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जम्मू-कश्मीर में “आदिवासी बचाओ आंदोलन” बीजेपी का आदिवासियों से किए वादों को बेनकाब कर रहा है

आदिवासी बचाओ आंदोलन गुज्जर-बकरवाल संयुक्त कार्रवाई समिति के बैनर तले कुपवाड़ा से कठुआ तक फैला हुआ आदिवासी छात्रों, कार्यकर्ताओं और युवाओं द्वारा शुरू किया गया एक शांतिपूर्ण पैदल आंदोलन है.

अपने बार-बार के दावों में बीजेपी आदिवासियों और पसमांदा मुसलमानों को लेकर चिंता जताती है. बजट के बाद ‘रीचिंग द लास्ट माइल’ विषय पर एक वेबिनार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “सरकार सबसे वंचितों और आदिवासियों के लिए विशेष मिशन शुरू कर रही है.”

27 जून, 2023 को भोपाल में भाजपा कार्यकर्ताओं को अपने संबोधन में मोदी ने पसमांदा मुसलमानों, आदिवासियों और समाज के सबसे वंचित वर्गों के कल्याण के लिए पार्टी की पहुंच और काम को रेखांकित किया.

अगर वे वास्तव में आदिवासियों के बीच अभाव और बहिष्कार की परवाह करते हैं तो जम्मू-कश्मीर के आदिवासी अपने अधिकारों के कमजोर होने के डर से सड़कों पर क्यों उतर रहे हैं?

गुज्जर-बकरवाल जनजाति की आबादी 12 प्रतिशत है. जो इसे जम्मू और कश्मीर में जातीय कश्मीरी मुसलमानों और हिंदू डोगराओं के बाद तीसरी सबसे बड़ी जातीयता बनाती है जो विशेष रूप से इस्लाम का पालन करते हैं. गुज्जर-बकरवाल जनजाति जम्मू-कश्मीर की सभी जनजातियों में सबसे पिछड़ी में से एक है.

वे कस्बों और शहरों से दूर जंगलों और भारत-पाक एलओसी के पास दूर-दराज के पहाड़ी इलाकों में रहते हैं. जो उन्हें बुनियादी सुविधाओं, समृद्धि, विकास और टेक्नोलॉजी के युग के संपर्क से वंचित करता है.

इन सुविधाओं में सड़क, बिजली, पानी की आपूर्ति, चिकित्सा सुविधाएं और शिक्षा शामिल हैं. यही वजह है कि वे गरीबी में फंसे हुए हैं. वे खानाबदोश, अर्ध-खानाबदोश, चरवाहे और कृषि-पशुपालक हैं. कुछ सौ परिवारों को छोड़कर जम्मू-कश्मीर में कोई भी स्थायी किसान गुज्जर नहीं है.

19 अप्रैल, 1991 को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत 1991 के अध्यादेश संख्या 3 के तहत भारत सरकार द्वारा गुज्जर-बकरवाल जनजाति को एसटी का दर्जा दिया गया था. यह हाशिए पर पड़ी और बहिष्कृत जनजाति के उत्थान के उद्देश्य से किया गया एक कदम था.

आदिवासी बचाओ आंदोलन

आदिवासी बचाओ आंदोलन गुज्जर-बकरवाल संयुक्त कार्रवाई समिति के बैनर तले कुपवाड़ा से कठुआ तक फैला हुआ आदिवासी छात्रों, कार्यकर्ताओं और युवाओं द्वारा शुरू किया गया एक शांतिपूर्ण पैदल आंदोलन है.

यह आंदोलन का पहला चरण था जिसमें उन्होंने खानाबदोशों को बताया कि किस तरह सरकारी फैसले प्रभावित कर सकते हैं.

यह आंदोलन जीडी शर्मा आयोग की रिपोर्ट का भी विरोध करता है. जिसका गठन 2020 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए किया गया था. जीडी शर्मा के नेतृत्व में और कोई आदिवासी सदस्य नहीं होने के कारण आयोग ने पहाड़ी भाषाई समूह गडा ब्राह्मण, पहाड़ी, पाडरी, कोली के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की सिफारिश की.

पहाड़ी भाषाई समूह में ब्राह्मण, राजपूत, मुगल, सैयद, मिर्जा आदि जैसी पचास से अधिक जातियाँ शामिल हैं और एक सामान्य भाषा पहाड़ी बोलते हैं. यही कारण है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने उन्हें 4 प्रतिशत का ‘पहाड़ी भाषी लोगों’ का कोटा दिया है.

