HomeAdivasi DailyUCC लागू करने की ज़िद और आदिवासी इलाकों में बैकफ़ायर का डर

UCC लागू करने की ज़िद और आदिवासी इलाकों में बैकफ़ायर का डर

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करना, कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करना और UCC को लागू करना बीजेपी के चुनावी वादों में से एक रहे हैं. अयोध्या में मंदिर का निर्माण हो चुका है और कश्मीर से धारा 370 हटा दिया गया है तो अब चर्चा UCC पर है.

उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी की सरकार ने समान नागरिक संहिता या यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) के फाइनल ड्राफ्ट को मंजूरी दे दी है. इसे 6 फरवरी को विधानसभा में पेश किया जाएगा. आज से उत्तराखंड विधानसभा का सत्र भी शुरू हुआ है. ये विशेष सत्र खासतौर पर यूसीसी को कानून बनाए जाने के लिए बुलाया गया है.

ड्राफ्ट को सदन के पटल पर पेश करने से पहले कैबिनेट की मंजूरी जरूरी थी. ड्राफ्ट कमेटी ने बहु-विवाह से लेकर बाल विवाह पर प्रतिबंध तक प्रावधान किया है. इसके साथ ही अवैध संबंध से होने वाली संतान को भी संपत्ति में बराबरी का हक देने की सिफारिश की है.

740 पेज की ड्राफ्ट कमेटी की रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट की रिटायर्ड जज रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय कमेटी ने तैयार की है.

समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक का उद्देश्य नागरिक कानूनों में एकरूपता लाना है यानी प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून होना. समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा.

हालांकि, यूसीसी ड्राफ्ट कमिटी ने अपनी विशिष्ट पहचान, पिछड़ेपन और विभिन्न कारणों से घटती जनसंख्या को देखते हुए राज्य की जनजातियों को समान नागरिक संहिता से बाहर रखने की सिफारिश की है.

उत्तराखंड की आबादी में 2.9 प्रतिशत जनजातीय आबादी है. इनमें जौनसारी, भोटिया, थारू, राजी और बुक्सा शामिल हैं.

सूत्रों का कहना है कि उत्तराखंड विधानसभा में इस विधेयक के पारित होने के बाद यह प्रदेश अन्य राज्यों के लिए एक मॉडल बन जाएगा. इसके बाद गुजरात और असम में भी यूसीसी विधेयक लाया जा सकता है.

वैसे भी हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) ने राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने का फैसला किया है. और उन्होंने भी राज्य की आदिवासी आबादी को इस कानून के दायरे से बाहर रखे जाने की बात कही है.

UCC और आदिवासी

जब से देश में एक बार फिर से समान नागरिक संहिता की चर्चा शुरू हुई तब से आदिवासी समाज इसका विरोध कर रहा है. झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और नागालैंड में कई आदिवासी समूहों ने समान नागरिक संहिता को लेकर अपना विरोध जताया है.

दरअसल, यूसीसी को लेकर आदिवासी समाज के डर की सूची में सबसे ऊपर अपने कड़ी मेहनत से लड़े गए भूमि अधिकारों को खोना है. इसके बाद विवाह, विरासत और बच्चे को गोद लेने की उनकी आदिवासी सांस्कृतिक प्रथाएं आती हैं.

आदिवासी समाज के भीतर प्रथागत कानूनों द्वारा शासित एक विशिष्ट न्यायिक प्रणाली मौजूद है. इसके अलावा अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार (PESA) अधिनियम 1996 उन्हें विशेष संवैधानिक अधिकार प्रदान करता है.

पूर्वोत्तर में जनजातीयों के परंपरागत तरीके से चली आ रही कई प्रथागत कानूनों की सुरक्षा की गारंटी भारत के संविधान के तहत दी गई है. देश के पूर्वोत्तर राज्यों में करीब 220 से अधिक विभिन्न जातीय समूह निवास करते हैं और इसे दुनिया के सांस्कृतिक रूप से सबसे विविध क्षेत्रों में से एक माना जाता है.

पूर्वोत्तर के प्रमुख आदिवासी समूह चिंतित हैं कि एक समान नागरिक संहिता लागू हुआ तो वो विशेष रूप से बहुसंख्यक-केंद्रित दृष्टिकोण के साथ उनके लंबे समय से चले आ रहे रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर अतिक्रमण करेगी, जो संविधान द्वारा संरक्षित हैं.

