HomeAdivasi Daily"आदिवासियों के तुष्टिकरण का दावा भी बीजेपी नहीं कर सकती है."

“आदिवासियों के तुष्टिकरण का दावा भी बीजेपी नहीं कर सकती है.”

नेहरू और उसके बाद की सरकारों और इतिहासकारों की नीयत और समझदारी पर सवाल उठाने वाली बीजेपी बताए कि उसने आदिवासी के लिए क्या किया है. बीजेपी का रिकॉर्ड इस मामले में इतना ख़राब है कि यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह आदिवासियों का तुष्टिकरण कर रही है.

1 नवंबर 2022 को गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित पहाड़ी के उपर मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मानगढ़ धाम के बारे में बात करते हुए भारत के स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासियों की भूमिका को याद किया.

उन्होंने कहा, “मानगढ़ धाम वीर-वीरांगनाओं के तप, त्याग, तपस्या और देशभक्ति का प्रतिबिंब है.” इस मौक़े पर भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि यह स्थान गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के लोगों की साझी विरासत है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में गोविंद गुरू और उनके नेतृत्व में आदिवासियों के विद्रोह के बारे में विस्तार से बात की थी. इस अवसर पर उन्होंने अफ़सोस प्रकट भी किया. उन्होंने कहा, “दुर्भाग्य से आदिवासी समाज के इस संघर्ष को आज़ादी के बाद लिखे गए इतिहास में जो जगह मिलनी चाहिए थी, वो जगह नहीं मिली.”

उन्होंने दावा किया कि आज़ादी के अमृत महोत्सव में अब देश उसी कमी को पूरा कर रहा है. 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मानगढ़ धाम जाना और इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित करना सीधे सीधे चुनाव से जुड़ा हुआ है. सब जानते हैं कि गुजरात में कम से कम 15 प्रतिशत आदिवासी आबादी है. इसके अलावा मध्य प्रदेश में भी अगले साल चुनाव है और वहाँ भी बीजेपी आदिवासी मतदाता को साधने में जुटी हुई है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

जब भी किसी राज्य में चुनाव होता है तो ज़ाहिर बात होती है कि सत्ताधारी दल तरह तरह की लोक लुभावने घोषणाएँ करते हैं. लेकिन मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो बातें कहीं हैं, वे सिर्फ़ चुनाव प्रचार तक सीमित नहीं हैं.

उन्होंने दावा किया कि आज़ादी के बाद आदिवासियों के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को इतिहास में जगह नहीं दी गई. उनका यह दावा बीजेपी और संघ परिवार के एक बड़े अभियान का हिस्सा है. इस अभियान में संघ परिवार यह दावा करता है कि आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में इतिहास को एक ख़ास मक़सद से एक ख़ास अंदाज़ में लिखा गया है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दावे के बारे में हमने कुछ इतिहासकारों से बातचीत की है. इस सिलसिले में हमने सबसे पहले प्रोफ़ेसर मृदुला मुखर्जी के सामने प्रधानमंत्री मोदी के दावे को रखा. मृदुला मुखर्जी प्रधानमंत्री मोदी के दावे को सिरे से ख़ारिज करती हैं.

वो कहती हैं, “हमारी आज़ादी की लड़ाई में आदिवासियों का योगदान बहुत बड़ा रहा है. इस योगदान को हमेशा स्वीकार भी किया गया है.” 

प्रोफ़ेसर मृदुला मुखर्जी

मृदुला मुखर्जी कहती हैं, “नेहरू आदिवासियों के मामले में चाहते थे कि उन्हें म्यूज़ियम की वस्तु की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. लेकिन वो यह भी नहीं चाहते थे कि आधुनिकतावाद आदिवासियों पर थोप दिया जाए. वे चाहते थे कि आदिवासियों को देश के विकास का लाभ मिले लेकिन साथ साथ उनकी सांस्कृतिक पहचान भी बची रहे.”

मृदुला मुखर्जी पूछती हैं,”अगर नेहरू और उस समय की सरकार आदिवासियों के प्रति द्वेष रखती थी तो फिर हमारे संविधान में आदिवासियों और आदिवासी इलाक़ों के लिए अलग से विशेष प्रावधान कैसे शामिल हुए.”

मृदुला मुखर्जी कहती हैं कि नेहरू और उसके बाद की सरकारों और इतिहासकारों की नीयत और समझदारी पर सवाल उठाने वाली बीजेपी बताए कि उसने आदिवासी के लिए क्या किया है. बीजेपी का रिकॉर्ड इस मामले में इतना ख़राब है कि यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह आदिवासियों का तुष्टिकरण कर रही है.

क्योंकि तुष्टिकरण का मतलब होता है कि आप उन्हें कम से कम कुछ तो दे ही रहे हैं. लेकिन बीजेपी जो कर रही है उसे सिर्फ़ झूठा प्रचार ही कहा जा सकता है. 