पहाड़ी भाषाई समूह की छत्रछाया में कुछ जातियाँ ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के तहत आरक्षण का आनंद लेती हैं. साथ ही ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) और आरबीए (आरक्षित पिछड़ा क्षेत्र) कोटा से भी लाभान्वित होती हैं.

पर्याप्त आरक्षण लाभ का आनंद लेने के बावजूद वे अब राजनीतिक आरक्षण हासिल करने के लिए एसटी दर्जे की मांग कर रहे हैं. वे अपनी ऐतिहासिक स्थिति को बरकरार रखने के लिए ऐसा दावा करते हैं. जबकि ये लोग भी उच्च और शासक वर्ग के हैं जिन्होंने सदियों तक शासन किया है.

ऐसे में जम्मू-कश्मीर के आदिवासी विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे सदियों के निरंकुश शासन और सामंतवाद द्वारा उनसे जुड़े सामाजिक कलंक के कारण सदियों से चली आ रही गरीबी, मानवीय पतन और पराधीनता के लगातार शिकार होने से थक चुके हैं.

दूसरी बार आदिवासियों का गुस्सा तब फूट पड़ा जब केंद्र सरकार ने 26 जुलाई, 2023 को मानसून सत्र के दौरान एक विधेयक “संविधान (जम्मू और कश्मीर) अनुसूचित जनजाति आदेश संशोधन विधेयक, 2023” पेश किया. इसके बाद उन्होंने अपने मवेशियों से सड़कों और गलियों को भर दिया और जम्मू शहर के तवी पुल को अवरुद्ध कर दिया.

बाद में पूरे केंद्र शासित प्रदेश में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए, जिसमें हजारों आदिवासी शामिल हुए.

गुज्जर-बकरवाल समुदाय के सदस्य ऐतिहासिक नस्लीय और जातिवादी भेदभाव के शिकार हैं. जम्मू-कश्मीर में वे पिछड़ेपन का पर्याय हैं और संसाधनों तक उनकी पहुंच सीमित है. उनके पास उत्पादन के साधनों का स्वामित्व नहीं है.

कार्ल मार्क्स ने ठीक ही कहा था कि जो लोग उत्पादन के साधनों के मालिक हैं और उन पर नियंत्रण रखते हैं, वे राजनीतिक सत्ता पर भी नियंत्रण रखते हैं.

राजनीतिक शक्ति आर्थिक शक्ति का प्रतिबिंब मात्र है. उच्च वर्ग, जिन्हें भाजपा अनुसूचित जनजाति श्रेणी में शामिल करने की योजना बना रही है. उनके पास क्षेत्र में उत्पादन के साधन और उपजाऊ भूमि है. गुज्जर-बकरवाल की तुलना में कस्बों और शहरों तक उनकी पूरी पहुंच है.

उन्हें आम तौर पर “ज़मींदार” कहा जाता है, जिसका अर्थ है जमीनों का मालिक. गुज्जर-बकरवालों को कश्मीर घाटी और जम्मू क्षेत्र दोनों में नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है. उन्हें जम्मू में धार्मिक उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है. गुज्जर-बकरवाल समुदाय ने विभाजन के बाद से ही उत्पीड़न को झेला है.

गुज्जर-बकरवालों के साथ जुड़ा सामाजिक कलंक

सामाजिक कलंक के कारण गलत अवधारणाएं बनती है और परिणामस्वरूप मुद्दों का समाधान नहीं हो पाता है. कलंक कुछ लोगों और उनकी जरूरतों को समाज में अदृश्य बना देता है. गुज्जर-बकरवाल सामाजिक कलंक और पहचान को आत्मसात करने के सबसे बुरे शिकार हैं.

“गुर्जर” शब्द का प्रयोग अक्सर सार्वजनिक स्थानों पर उच्च जाति के लोगों द्वारा एक गाली के रूप में किया जाता है. आदिवासी बड़े समाज में स्वीकार्यता की लड़ाई लड़ रहे हैं. यह एक ऐसी लड़ाई है जिसके लिए वे अपनी परंपराओं और संस्कृति को पीछे छोड़ रहे हैं. क्योंकि बहुसंख्यक लोग उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं.

ऐसे में वे अपनी पहचान का दावा करने में शर्म महसूस करते हैं क्योंकि उन्हें हीन माना जाता है. उनके पास सिर्फ यही विकल्प है: या तो उन्हें अपनी पहचान को आत्मसात करना होगा या सार्वजनिक स्थानों पर भेदभाव का सामना करना होगा.

