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काली बाई भील: जिसने अपने अध्यापक को बचाने के लिए जान दे दी

राजस्थान की रियासत डूंगरपुर के महारावल चाहते थे कि उनके राज्य में शिक्षा का प्रसार न हो. क्योंकि शिक्षित होकर व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाता है. ऐसे में उस समय कई शिक्षक अपनी जान पर खेलकर स्कूल चलाते थे.

राजस्थान के आदिवासी इलाकों में सरकारी आतंक के ख़िलाफ़ डूंगरपुर जिले के छोटे से गांव रास्तापाल की एक लड़की काली बाई भील की कहानी मशहूर है. वह अपने अध्यापक की रक्षा के लिए ब्रिटिश सैनिकों के सामने हिम्मत डट गई थी.

काली ने सिर्फ एक दरांती के सहारे अकेले ही सैनिकों का बहादुरी से सामना किया.

काली बाई भील ने अपने शिक्षक सेंगाभाई को दमनकारी शासन की क्रूरता से बचाते हुए अपनी जान गंवा दी थी. 20 जून 1947 को वो ब्रिटिश सैनिकों की गोलियों से शहीद हो गईं.

दरअसल, आजादी से कुछ महीने पहले ब्रिटिश सरकार और डूंगरपुर के महारावल लक्ष्मण सिंह के षडयंत्र और आदेश के तहत आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के स्तम्भ जबरन बंद कर दिए गए थे. उन्हें डर था कि पढ़े-लिखे आदिवासी बच्चे अपने अधिकारों की मांग करने लगेंगे और गुलाम नहीं रहेंगे.

वे उन्हें उनके गौरवशाली पूर्वजों के इतिहास से अनभिज्ञ रखना चाहते थे. जबकि सच तो यह है कि डूंगरपुर की स्थापना 13वीं शताब्दी में वीर योद्धा डूंगरिया भील ने की थी. प्राचीन अरावली पर्वतमाला और ढूंढाड़ के आसपास के क्षेत्रों पर कभी सिंधु घाटी सभ्यता के वंशज भीलों और मीनाओं का शासन था, जब तक कि राजपूतों ने धोखे से कब्जा नहीं कर लिया.

काली बाई भील डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गांव की थीं. उनकी माता नवली बाई और पिता सोमाभाई भील, अपने गांव के पास खेतों में काम करते थे. गोविंद गुरु के आदर्शों से प्रेरित होकर सोमाभाई भील ने सामाजिक बुराइयों को मिटाने और आदिवासी समुदाय में ज्ञान लाने के लिए काली बाई को स्कूल भेजना शुरू किया.

कालीबाई भील के जीवन पर यह वीडियो देखें

स्कूल के बाद काली बाई अपने माता-पिता के साथ घर के और खेती के कामों में मदद करती थीं.

आज़ादी से पहले देश भर में आदिवासियों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ सैकड़ों लड़ाइयां लड़ीं, उनके अधिकार को चुनौती दी और कठोर दमन सहा. इसी कारण आपराधिक जनजाति अधिनियम जैसे अधिनियमों ने उन्हें निशाना बनाया, जिससे क्रूरता और उत्पीड़न बढ़ गया.

17 नवंबर, 1913 को मानगढ़ पहाड़ी पर भील-मीणा आदिवासियों के नरसंहार में 1500 से अधिक आदिवासी मारे गए और कई अन्य घायल हुए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई.

डूंगरपुर के महारावल अपने राज्य में शिक्षा को रोकना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि शिक्षित लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाएंगे.

लेकिन इसके बावजूद कई शिक्षकों ने स्कूलों को खुला रखने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी. नानाभाई खांट और सेंगाभाई रोत ने महारावल के सैनिकों की चेतावनियों और हिंसक दमन के बावजूद रास्तापाल गांव में एक स्कूल चलाया.

17 जून, 1947 को एक पुलिस अधिकारी सैनिकों के साथ आया और स्कूल को बंद करने का आदेश दिया और नानाभाई और सेंगाभाई के मना करने पर उनकी बेरहमी से पिटाई की.

नानाभाई हिंसा का शिकार हो गए और सेंगाभाई को एक ट्रक से बांधकर घसीटा गया. इस बीच, 13 वर्षीय काली बाई दरांती लेकर पहुंची और सैनिकों से सवाल करने लगी. जब उसे पता चला कि शिक्षकों को स्कूल चलाने के लिए दंडित किया जा रहा है तो उसने निडरता से अधिकारी का सामना किया और कहा कि शिक्षा कोई अपराध नहीं है.

काली बाई के साहस से प्रेरित होकर ग्रामीणों ने विरोध करना शुरू कर दिया. गुस्से में आकर अधिकारी ने काली बाई को गोली मार दी, जिससे वह घायल हो गई. इसके बाद गुस्साए ग्रामीणों ने सैनिकों पर हमला कर दिया, जिससे उन्हें भागने पर मजबूर होना पड़ा.

सेंगाभाई को बचा लिया गया और उन्हें अस्पताल ले जाया गया. लेकिन काली बाई ने 20 जून, 1947 को अपने जख्मों के कारण दम तोड़ दिया और शिक्षा और आजादी के लिए शहीद हो गईं.

उनके बलिदान के बावजूद उनकी कहानी राजस्थान के शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है.

राजस्थान में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए काली बाई भील स्कूटी सरकारी योजना को छोड़ दें तो किताबों में कहीं भी काली बाई भील के बलिदान को स्कूली किताबों में नहीं पढ़ाया जाता. इससे सवाल उठता है कि उनके बलिदान का इतिहास क्यों भुला दिया गया है.

वरिष्ठ इतिहासकार डॉक्टर श्री कृष्ण जुगनू, जिन्होंने कई किताबें लिखी हैं. वो कहते हैं कि जब छात्र श्रीलंका में जातीय संघर्ष और वियना में विद्रोह के बारे में सीखते हैं जबकि काली बाई जैसे स्थानीय नायकों को नजरअंदाज कर दिया जाता है.

उन्होंने कहा कि नेशनल बुक ट्रस्ट और राजस्थान प्रौढ़ शिक्षा समिति ने उन पर पुस्तिकाएं प्रकाशित की हैं लेकिन वे पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं.

काली बाई और अन्य शहीदों के योगदान को मान्यता नहीं मिली है, भले ही उन्होंने राजस्थान में शिक्षा की मशाल जलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो.

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