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आदिवासी पहचान को मुद्दा बना रहे हैं चंपाई सोरेन, क्या चुनाव में लाभ मिल सकता है

आजकल खूंटी जिले के विभिन्न आदिवासी गांवों में सरना धर्म सभाओं का आयोजन किया जाता है और सुख, शांति और समृद्धि के लिए ‘भगवान सिंगबोंगा’ से प्रार्थना की जाती है.

झारखंड विधानसभा चुनाव (Jharkhand assembly elections) से पहले मुख्यमंत्री चंपई सोरेन (Champai Soren) ने जनगणना में सरना आदिवासी धर्म (Sarna tribal religion) के लिए अलग कोड के मुद्दे पर आवाज उठाई है. यह राज्य की आदिवासी आबादी (Adivasi population) के बीच काफी समय से लंबित और भावनात्मक मांग है.

प्रकृति की पूजा पर केंद्रित, सरना आदिवासी धर्म मुख्य रूप से झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, असम और पश्चिम बंगाल में आदिवासी समुदायों द्वारा माना जाता है.  

आदिवासियों का कोई अलग धर्म कोड नहीं है. भारत में केवल हिंदू, इस्लाम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन के पास ही अपना धर्म है.

साल 2011 की जनगणना में करीब 50 लाख लोगों ने अपना धर्म सरना के रूप में दर्ज कराया था.

अलग सरना कोड के समर्थकों का तर्क है कि यह आस्था और आदिवासी परंपराओं की रक्षा करने और धर्मांतरण को रोकने के लिए महत्वपूर्ण है. यह मांग झारखंड में कई आंदोलनों के केंद्र में रही है, जहां 2011 की जनगणना के मुताबिक 26.2 प्रतिशत आदिवासी आबादी है.

जानिये सरना धर्म के बारे में

नतीजतन, यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है. जिसमें झारखंड विधानसभा ने 2020 में एक विशेष सत्र में ‘सरना आदिवासी धर्म’ कोड की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया.

लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) और उसकी सहयोगी कांग्रेस दोनों ने सरना कोड को लेकर भारतीय जनता पार्टी (BJP) को घेरने की कोशिश की थी.

ऐसा लगता है कि लोक सभा चुनाव में अन्य मुद्दों के अलावा आदिवासियों की अलग से पहचान दर्ज किये जाने का मुद्दा भी इंडिया गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण रहा.

इसलिए उसने आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी सीटों पर जीत हासिल की.

​अब नवंबर-दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ भाजपा को सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ रहा है.

कोल्हान, उत्तरी छोटानागपुर और संथाल परगना डिविजन में एसटी के लिए 28 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं, जो 81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में सत्ता हासिल करने के लिए अहम हैं. 2019 में भाजपा ने इनमें से केवल दो सीटें जीती थीं.

इसी पृष्ठभूमि में चंपाई सोरेन ने 23 जून को पूर्वी सिंहभूम के घाटशिला में माझी परगना महल – संथाल जनजाति की पारंपरिक शासन प्रणाली द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में इस मुद्दे को उठाया था.

सोरेन ने कहा कि राज्य सरकार ने पहले ही सभी बाधाओं को दूर कर दिया है और केंद्र पर साजिश के तहत इसे लटकाए रखने का आरोप लगाया. उन्होंने प्रतिनिधियों से वादा किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वे सरना कोड को लागू करवाएंगे.

कई झामुमो नेताओं ने मांग को लंबित रखने के सोरेन की बात को दोहराया और कहा कि पार्टी के सांसद संसद में इस मुद्दे को उठाएंगे और भाजपा को अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए.

दूसरी ओर भाजपा है कि वो झामुमो और कांग्रेस पर केवल चुनावी लाभ और ईसाई वोट बैंक को लुभाने के लिए इस मुद्दे पर राजनीति करने का आरोप लगाती है.

क्या है सरना धर्म से जुड़ा राजनीतिक इतिहास

ब्रिटिश इंडिया के समय यानी 1871 में पहली बार जनगणना हुई थी, तब आदिवासियों के लिए अलग से धर्म कोड की व्यवस्था की गई थी. ये व्यवस्था 1941 तक लागू रही.

लेकिन आजादी के बाद 1951 में जब पहली जनगणना हुई तो आदिवासियों को शेड्यूल ट्राइब्स यानी अनुसूचित जनजाति कहा जाने लगा और जनगणना में ‘अन्य’ नाम से धर्म की कैटेगरी बना दी गई.

2011 के समय भी जब जनगणना की गई तो उस समय भी करीब 49 लाख से ज्यादा लोगों ने धर्म के कॉलम में अन्य नहीं ‘सरना’ भरा था. इन 49 लाख लोगों में से 42 लाख लोग झारखंड में रहते हैं.

1951 के बाद से ही सरना धर्म की ये मांग चली आ रही है.

झारखंड में लोकसभा चुनाव के नतीजे इस तरफ इशारा करते हैं कि राज्य में आदिवासी मतदाता के लिए उनकी पहचान और संविधान से मिले अधिकार प्राथमिकता रखते हैं.

इसलिए राज्य की सत्तारुढ़ पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा सरना धर्म कोड की मांग के मुद्दे को प्रमुखता से उठा रही है.

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