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आदिवासी भारत में मानसिक स्वास्थ्य – साँकल में शक्ति या क़ैद में मासूम

वहाँ जंगल की तरफ़ निकल जाती है, पहाड़ों में खो जाती है. उसे कभी थकान ही नहीं होती है. वह किसी से कुछ नहीं कहती है, किसी से कोई बात ही नहीं करना चाहती है, बस भागते रहना चाहती है.

जयमन अपनी बाँहें फैला कर ना जाने क्या करना चाहते हैं. उनको उँगलियों पर छड़ी से मार पड़ती है. लेकिन वो बार बार अपनी बाँहें फैला लेते हैं. 

कभी सामने की तरफ़ बाँहें फैलाते हैं, तो कभी आसमान की तरफ़ बाँहों को उठाते हैं और ज़ोर लगा कर खींचते हैं, फिर बाँहों को फैलाकर कंधों की सीध में लाते हुए नीचे ले आते हैं.

क्या वो अपने आस-पास कुछ ऐसा देखते या महसूस करते हैं जो हम और आप शायद नहीं देख पा रहे हैं या समझ पा रहे हैं.  या फिर वो कुछ तलाश करते हैं…कुछ है जिसे वो छूने की कोशिश करते हैं…या फिर वो प्रार्थना कर रहे होते हैं…या फिर कुछ पा लेने की आस में वो बाँहें फैला लेते हैं.

वो साँकल में बंधे हैं, लेकिन शायद उड़ना चाहते हैं….मनोविज्ञान का कोई विद्यार्थी कभी उनसे मिले, बातें करे तो शायद पता चले की जयमन के मन में आख़िर क्या चलता है. 

मंगडू ज़्यादातर ख़ामोश ही रहते हैं. जयमन की तरह की चंचलता उनमें दिखाई नहीं देती है. उनका चेहरा बहुत प्यारा लगता है. उनके चेहरे पर एक नरमी नज़र आती है. ऐसा लगता है कि वो अपने में ही मगन रहना चाहते हैं.

उन्हें किसी से कुछ नहीं कहना है, ना उन्हें किसी से कोई अपेक्षा है और ना ही कोई शिकवा-शिकायत. लेकिन ना जाने क्यों वो कभी कभी अचानक बेहद आक्रामक हो जाते हैं. घर से निकल जाते हैं तो चलते चले जाते हैं, ना उन्हें खाते हैं और ना सोते हैं. 

कमला की सही सही उम्र तो उनके परिवार को भी नहीं पता है, शायद उनकी उम्र 15-16 साल होगी. कमला घर से भाग जाना चाहती है, घर के बाहर भी वह रूकती नहीं है.

वहाँ जंगल की तरफ़ निकल जाती है, पहाड़ों में खो जाती है. उसे कभी थकान ही नहीं होती है. वह किसी से कुछ नहीं कहती है, किसी से कोई बात ही नहीं करना चाहती है, बस भागते रहना चाहती है.

कमला, जयमन, मंगड़ु जैसे लोग जिनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है, बड़े धाराऊर नाम के गाँव के मंदिर में रहते हैं. इस मंदिर के बारे में यह दावा किया जाता है कि यहाँ पर मानसिक बीमार लोग ठीक हो जाते हैं.

इस मंदिर के पुजारी तुलाराम यह दावा करते हैं कि उनके पिता ने यहाँ पर जो देवी स्थापित की थी, उनकी कृपा से लोग ठीक हो जाते हैं. उनके बेटे सिरहा गुनिया हैं. सिरहा गुनिया मतलब वह व्यक्ति होता है जिसके शरीर में देवी प्रवेश करती है. 

तुलाराम कहते हैं, ” यहाँ पर दैवीय शक्ति से ही इलाज किया जाता हैं. कई बार अपने पुरखे बिगड़े रहते हैं. लोग भूल जाते हैं और पशु-पानी नहीं देते हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि जब लोग अच्छा कमा कर खा रहे हो तो दूसरे लोग भी कुछ करवा देते हैं.”

इस मंदिर में मानसिक रूप से स्वस्थ्य हो जाने की कामना में लाए गए लोगों को कई बार लंबे समय यहाँ रहना पड़ता है. इस दौरान बीमार व्यक्ति के परिजनों में से किसी ना किसी को सहारेदार के तौर पर बीमार व्यक्ति के साथ रहना पड़ता है.