2019 में कुपवाड़ा के कलारूस इलाके के सुदूर गांव मूर की एक गुज्जर महिला को अपने घर पर प्रसव पीड़ा का अनुभव हुआ. जिसके बाद उसे कलारूस अस्पताल ले जाया गया. लेकिन वहां से महिला को श्रीनगर लाल डेड अस्पताल रेफर कर दिया गया, जहां डॉक्टरों ने उसका इलाज करने से इनकार कर दिया.

परिवार के सदस्यों ने आरोप लगाया कि डॉक्टर आपस में चर्चा कर रहे थे और कह रहे थे, “एमिस चु फख यिवान, यिम ची गुज्जर” (उनसे दुर्गंध आ रही है, वे गुज्जर हैं). बाद में महिला ने श्रीनगर के फुटपाथ पर 0.7 डिग्री तापमान पर मृत बच्चे को जन्म दिया.

गुज्जर-बकरवाल से जुड़े इस ऐतिहासिक विश्वासघात और कलंक ने समुदाय को मनोवैज्ञानिक रूप से आघात पहुंचाया है. जिससे मनोवैज्ञानिक चिंता पैदा हुई है. सामाजिक और राजनीतिक अधीनता और आर्थिक वर्चस्व के अलावा मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न का मानसिक स्वास्थ्य पर सबसे बुरा प्रभाव पड़ता है और जनजाति के लोगों में हीन भावना विकसित होती है.

उच्च वर्ग के नेतृत्व वाली जम्मू-कश्मीर सरकार के उदासीन रवैये के कारण गुज्जर-बकरवाल जनजाति को राजनीतिक आरक्षण, वन अधिकार अधिनियम और एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम सहित अनुसूचित जनजाति अधिनियम के कई लाभों से वंचित कर दिया गया है.

2001 और 2011 में दशकीय जनगणना गर्मियों के मौसम के दौरान आयोजित की गई थी जब गुज्जर-बकरवाल अपने परिवारों और पशुधन के साथ अपने मवेशियों के साथ हिमालय में चरागाहों और घास के मैदानों (ढोक) की ओर चले गए थे.

परिणामस्वरूप उनकी वास्तविक जनसंख्या की सटीक गणना नहीं की जा सकी. जिससे उनकी वास्तविक जनसंख्या और जनगणना के आंकड़ों के बीच विसंगति पैदा हो गई.

वहीं 1947 से 2021 तक गुज्जर-बकरवाल द्वारा सामना किए गए बहिष्कार और अभाव का आकलन करने के लिए सरकार द्वारा कोई विशेष सर्वेक्षण नहीं किया गया था. सौभाग्य से 2021 में जम्मू-कश्मीर के जनजातीय विभाग द्वारा उनके घास के मैदानों (ढोक) में गुज्जर-बकरवाल का एक सर्वेक्षण किया गया. जिससे पता चला कि वे दुनिया में सबसे बड़ा प्रवासी ट्रांसह्यूमन्स समूह हैं. जिसमें सालाना 6 लाख 12 हज़ार लोग प्रवास करते हैं.

यह सर्वेक्षण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. क्योंकि सरकार को उनके मुद्दों को संबोधित करने से पहले उनकी स्थिति को समझने की जरूरत है. साथ ही इससे पता चलता है कि सरकार को उनके बहिष्कार की कोई चिंता नहीं थी. ऐसे में जम्मू-कश्मीर में गुज्जर-बकरवाल का बहिष्कार और वंचित होना संगठित और व्यवस्थित प्रतीत होता है.

आदिवासियों के लिए दी गई धनराशि हर साल ख़त्म हो जाती है. मैदानी इलाकों से हिमालयी घास के मैदानों की ओर मौसमी प्रवास के दौरान उनकी बकरी और भेड़ के झुंड कई बार कुचले जाते हैं. वहीं इसके विपरीत राष्ट्रीय राजमार्गों पर बिजली गिरने और जंगली जानवरों के हमलों जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण कई जानवरों की मौत हो जाती है.

इस सबके बावजूद सरकार ने कोई मुआवजा नहीं दिया है. मैदानी इलाकों में उनके इलाज के लिए कोई मोबाइल डिस्पेंसरी नहीं हैं. यह जनजाति पिछड़ी हुई है क्योंकि सत्ता में बैठे लोगों ने इनका शोषण किया है.