जनजातीय समूहों के बीच उत्तराधिकार प्रथाओं में कोई एकरूपता नहीं है. पूर्वोत्तर में कुछ लोग मातृसत्तात्मक रीति-रिवाजों का पालन करते हैं लेकिन झारखंड में संपत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों को दे दी जाती है. इसलिए आदिवासियों पर यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना आसान नहीं है.

हालांकि, केंद्र या बीजेपी सरकारें आदिवासियों को यूसीसी से बाहर रखने की वकालत इसलिए नहीं कर रही है क्योंकि उनकी अस्मिता और पहचान को ख़तरा है…बल्कि इसलिए कर रही है कि लोकसभा चुनाव 2024 में आदिवासी वोटबैंक खिसने का ख़तरा है.

UCC और BJP

वैसे तो देश की आज़ादी के बाद से समान नागरिक संहिता या यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) की मांग चलती रही है. इसके तहत एक ही कानून होगा जिसमें किसी धर्म, लिंग और लैंगिक झुकाव की परवाह नहीं की जाएगी. यहां तक कि संविधान कहता है कि राष्ट्र को अपने नागरिकों को ऐसे कानून मुहैया कराने के ‘प्रयास’ करने चाहिए.

लेकिन एक समान कानून की आलोचना देश का हिंदू बहुसंख्यक और मुस्लिम अल्पसंख्यक दोनों समाज करते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में कहें तो यह एक ‘डेड लेटर’ है.

भारतीय जनता पार्टी और यूनिफॉर्म सिविल कोड का नाता बहुत पुराना है. साल 1967 के आम चुनाव में भारतीय जनसंघ ने अपने चुनावी मेनिफ़ेस्टो में पहली बार ‘समान नागरिक संहिता’ का स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया था.

घोषणापत्र में ये वादा किया गया कि अगर जनसंघ सत्ता में आती है तो देश में ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ लागू किया जाएगा.

हालांकि, चुनाव के नतीजे विपरीत आए और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई.

इसके बाद साल 1967-1980 के बीच भारतीय राजनीति में एक के बाद एक ऐसी घटनाएं हुईं जिनके बीच ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ का मुद्दा एक हद तक बैकग्राउंड में चला गया.

लेकिन साल 1980 में बीजेपी की स्थापना के बाद एक बार फिर यूसीसी की मांग ने जगह बनानी शुरू कर दी.

किसी भी बीजेपी सरकार (यहां तक कि अपने पहले कार्यकाल के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार) ने भी समान नागरिक संहिता लागू करने की पहल नहीं की.

हालांकि समय-समय पर इसे लेकर विवाद और बयानबाज़ियां होती रही हैं. बीजेपी नेता ये आश्वस्त करते रहे कि यूसीसी का मुद्दा अब भी उनकी प्रमुखताओं में एक है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक इस पर खुलकर कुछ नहीं कहा था.

लेकिन फिर पिछले साल 27 जून को ऐसा पहली बार था जब पीएम मोदी यूसीसी पर इतने विस्तृत तरीके से बात कर रहे थे.

भोपाल में एक कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने देश में समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए कहा कि ‘एक ही परिवार में दो लोगों के लिए अलग-अलग नियम नहीं हो सकते. ऐसी दोहरी व्यवस्था से घर कैसे चल पाएगा?’

पीएम मोदी ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है. सुप्रीम कोर्ट डंडा मारता है. कहता है कॉमन सिविल कोड लाओ. लेकिन ये वोट बैंक के भूखे लोग इसमें अड़ंगा लगा रहे हैं. लेकिन भाजपा सबका साथ, सबका विकास की भावना से काम कर रही है.”

समान नागरिक संहिता पर प्रधानमंत्री के आए बयान के बाद ज्यादातर विपक्षी पार्टियों ने ये आरोप लगाया कि 2024 के चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए यूसीसी का मुद्दा छेड़ा है और वो जनता को गुमराह करना चाहते हैं.

विपक्षी दलों का आरोप है कि यूसीसी का इस्तेमाल सत्तारूढ़ बीजेपी देश पर हिंदू बहुसंख्यकवाद थोपने के लिए करेगी.

