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ओडिशा में बंगाली गावों का नाम बदलने से आदिवासी क्यों नाराज़ हैं ?

मलकानगिरी में बंगाली गांवों के नाम बदलने का मुद्दा सिर्फ एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है बल्कि यहाँ के आदिवासी और बंगाली समुदाय के बीच अधिकारों, पहचान और संरक्षण को लेकर एक बड़ा संघर्ष है.

ओडिशा के मलकानगिरी ज़िले में लगभग 220 बंगाली बस्तियों के गांवों के नाम बदलने और उन्हें राजस्व गांव का दर्जा देने के राज्य सरकार के फैसले पर आदिवासी संगठनों ने कड़ा विरोध जताया है.

इस विरोध के कारण ज़िला प्रशासन ने इन गांवों में चल रही ग्राम सभा और पाली सभा की बैठकों को अस्थायी रूप से रोक दिया है.

मलकानगिरी ज़िले के ये गांव 1950 के दशक में भारत सरकार की दंडकारण्य परियोजना के तहत बसाए गए थे.

इस योजना का उद्देश्य पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को सुरक्षित आवास देना था.

उस समय से लेकर अब तक इन गांवों को आधिकारिक रूप से राजस्व गांव का दर्जा नहीं मिला है.

इन गांवों को एमवी-1, एमपीवी-2 जैसे अल्फा न्यूमेरिकल कोड से जाना जाता रहा है.

हाल ही में राज्य सरकार ने इन गांवों को उनके पुराने नाम देकर राजस्व गांव की मान्यता देने का निर्णय लिया है. यानी अब इस प्रक्रिया में उन गांवों के नाम आधिकारिक दस्तावेज़ों में दर्ज होंगे और वहां के निवासियों को सरकारी योजनाओं और सुविधाओं का लाभ मिलेगा.

इसके लिए ज़िला प्रशासन ने ग्राम सभा और पाली सभा बुलाकर स्थानीय लोगों की सहमति लेने की प्रक्रिया शुरू की थी. लेकिन इस क्षेत्र के आदिवासी सरकार के इस फैसले के पक्ष में नहीं हैं.

आदिवासियों क्यों कर रहे हैं विरोध ?

मलकानगिरी का अधिकतर क्षेत्र आदिवासी बहुल है और यह क्षेत्र संवैधानिक तौर पर भारत की संरक्षित पांचवीं अनुसूची के तहत आता है.

पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासियों को अपनी भूमि, जंगल और संसाधनों पर विशेष अधिकार प्राप्त हैं. 

आदिवासी संगठनों का कहना है कि अगर बंगाली गांवों को राजस्व गांव का दर्जा मिल गया और उनके नाम बदल दिए गए तो इससे क्षेत्र का पांचवीं अनुसूची वाला दर्जा प्रभावित होगा.

उनका डर है कि इस बदलाव से उनकी जमीन और अधिकारों पर खतरा पैदा हो जाएगा.

यही वजह है कि वे ग्राम सभा और पाली सभा की बैठकों में बाधा डाल रहे हैं और सरकार के फैसले के विरोध में हैं.

प्रशासन का पक्ष

ज़िला कलेक्टर आशिष ईश्वर पाटिल ने कहा है कि गांवों के नाम बदलने और राजस्व गांव की मान्यता से पांचवीं अनुसूची के अधिकार प्रभावित नहीं होंगे.

वे कहते हैं कि यह एक गलतफहमी है जो आदिवासी समुदाय में बनी हुई है. कलेक्टर का कहना है कि प्रशासन इस मुद्दे को समझाने और विवाद को सुलझाने के लिए आदिवासी संगठनों से बातचीत कर रहा है.

बंगाली समुदाय की मांग

बंगाली समुदाय के नेता और पूर्व भाजपा ज़िला अध्यक्ष निमाई चरण पाल का कहना है कि पहले दंडकारण्य प्रोजेक्ट के समय भी ये गांव अपने असली नामों से जाने जाते थे लेकिन प्रशासन ने उन्हें केवल कोड से बुलाया है.

उनका मानना है कि आदिवासी बिना उचित कारणों के इस बदलाव का विरोध कर रहे हैं. इतना ही नहीं वे चाहते हैं कि सरकार बिना ग्राम सभा की अनुमति के इन गांवों के नाम बदल दे.

अब तक ग्राम सभा और पाली सभा की बैठकों में हुए विरोध-प्रदर्शन के बाद प्रशासन ने इन बैठकों को रोक दिया है.

सरकार का कहना है कि वे सभी पक्षों की बात सुनेंगे और इस संवेदनशील मुद्दे का समाधान निकालेंगे ताकि आदिवासियों के अधिकारों का संरक्षण हो और बंगाली समुदाय को भी न्याय मिले.

ज़िला प्रशासन और सरकार अब आदिवासी संगठनों से संवाद कर इस मामले को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं.

मलकानगिरी में बंगाली गांवों के नाम बदलने का मुद्दा सिर्फ एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है बल्कि यहाँ के आदिवासी और बंगाली समुदाय के बीच अधिकारों, पहचान और संरक्षण को लेकर एक बड़ा संघर्ष है.

अब यह एक बड़ा सामाजिक और राजनीतिक सवाल बन चुका है जिसमें अधिकार, पहचान और अस्तित्व की चिंता जुड़ी हुई है.

जहाँ एक ओर बंगाली समुदाय अपने मूल नाम और अधिकार की माँग कर रहा है वहीं दूसरी ओर आदिवासी समाज को यह डर सता रहा है कि उनके संवैधानिक अधिकार कमज़ोर न पड़ जाएं.

अगर ज़मीनी हकीकत की बात करें तो इन इलाकों में जो बंगाली शरणार्थी बसे हैं, वे शिक्षा, संसाधनों और सामाजिक स्थिति के मामले में आदिवासी समुदाय से कहीं आगे हैं. कई सरकारी सुविधाओं और योजनाओं का लाभ भी वे पहले से उठा रहे हैं.

ऐसे में इस क्षेत्र के आदिवासियों को यह आशंका है कि अगर इन गांवों को राजस्व दर्जा मिल गया तो उनका वजूद और अधिकार और पीछे छूट जाएंगे.

सरकार को इस मसले पर जल्दबाज़ी से नहीं बल्कि सोच-विचार करके और संतुलन के साथ निर्णय ले.

(Image is for representational purpose only.)

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