इस सवाल को हमने एक और जाने माने इतिहासकार सलिल मिश्रा के सामने भी रखा. सलिल मिश्रा कहते हैं, “आदिवासियों के बारे में उस समय (आज़ादी के समय) दो बिलकुल अलग अलग धारणा और समझ थी. पहली समझ ये थी कि उनको उनकी दुनिया में रहने दो और अपने तरीक़े से जीने दो. यह एक तरह से ब्रिटिश समझ थी. इसका एक मतलब ये भी था कि आदिवासियों को ग़रीबी में ही पड़े रहने दिया जाए. दूसरी समझ ये थी कि आदिवासियों को भी आधुनिक सुविधाएँ मिलनी चाहिएँ और उन्हें मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए. इस समझ में ख़तरा था कि उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान नष्ट हो जाती.“

प्रोफ़ेसर सलील मिश्रा

सलिल मिश्रा कहते हैं कि जब 1947 में देश आज़ाद हुआ तो उस समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की समझ इन दोनों ही राय से अलग थी. नेहरू चाहते थे कि आधुनिकतावाद आदिवासियों पर थोपा ना जाए. बल्कि आदिवासी समुदायों से ही लीडरशिप तैयार होनी चाहिए जो बदलाव के वाहक बने सकें. 

वो कहते हैं, “नेहरू आदिवासी समुदायों की दुनिया में न्यूनतम हस्तक्षेप के पक्ष में थे. उनकी समझ थी की बदलाव आदिवासी समाज के भीतर से आना चाहिए ना कि तकनीक, विकास और पूँजी के दम पर आप उन पर बदलाव थोप दें.”

वो कहते हैं कि नेहरू चाहते थे कि आदिवासी समाज को बदलाव से जुड़ा हुआ महसूस करना चाहिए. उन्हें ऐसा नहीं लगना चाहिए कि विकास और बदलाव उन पर थोप दिया गया है. नेहरू आदिवासियों को ना तो बिलकुल अलग थलग रखना चाहते थे और ना ही यह चाहते थे कि उनके इलाक़े में या उनके जीवन में किसी तरह का अतिक्रमण हो.

सलिल मिश्रा कहते हैं, “आदिवासी समुदायों के बारे में नेहरू की समझ सबसे बेहतर थी. यह कहना कि आदिवासियों को नज़रअंदाज़ किया गया या फिर उनके साथ नाइंसाफ़ी की गई, यह सही नहीं है.”

इस सवाल पर अपने उत्तर को समझते हुए सलिल मिश्रा कहते हैं, “बीजेपी आज जो कह रही है वो मात्र दिखावा है. बीजेपी ने आदिवासियों के लिए कुछ भी नहीं किया है.”

प्रोफ़ेसर राकेश बटब्याल जवाहरलाल यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाते हैं. हमने प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में आदिवासियों के साथ तथाकथित ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी की बात रखी. इस पर राकेश बटब्याल कहते हैं कि दरअसल बीजेपी अब आदिवासियों को बताना चाहती है कि उनके साथ नाइंसाफ़ी की गई है. 

बीजेपी और आरएसएस देश भर में आदिवासियों को यह बताना चाहती है कि अभी तक की सरकारों ने उनके साथ नाइंसाफ़ी की है और वो सरकारों के सताए हुए लोग हैं. 

राकेश बटब्याल कहते हैं, “प्रधानमंत्री इतिहासकार नहीं हैं बल्कि वो एक प्रचारक हैं जो प्रोपगेंडा चलाते हैं. इसलिए इतिहास और आदिवासियों के बारे में उनके बयान इतिहास की दृष्टि से गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है. वो अपनी पार्टी की तरफ़ से लोगों में एक प्रचार करना चाहते हैं. वही उनकी भूमिका है.”

वो आगे कहते हैं, “गुजरात के विधान सभा चुनाव की दृष्टि से आदिवासी इलाक़े बीजेपी के लिए चुनौतीपूर्ण रहे हैं. 90 के दशक से ही बीजेपी बल्कि आरएसएस आदिवासी इलाक़ों में काफ़ी एक्टिव रहे हैं. उनकी  गतिविधियाँ मुख्य तौर पर ईसाई धर्म प्रचारकों के ख़िलाफ़ प्रचार पर केंद्रित रहीं थीं. इसी दौरान डांग में सांप्रदायिक दंगे भी हुए थे.”

राकेश बटब्याल की नज़र में आदिवासी बीजेपी के लिए चुनाव से आगे का एजेंडा या प्रोजेक्ट है. दरअसल संघ परिवार लंबे समय से आदिवासियों का हिन्दूकरण करने पर काम कर रहा है. आरएसएस यह स्थापित करने में जुटा है कि आदिवासी दरअसल पिछड़े हुए हिन्दू हैं.

“आदिवासियों में चाहे वो मिशनरी हों या फिर आरएसएस, दोनों एक ही मक़सद से काम कर रहे हैं. दोनों चाहते हैं कि आदिवासी उनके धर्म में शामिल हो जाएँ. कोई भी उन्हें उनकी तरह से स्वीकार नहीं करना चाहता है. उन्हें स्वायत्ता नहीं देना चाहता है.”

अब यह देखा जा रहा है कि आदिवासी भी धीरे धीरे एक ऐसे समूह के तौर पर उभर रहे हैं जिसको राष्ट्रीय स्तर पर एक वोट बैंक माना जा सकता है. इस वोटबैंक को पाने के लिए बीजेपी को कांग्रेस और अब आम आदमी पार्टी से भी संघर्ष करना होगा. इसी संघर्ष में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भाषण देखा जाना चाहिए.

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