अयोध्या में विवादित जगह पर राम मंदिर का निर्माण करना, कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करना और UCC को लागू करना बीजेपी के चुनावी वादों में से एक रहे हैं. अयोध्या में मंदिर का निर्माण हो चुका है और कश्मीर से धारा 370 हटा दिया गया है तो अब चर्चा UCC पर है.

भारत में UCC लागू करना मुश्किल क्यों

बीजेपी का चुनावी घोषणा पत्र कहता है कि ‘जब तक भारत समान नागरिक संहिता नहीं अपना लेता है तब तक लैंगिक समानता नहीं हो सकती है.’

लेकिन असलियत बहुत ज्यादा कठिन है. दूसरे शब्दों में कहें तो यूसीसी बनाने के विचार ने उस पिटारे को खोल दिया है जिसके देश के हिंदू बहुमत के लिए भी अनपेक्षित नतीजे होंगे जिसका प्रतिनिधित्व करने का दावा बीजेपी करती है. विशेषज्ञों का कहना है कि यूसीसी मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं की भी सामाजिक जिंदगी को प्रभावित करेगी.

भारत जैसे बेहद विविध और विशाल देश में समान नागरिक कानून को एकीकृत करना बेहद मुश्किल है.

उदाहरण के तौर पर देखें तो हिंदू भले ही व्यक्तिगत कानूनों का पालन करते हैं लेकिन वो विभिन्न राज्यों में विभिन्न समुदायों की प्रथाओं और रीति-रिवाजों को भी मानते हैं.

वहीं संपत्ति और उत्तराधिकार के मामलों में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कानून हैं. पूर्वोत्तर भारत के ईसाई बहुल राज्यों जैसे कि नागालैंड और मिज़ोरम में अपने पर्सनल लॉ हैं और वहां पर अपनी प्रथाओं का पालन होता है न कि धर्म का.

गोवा में 1867 का समान नागरिक कानून है जो कि उसके सभी समुदायों पर लागू होता है लेकिन कैथोलिक ईसाइयों और दूसरे समुदायों के लिए अलग नियम हैं. जैसे कि केवल गोवा में ही हिंदू दो शादियां कर सकते हैं.

भारत में समान नागरिक संहिता केंद्रीय और राज्य सरकारों की आम रुचि का मुद्दा रहा है. लेकिन साल 1970 से राज्य अपने खुद के कानून बना रहे हैं.

कई सालों के बाद साल 2005 में एक संशोधन किया गया जिसके बाद मौजूदा केंद्रीय हिंदू व्यक्तिगत कानून में बेटियों को पूर्वजों की संपत्ति में बेटों के बराबर हक दिया गया.

विशेषज्ञों का कहना है कि UCC को कुछ बुनियादी सवालों का जवाब देना होगा. जैसे कि शादी और तलाक का क्या मानदंड होगा? गोद लेने की प्रक्रिया और परिणाम क्या होंगे? तलाक़ के मामले में ग़ुज़ारा भत्ते या संपत्ति के बंटवारे का क्या अधिकार होगा? और अंत में संपत्ति के उत्तराधिकार के नियम क्या होंगे?

वहीं बीजेपी सरकार जो यूसीसी की वकालत कर रहा है वो धर्मांतरण कानून और समान नागरिक कानून का सामंजस्य कैसे करेगी जो कि स्वतंत्र रूप से विभिन्न धर्मां और समुदायों के बीच विवाह की अनुमति देता है. जबकि धर्मांतरण कानून अंतर-धार्मिक विवाहों पर अंकुश लगाने का समर्थन करता है.

कुल मिलाकर चुनावी विशेषज्ञों का कहना है कि क्योंकि राम मंदिर और अनुच्छेद 370 का मुद्दा बीजेपी ने चुनावों में भरपूर भुना लिया है, ऐसे में पार्टी को एक ऐसा मुद्दा चाहिए था जिस पर ध्रुवीकरण किया जा सके तो उन्होंने यूसीसी का मुद्दा उठाया है.

लेकिन उसे यह डर भी सता रहा है कि कहीं यह मामला आदिवासी इलाकों में बैकफ़ायर ना कर जाए.

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