहे हैं. इन संग्रहालयों के ज़रिए लोगो को आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान के बारे में कई जानकारियां मिल सकती है.

अब आंध्र प्रदेश (Andhra Pradesh) के विशाखापत्तनम शहर से लगभग 120 किलोमीटर दूर चिंतापल्ली मंडल (Chintapalli mandal) में लंबासिंगी (Lambasingi) के पास ताजंगी (Tajangi) गांव में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों (Tribal freedom fighters) के योगदान को सम्मानित करने के लिए संग्रहालय (Museum) बनाया जाएगा.

इस संग्रहालय का निमार्ण जनजातीय कार्यमंत्रालय (Ministry of Tribal Affairs) के अंतर्गत होगा. संग्रहालय में प्रवेश द्वार पर आदिवासियों की एक मार्केट, रेस्टोरेंट और एम्फीथिएटर का निर्माण किया जाएगा. इस पूरे संग्रहालय को बनाने में 35 करोड़ की लागत आएगी.

वहीं जनजातीय सांस्कृतिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण मिशन (Tribal Cultural Research and Training Mission) के अंतर्गत देश के 11 राज्यों के सभी आदिवासी कलाकार मिलकर चित्रकारी का काम कर रहे हैं. जिसे आने वाले समय में संग्रहालय में स्थापित किया जाएगा. संग्रहालय के निरीक्षक पी शंकर राव (P. Sankara Rao) ने बताया की वो कोंडा, दोरा और सरिका जैसे कई अन्य आदिवासियों से मिलें. इन सभी आदिवासियों ने कई महत्वपूर्ण जानकारी दी है. हालांकि, ये आदिवासी अब चिंतापल्ली क्षेत्र से विस्थापित हो गए हैं.

इसके साथ ही इन आदिवासी समुदाय ने अपने स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा इस्तेमाल किए गए औजार और कई कलाकार्तियां संग्रहालय के अधिकारियों को दी है. जो आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को बखूबी दर्शाता है.

संग्रहालय के निरीक्षक ने ये भी बताया कि उन्हें ऐसे कई आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जानकारी मिली है जिसके बारे में शायद ही किसी ने पहले कभी सुना होगा.
आदिवासी समुदायों द्वारा मिली इन सभी जानकारियों का मिलाकर आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान की कई कहानियों को 33 मिनट की डॉक्यूमेंट्री में तब्दील किया गया है. जिसे संग्रहालय में बनने वाले एम्फीथिएटर में दिखा जाएगा.

इसमें आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और छतीसगढ़ से जुड़े कई आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की कहानी शामिल है. संग्रहालय के अधिकारी ने ये भी बताया की इसका निर्माण नवंबर 2023 तक पूरा होने की संभावना है. लेकिन भारी बारिश, मज़दूरों की कमी और तकनीकी हालात की खराबी के चलते काम में रूकावट भी आ सकती है. ऐसा होने पर इसे अप्रैल 2024 तक पूरा किया जाएगा.

साथ ही यहां पर सावरा और कई अन्य जनजातियों द्वारा बनाए गए चित्रकारी भी देखने को मिल सकती है.सावरा जनजातियों (Savara Tribe) की कला उनके पुरखों से चली आ रही है. इनकी कला में पेड़-पौधे, फूल और जानवर देखने को मिल जाएगें. इनमें बने सभी चिन्ह सावरा जनजाति से जुड़े कई कहानियों के बारे में बताते हैं

राजू के सावरा चित्रकारी की कहानी

राजू आंध्र प्रदेश के पार्वतीपुरम मान्यम ज़िले का रहने वाला सावरा जनजाति का सदस्य है. राजू ने सावरा कला अपने पिता से सिखी थी. उसने बताया की उसके गाँव के सभी घरों के बाहर ये चित्रकारी की जाती है. इसमे सिंदूर, चावल का आटा और कोयले का इस्तेमाल होता है.

यह सिर्फ एक चित्र नहीं है बल्कि इस कला के ज़रिए सावरा समुदाय अपनी संस्कृति की गहराई को दर्शाता है. इस चित्रकारी को ईडिसुंग (Idusung) कहते है. जिसका अर्थ है घर के बाहर बना चित्र.

सवारा आदिवासियों में फसल पकने के बाद त्यौहार बनाया जाता है. जिसमें ये आदिवासी इन चित्रों को बनाते हैं. राजू के अलावा सिर्फ 15 ही लोग ऐसे हैं जिन्हें ये चित्र बनाने आते है. सावरा चित्रकारी अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. ऐसे में इसे बढ़ावा देने के लिए राजू जैसे बेहतरीन कलाकार को 2021 में राज्य सरकार की तरफ से वाईएसआर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार (YSR Lifetime achievement award) दिया गया था.

संग्रहालय बनने से राजू जैसे कई सावरा जनजाति के लोगों को एक अस्थाई रोज़गार मिलने की उम्मीद की जा सकती है. साथ ही सावरा कला को संग्रहालय में स्थापित करने से इसे एक पहचान मिलेगी. जिससे इस आदिवासी समुदाय के कलाकारों को आने वाले समय में रोज़गार मिलने की उम्मीद है. लेकिन सरकार को इसके लिए इन आदिवासियों को बेहतर मार्केट देनी पड़ेगी.

साथ ही जो मार्केट संग्रहालय के भीतर देने की बात कही गई है उसमें कितनी लागत आदिवासी लोगों को देना पड़ेगा. इसके बारे अभी तक कोई जानकारी नहीं है. इसलिए अगर आदिवासियों से मार्केट देने की आड़ में लागत ज़्यादा लिया जाता है तो यह रोज़गार के विकल्प की ज़गह एक संकट बन सकता है.

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