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अंग्रेज़ी बोलने वाली ललिता कॉफ़ी उगाती हैं, फिर ग़रीबी से दामन छुड़ाना क्यों मुश्किल है?

आंध्र प्रदेश में आरकु घाटी के एक छोटे से गाँव गोदींवलसा में हमारी मुलाक़ात ललिता से हुई. ललिता देसिया भाषा या फिर अंग्रेज़ी में बात करती हैं. आंध्र प्रदेश और ओड़िशा की सीमा पर बसे इस इलाक़े के आदिवासी जो भाषा बोलते हैं उसे यहाँ देसिया कहा जाता है.

देसिया तेलगू और उड़िया के मेल से बनी एक स्थानीय भाषा है. ये आदिवासी इस भाषा में आपस में बातचीत करते हैं. तेलगू और ओडिया इन्हें कुछ कुछ समझ में आती है. लेकिन ये दोनों ही भाषा ये आदिवासी बोल नहीं पाते हैं.

यह कोदू आदिवासियों का गाँव है जिन्हें आदिम जनजाति कहा जाता है.

ललिता के साथ हमें ट्राइबल किचन का एपिसोड शूट करना था. समस्या ये थी कि उन्हें हिन्दी नहीं आती है और हमें देसिया. लेकिन उन्होंने हमें अंग्रेज़ी में बताया कि वो थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी बोलती हैं.

ट्राइबल किचन में उन्होंने लाजवाब चिकन पकाया जो आप उपर लगे वीडियो में देख भी सकते हैं. जैसा हमेशा होता है चिकन पक रहा था और ललिता से उनके बारे में और उनके परिवार और गाँव के बारे में बातचीत भी होती रही थी.

ललिता ने बताया कि वो आंगनबाड़ी में काम करती हैं. उनके गाँव में मिनी आंगनबाड़ी है और उसके लिए एक मकान किराये पर लिया गया है. उन्होंने यह भी बताया कि आंगनबाड़ी से छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं को काफ़ी फ़ायदा होता है.

गाँव के बारे में बात करते हुए उन्होंने बताया कि यहाँ के ज़्यादातर परिवार कॉफ़ी की खेती करते हैं. इसके अलावा वो राजमा और कई तरह की दालें भी पैदा करते हैं. मूँगफली भी यहाँ बोई जाती है.

हम उनके आँगन में मुर्ग़ा पकाते हुए गाँव में कई मकानों की छत पर काफ़ी के बीज समेटते कई लोगों को देख सकते थे. मैंने ललिता से पूछा कि ये सभी फ़सलें तो नक़दी फ़सले हैं. इनके बाज़ार में दाम भी अच्छे मिलते हैं. लेकिन गाँव के मकानों और लोगों को देख कर तो लगता नहीं है कि वो खाते पीते लोग हैं.

ललिता ने इसका जवाब देते हुए बताया कि कॉफ़ी की खेती और दालें पैदा करने से गाँव के लोगों को कुछ आय तो ज़रूर होती है. लेकिन बस इतनी की किसी तरह से काम चल जाए. उसकी वजह है कि आदिवासियों के पास ज़मीन बहुत ज़्यादा नहीं है.

यहाँ का मौसम कॉफी और काली मिर्च के लिए अच्छा है. लेकिन उत्पादन बहुत ज़्यादा नहीं होता है. उत्पादन कम होने की वजह से काफ़ी की सीधी मार्केटिंग संभव नहीं है. वो एक ग़ैर सरकारी संस्था को कॉफी और काली मिर्च बेच देते हैं.

दाल और दूसरी फ़सलों के लिए भी यही होता है. खेती पूरी तरह से बारिश पर निर्भर करती है.

मैंने ललिता से पूछा कि आप तो अच्छी अंग्रेज़ी भी बोल रही हैं और लगता है कि आपने पढ़ाई लिखाई की है. कभी नौकरी की कोशिश नहीं की? वो हंसते हुए बोली थीं, मेरी सारी अंग्रेज़ी और पढ़ाई लिखाई ख़तों में निपट गई है.

इस इलाक़े में कॉफी के बड़े बड़े बाग़ान हैं और प्लांट हैं. आरकु कॉफी अब अंतरराष्ट्रीय ब्रांड है. मीडिया में कॉफ़ी से बदलती आदिवासियों की ज़िंदगी पर कई पॉज़िटिव स्टोरी छपती रहती हैं.

मैं भी ललिता की कहानी में कुछ पॉज़िटिव तलाश रहा था. ललिता से बातचीत हुए कुछ दिन बीत चुके थे. लेकिन कुछ पॉज़िटिव लिखने को मिल नहीं रहा था. क्योंकि जब हम इस गाँव में घूमे तो कुपोषण और ग़रीबी से चाहते हुए भी नज़र नहीं हट रही थी.

इस यात्रा में गिरिजन संघम (आदिवासी संगठन) के नेता सुरेन्द्र किल्लो से मुलाक़ात हुई. ललिता से हुई बातचीत से जो सवाल मेरे मन में तैयार हुए थे वो उनसे पूछ डाले. उन्होंने इन सवालों को एक सिंपल सा लेकिन शायद सही जवाब दिया.

उन्होंने कहा कि कॉफ़ी ने आदिवासियों को फ़ायदा पहुँचाया है इसमें तो कोई दो राय नहीं है. लेकिन बस इतना कि आदिवासी कॉफी बाग़ानों में खेत मज़दूरी का काम करता है. इससे उसे मज़दूरी मिलती है. लेकिन जीने भर के लिए.

काफ़ी के बिज़नेस से जो पैसा मिलता है वो आदिवासी के हाथ में थोड़ी पहुँचता है. वह पैसा यहाँ निवेश भी नहीं होता है. तो उनका कहना था कि आप इस कहानी में यह पॉज़िटिव देख सकते हैं कि आदिवासियों को यहाँ कॉफी बाग़ानों में कुछ दिन काम मिल जाता है.

लेकिन आदिवासियों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ी है. क्योंकि उसके पास कुल कॉफ़ी व्यापार का बेहद मामूली पैसा भी नहीं पहुँचता है. जो छोटे आदिवासी किसान कॉफ़ी उगाते हैं, बड़े बाग़ान मालिकों के सामने भला उनकी क्या बिसात है.

उन्होंने यह भी बताया कि इस इलाक़े में ग़ैर आदिवासी ज़मीन नहीं ख़रीद सकता है. फिर निजी कॉफ़ी बाग़ान और प्लांट कैसे लगे? उन्होंने कहा कि कभी इंवेस्टिगेटिंग स्टोरी करिएगा.

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