मसलन कमला को यहाँ क़रीब 4 महीने पहले लाया गया था. तब से उसके माता पिता उसके साथ यहीं रह रहे हैं. वो अपना घर-बार, खेती-बाड़ी सब छोड़ आए हैं. 

कमला की माँ कलावती बताती है, “हमारी एक ही बेटी है, 24 घंटे इसकी रखवाली करनी पड़ती है. डर रहता है कि कहीं जंगल में चली गई और कहीं नदी नाले में कूद कर मर गई तो क्या होगा.”

कमला के बारे में बात करते हुए वो कहती हैं,”यह तो काम धाम वाली लड़की थी, लेकिन फिर पगली हो गई.”

इस मंदिर में मानसिक रूप से अस्वस्थ जो भी आता है उसे साँकल में बांध कर रखा जाता है. इसके अलावा यहाँ के पुजारी इन लोगों को क़ाबू में रखने के लिए बल प्रयोग से भी हिचकते नहीं हैं. 

इस बारे में पुजारी बातचीत में बताते हैं, “यहाँ लाए गए लोग भागते हैं, पेड़ पर चढ़ जाते हैं. कई बार फाँसी भी लगा लेते हैं. एक बार यहां रह रहे एक आदमी ने अपनी पत्नी के सिर पर पत्थर से वार किया और उसे मार दिया.”

वो आगे कहते हैं, “साँकल से बांध कर रखना ही पड़ता है. इस साँकल में भी देवी की शक्ति होती है.”

मानसिक बीमारी से पीड़ित लोगों के परिवार के लोग मंदिर, मज़ारों या गिरजा की शरण में जाते हैं. क्या पता पूजा पाठ के माहौल से उनकी रिकवरी में कुछ फ़ायदा होता हो. कई बार इस तरह के लेख भी पढ़ने को मिले हैं जिनमें मानसिक बीमारी के लिए आध्यात्म और दवाई के मेल की बात पर ज़ोर दिया गया है.

धाराऊर के मंदिर में जब पूजा पाठ शुरू होती है तो कमला को छोड़ कर सभी मरीज़ गुनिया का अनुसरण करते हैं. इस मंदिर के पुजारी ने हमें बताया था कि यहाँ लाए गए मरीज़ों में उनकी संख्या ज़्यादा होती है जो आक्रामक होते हैं.

इस तरह के मरीज़ों को पूजा पाठ के माहौल से शांत रखना शायद कुछ आसान हो जाता हो. लेकिन यहाँ के पुजारी या फिर मानसिक रूप से बीमार लोगों के परिवार को यह आइडिया भी नहीं है कि यहाँ पर मरीज़ों को जिस तरह से लोहे कि साँकल में बांध कर रखा जाता है, वह ग़ैर क़ानूनी है.

मेंटल हेल्थ केयर एक्ट 2017 के प्रावधान के अलावा सुप्रीम कोर्ट के अनुसार ऐसा करना संविधान की धारा 21 यानि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है.

वैसे पुजारी के अनुसार यहाँ पर जो लोग इलाज के लिए आते हैं वे अपनी मर्ज़ी से यहाँ पर रहते हैं और इसकी सूचना स्थानीय थाने में दी जाती है.

इस मंदिर के पुजारी बताते हैं कि यहाँ पर साल में कम से कम 25-30 लोग मानसिक बीमारी से छुटकारा पाने के लिए उनके पास आते हैं. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आदिवासी भारत में मानसिक स्वास्थ्य कितना गंभीर मसला है.

हाल ही में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान निमहंस के सर्वे में बताया गया है कि देश में क़रीब 15 करोड़ लोगों मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहे हैं.

लेकिन मानिसक स्वास्थ्य के क्षेत्र में डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी है. लेकिन देश के आदिवासी इलाक़ों में तो चुनौती यह है कि यहाँ के बारे में तो लोग यह मान बैठे हैं कि आदिवासी इलाक़ों में तो किसी का मानसिक स्वास्थ्य ख़राब हो ही नहीं सकता है. 

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