गुज्जर-बकरवाल की वफादारी

गुज्जर-बकरवाल अपनी राज्य-समर्थक वफादारी और आतंकवाद-विरोधी रवैये के कारण बहिष्कार और हाशिए के शिकार हैं. जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्र में जहां अलगाववादी आंदोलन दशकों से चला आ रहा है वहां गुज्जर-बकरवाल समुदाय की भागीदारी न्यूनतम है.  परिणामस्वरूप अलगाववादियों द्वारा उन्हें सहयोगी और गद्दार करार दिया जाता है.

उन्होंने आतंकवादी गतिविधियों को खत्म करने में राष्ट्रीय सुरक्षा की सहायता की है. और इसके उदाहरणों में ऑपरेशन सर्पविनाश और ऑपरेशन जिब्राल्टर को विफल करना शामिल है.

ऑपरेशन सर्पविनाश जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के इतिहास में आतंकवादियों के खिलाफ सबसे बड़ा ऑपरेशन है. इसे गुज्जर-बकरवाल आदिवासी सदस्यों के समर्थन और मार्गदर्शन के सा  भारतीय सेना और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा लॉन्च किया गया था.

यह ऑपरेशन पुंछ के सुरनकोट इलाके की काका घाटी में चलाया गया था. जहां आतंकवादियों ने पूरी घाटी पर कब्जा कर लिया था और इसे प्रशिक्षण केंद्र और भर्ती शिविर के रूप में इस्तेमाल किया था. उन्होंने लगातार आदिवासी लोगों को परेशान किया और उनकी हत्या की. इतना ही नहीं उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया.

ऐसे में उस क्षेत्र के आदिवासियों ने तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात की और इन आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन शुरू किया. इस आतंकवाद विरोधी अभियान में गुज्जर बकरवाल समुदाय के 12 सदस्य शहीद हो गए.

वहीं ऑपरेशन जिब्राल्टर को इस जनजाति के एक सदस्य मोहम्मद दीन जागीर ने विफल कर दिया था. पाकिस्तानी घुसपैठियों ने उनसे कहा था कि वे घास के मैदानों में उनके लिए कश्मीरी कपड़ों की व्यवस्था करें ताकि वे बिना पहचाने पार कर सकें. इनकी योजना ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत कश्मीर पर कब्ज़ा करने की थी.

इसके बजाय जागीर ने पाकिस्तानी ऑपरेशन को विफल करते हुए पुलिस को सूचित किया. बाद में उन्हें उनकी बहादुरी के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया लेकिन बाद में 1996 में आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी.

इस जनजाति की आह, दुःख और प्रतिवाद को पर्याप्त रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता है. लेकिन यह लंबे समय तक विश्वासघात की कहानी है. आज भी सामाजिक भेदभाव विभिन्न क्षेत्रों में गुज्जरों और पहाड़ी निवासियों को विभाजित करने वाला एक प्रमुख कारक बना हुआ है.

उच्च वर्ग के समुदायों के घरों में घरेलू श्रम या जबरन श्रम का सबसे बड़ा हिस्सा गुज्जर-बकरवाल का है. जबकि सबसे धनी गुज्जर परिवारों में भी कोई उच्च वर्ग का शख्स, यहां तक कि उनमें से सबसे गरीब भी घरेलू नौकर के रूप में नहीं पाया जा सकता है.

अभी भी ऐसे कई इलाके हैं जहां गुज्जर-बकरवाल सैयदों, राजपूतों और ब्राह्मणों के बराबर बैठने की हिम्मत नहीं करते. ऐसे में इन उच्च वर्गों को अनुसूचित जनजाति के दर्जे में शामिल करने से स्पष्ट रूप से गुज्जर-बकरवाल के बीच असंतुलन और अशांति पैदा होगी.

भारतीय संविधान के जनक और प्रमुख समाज सुधारक डॉ. बीआर अंबेडकर ने ठीक ही कहा था, “यह आपका समानता का दावा है जो उन्हें आहत करता है. वे यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं. अगर आप अनिच्छा से अपनी निम्न स्थिति को स्वीकार करते रहेंगे और गंदे, पिछड़े, अज्ञानी, गरीब और असंगठित बने रहेंगे तो वे आपको शांति से रहने देंगे. जैसे ही आप अपना स्तर बढ़ाना शुरू करते हैं संघर्ष शुरू हो जाते हैं.”

गुज्जर-बकरवाल जनजाति की समस्याओं के समाधान के लिए केंद्र में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को चुनावी लाभ के लिए तुष्टिकरण की नीति अपनाने के बजाय व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए. अब समय आ गया है कि वे पसमांदा और आदिवासी समुदायों के प्रति अपनी वास्तविक चिंता प्रदर्शित करें, जिसके वादे उन्होंने किए हैं.

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