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ग्रेट निकोबार के शोम्पेन जनजाति क्यों ख़ास है ?

ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट के तहत 244 एकड़ भूमि का इस्तेमाल करेगी. इस 244 एकड़ भूमि में से 130 एकड़ वर्षावन है. इस प्रोजक्ट की वजह से जनजातियों के विकास और संरक्षण से जुड़े लोगों में चिंता है. उनका मानना है कि यह बदलाव सिर्फ ग्रेट निकोबार के शोम्पेन आदिवासियों को नहीं बल्कि अन्य आदिवासी समुदायों को भी प्रभावित करेगा.

लोकसभा चुनाव 2024 (Lok Sabha Election 2024) के पहले चरण में शोम्पेन जनजाति (Shompen tribe) काफी चर्चा में रही. आज़ादी के बाद पहली बार शोम्पेन आदिवासियों ने अपना मत दिया है.

देश में हो रहे आम चुनाव के पहले चरण मे कम मतदान भी चर्चा का एक बड़ा विषय बना हुआ है. मीडिया, सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के साथ साथ विशेषज्ञ कम मतदान के कारण और मतलब तलाश रहे हैं.

इस स्थिति में शोम्पेन जनजाति के लोगों का वोटिंग में हिस्सा लेना अन्य मतदाताओं के लिए प्रेरणा की कहानी हो सकती है.

उम्मीद है कि चुनाव आयोग मतदाता जागरुकता अभियान में इस कहानी का इस्तेमाल करेगा.

तो आइए समझते हैं कि ग्रेट निकोबार द्वीप के शोम्पेन आदिवासियों के बारे में क्या ख़ास बात है –  

शोम्पेन जनजाति अंडमान निकोबार (Tribes of Andaman and Nicobar islands) की उन जनजातियों में से एक है जो आज भी दुनिया से अलग थलग रहते हैं.  वे ग्रेट निकोबार द्वीप समूह के सुदूर दक्षिण में रहते हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी जनसंख्या 229 हैं. यह जनजाति विशेष रूप से कमज़ोर जनजाति (Particularly Vulnerable Tribal Groups) है.

पीवीटीजी (PVTG) में उन जनजातियों को शामिल किया जाता है. जिनकी जनसंख्या संकट में हो, आर्थिक स्थिति ठगमगाई हों.

पीवीटीजी समुदाय के संरक्षण के लिए सरकार विशेष योजनाएं बनाती है.

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के अन्य आदिवासियों की तरह शोम्पेन बाहरी दुनिया से संपर्क बनाने में दिलचस्पी नहीं दिखाते है.

यह कहा जाता है कि शोम्पेन आदिवासी 10,000 सालों से हिंद महासागर के पूर्वी भाग में रह रहें हैं. कुछ विशेषज्ञ तो यह भी कहते हैं कि शोम्पेन आदिवासी कम से कम 70,000 साल से इस द्वीप पर रह रहे हैं.

हिंद महासागर के पूर्वी भाग में ज्यादातर वर्षावन है.

वर्षावन उन वनों को कहा जाता है, जहां अच्छी मात्रा में वर्षा होती है. इन वनों में न्यूनतम सामान्य वार्षिक वर्षा 1750 से 2000 मि.मी. तक होती है.

शोम्पेन आदिवासी छोटे-छोटे समूहों में रहते हैं. इन छोटे-छोटे समूहों के लिए बॉर्डर के नाम पर वनों में नदियां मौजूद है.

यह आदिवासी जंगल के अलग-अलग हिस्सों में अस्थायी रूप से रहते हैं. कुछ हफ्ते या महीनें तक एक स्थान में खेती-बाड़ी कर फिर दूसरे स्थान में बसने चले जाते हैं.

शोम्पेन आदिवासी सादियों से जंगलों में रह रहे हैं. इसलिए जंगल में मिलने वाले प्रत्येक वन उपज़ से भली-भांति परिचित है.

मसलन यह आदिवासी वनों में मिलने पेड़ से मिलने वाली धूप से मछरों को मारने के लिए दवा बनाते हैंय

शोम्पेन आदिवासी अपने भोजन के लिए भी पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर है. इन आदिवासियों के लिए पोषण का मुख्य स्तोत्र जंगली जानवर जैसे सुअर, बंदर, छिपकली और मगरमच्छ है. यह आदिवासी पूरे साल शिकार करते हैं.

