पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में आदिवासियों के स्वास्थ्य देखभाल में भाषा एक दीवार बन रही है. जिसके चलते मरीज डॉक्टरों को अपनी समस्याएं समझाने में विफल हो जाते हैं.
आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले डॉक्टर और नर्स अक्सर स्थानीय लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को समझ नहीं पाते हैं. और न ही आदिवासी लोग डॉक्टरों और नर्सों की बात समझ पाते हैं.
पुरुलिया के मानबाजार की एक महिला ने शुक्रवार को शहर में आदिवासी स्वास्थ्य पर आयोजित एक सेमिनार के मौके पर कहा कि भाषा के कारण मरीज डॉक्टर को अपनी स्वास्थ्य समस्याओं को समझाने में विफल रहते हैं.
वहीं एक सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने कहा कि यहां तक कि सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित संदेशों के साथ बांटे गए पैम्फलेट भी स्थानीय भाषा में नहीं हैं. जिसके कारण आदिवासी निवासियों का एक बड़ा वर्ग यह नहीं समझ पाता है कि उनमें क्या लिखा है.
भाषा की बाधा का मतलब है कि डॉक्टर मरीजों का इलाज उनकी समस्याओं की सीमित समझ के आधार पर कर रहे हैं. यह निदान और उपचार के परिणाम को प्रभावित कर सकता है.
पुरुलिया के पुंचा थाना क्षेत्र के कुरकुटिया गांव में रहने वाली सरला सोरेन ने कहा कि भाषा की बाधा विशेष रूप से बुजुर्गों को प्रभावित करती है. जिन्हें उम्र से संबंधित बीमारियों के कारण दूसरों की तुलना में स्वास्थ्य केंद्रों में जाने की अधिक जरूरत होती है.
सरला सोरेन ने कहा, “आदिवासी युवा बंगाली जानते हैं और बंगाली में डॉक्टर या नर्स से बात कर सकते हैं. लेकिन बुजुर्ग लोग अभी भी केवल संथाली बोलते हैं. वे डॉक्टर या नर्स को अपनी समस्याएं सटीक रूप से बताने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि वे भाषा नहीं समझते हैं.”
ऐसे में किसी ऐसे व्यक्ति को प्रशिक्षित करने की जरूरत है जो दोनों भाषाएँ बोलता हो और उस व्यक्ति को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त करने से समस्या का समाधान हो सकता है.
सेमिनार के आयोजक, सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और सेंटर फॉर पब्लिक हेल्थ रिसर्च के डायरेक्टर निर्मल्य मुखर्जी ने कहा, “ऐसे किसी पहल की जरूरत है. ऐसा करना कोई मुश्किल काम नहीं है.”
मुखर्जी ने बताया कि विशेष तौर पर आदिवासी बेल्ट में स्वास्थ्य केंद्र गांवों से बहुत दूर स्थित हैं.
सरला सोरेन के लिए यह एक जीवंत अनुभव था. उन्होंने कहा, “मेरा पैतृक घर बांकुरा में है. स्वास्थ्य केंद्र घर से लगभग 10 किमी दूर है.”
सेमिनार में डॉक्टरों ने यह भी बताया कि कैसे गैर-संचारी रोग (non-communicable diseases) भारत की आदिवासी आबादी के लिए एक बड़ा खतरा बन गए हैं.
केरल के एक डॉक्टर ने भारत में आदिवासी समुदाय को प्रभावित करने वाली सामान्य बीमारियों के बारे में भी बात की. हृदय रोग विशेषज्ञ जयदीप मेनन ने कहा कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि गैर-संचारी रोग आदिवासी लोगों में मृत्यु का एक प्रमुख कारण हैं.
उन्होंने कहा, “आईसीएमआर ने 2015 और 2018 के बीच 5,292 व्यक्तियों की मौत के कारणों की पहचान की. यह भारत के 12 राज्यों में किया गया. इसमें पाया गया कि 66 फीसदी मौतें गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) से हुईं. इससे पता चला कि आम धारणा के विपरीत कि आदिवासी लोग संक्रमण के कारण बीमार पड़ते हैं, वे जीवनशैली से जुड़ी कुछ बीमारियों से भी प्रभावित होते हैं.”
पिछले साल केंद्र सरकार के प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो द्वारा इस सर्वेक्षण पर एक विज्ञप्ति में बताया गया था कि अध्ययन से संकेत मिलता है कि एनसीडी ने आदिवासी आबादी के बीच भी मृत्यु के अन्य कारणों (जैसे संक्रामक रोगों) की जगह ले ली है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की वेबसाइट हृदय रोग, स्ट्रोक, कैंसर, मधुमेह और पुरानी फेफड़ों की बीमारियों को गैर-संचारी रोगों में सूचीबद्ध करती है.
मेनन ने कहा कि इससे भी बदतर स्थिति यह है कि आदिवासी लोगों का एक वर्ग कुपोषण से और दूसरा वर्ग तंबाकू और शराब की लत से पीड़ित है.
अक्सर देखने को मिलता है कि आदिवासियों के स्वास्थ्य देखभाल में भाषा बाधा बनती है. क्योंकि भाषा के ही चलते आदिवासी अपनी बीमारियों के बारे में डॉक्टरों को ठीक ढंग से बता नहीं पाते हैं और इससे उन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पाता है.
ऐसे में जरूरत है डॉक्टरों और आदिवासियों के बीच एक मध्यस्थ के होने की, जो आदिवासियों को भाषाओं को बोले और समझे. इससे मध्यस्थ को आदिवासी मरीजों की स्थिति से डॉक्टरों को अवगत कराने में मदद मिलेगी.