इसके अलावा यह आदिवासी नींबू, पान और मिर्ची की खेती भी करते हैं. इनके खेत बेहद छोटे होते है, क्योंकि यह खेती व्यवसाय इस्तेमाल के लिए नहीं, बल्कि निजी उपयोग के लिए करते हैं.

वैसे तो यह आदिवासी जंगलों से कई फल-फूल खाते है, लेकिन इनका मुख्य और पसंदीदा फल लाल नारंगी पाइनकोन है. इस फल को शोम्पेन आदिवासी ‘ लरोप ’ कहते हैं.

ग्रेट निकोबार द्वीप दिखने में जरूर छोटा है, लेकिन जैव विविधता से भरपूर्ण है. यहां 95 प्रतिशत वर्षावन है.

इसके अलावा 11 तरीके के मैमल्स, पक्षियों की 32 जनजातियां, रेपटाइलस के 7 जनजातियां और जलथलचर की 4 जनजातियां इन जंगलों में रहती हैं.

सरकारी रिपोर्ट के अनुसार शोम्पेन जनजाति के कुछ लोगों ने निकोबार के अन्य जनजाति और सरकार से संपर्क किया है.

यह संपर्क उन्होंने अलग अलग वस्तुओं को इकट्ठा करने के लिए किया है. लेकिन जैसे ही बाहरी दुनिया से संपर्क में रहने वाले आदिवासी अपनी बस्ती में वापस जाते हैं. उन्हें कुछ समय तक अपनी बस्ती से दूर एक अलग अस्थायी घर में रहना पड़ता है.

क्योंकि शोम्पेन आदिवासियों का मानना है कि बाहरी लोगों को कई बीमारियां है और इन बीमारियों का असर उन पर भी पड़ सकता है.

ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट एक बड़ा संकट

2022 में सरकार द्वारा ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट (Great Nicobar project) प्रस्तावित किया गया था. यह प्रोजेक्ट तीन चरणों में लागू होगा. इसके लागू होने की प्रक्रिया लगभग 30 सालों तक चलेगी.

सरकार आने वाले सालों में ग्रेट निकोबार का पूरा नक्शा बदलने वाली है. इस प्रोजक्ट की वजह से जनजातियों के विकास और संरक्षण से जुड़े लोगों में चिंता है. उनका मानना है कि यह बदलाव सिर्फ ग्रेट निकोबार के शोम्पेन आदिवासियों को नहीं बल्कि अन्य आदिवासी समुदायों को भी प्रभावित करेगा.

यह भी रिपोर्ट हुआ है कि इस प्रोजेक्ट को लागू करने से पहले यहां रहने वाले आदिवासियों से सहमति नहीं ली गई है. जाहिर है कि ये सिर्फ भारतीय कानूनों का नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय कानूनों का भी उल्लंघन है.

प्रशासन ग्रेट निकोबार में मेगा पोर्ट, अंतराष्ट्रीय एयरपोर्ट, पावर स्टेशन, डिफेंस बेस, इंडस्ट्रियल, टूरिज्म ज़ोन बनाने जा रही है.

जिसके लिए सरकार 244 एकड़ भूमि का इस्तेमाल करेगी. इस 244 एकड़ भूमि में से 130 एकड़ वर्षावन है.

इस प्रोजेक्ट के लिए द्वीप की एक तहाई भूमि इस्तेमाल होने वाली है, जिसमें से लगभग आधी ज़मीन आदिवासी आरक्षित है.

2011 की जनगणना के अनुसार ग्रेट निकोबार द्वीप की जनसंख्या 8000 है. इस प्रोजेक्ट के तहत सरकार द्वीप में 6,50,000 लोगों को बसाने का प्लान बना रही है.

अगर ये प्रोजेक्ट लागू होता है तो यह निकाबोर में मौजूद आदिवासी समुदाय सहित शोम्पेन के लिए घातक हो सकता है.

इस प्रोजेक्ट से जंगलों में उनकी पंरापरागत नदिया, प्रमुख पाइनकोन सब उजड़ जाएगा.

2024 में 39 अंतर्राष्ट्रीय नरसंहार विशेषज्ञ ने राष्ट्रपति को इस प्रोजेक्ट को रोकने के लिए पत्र लिखा. लेकिन ऐसा लगता है, सरकार इस प्रोजेक्ट को रोकने के बारे में विचार नहीं कर रही है.

क्योंकि प्रशासन ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को द्वीप के 8,00,000 पेड़ काटने की इज़ाजत दे दी है.

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