परिचय
त्रिपुरा राज्य की जनजातीय समूहों (Indigenous Groups) में रीआंग (Reang) एक बड़ा समुदाय है.
इस समुदाय को आमतौर पर ब्रू (Bru) भी कहा जाता है.
रियांग जनजाति अलग अलग जगहों से पलायन करके त्रिपुरा में आयी है. इस जनजाति के लोग लंबे समय से असम और मिज़ोरम रहते थे.
लेकिन मिज़ोरम में हिंसा की वजह से उन्हें विस्थापित होना पड़ा था.
त्रिपुरा में जनजातीय भाषा कोकबोरोक है, और रियांग समुदाय के लोग भी अब कोकबोरोक बोलते हैं. यह तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार से जुड़ी होती है.
ज़ाहिर है रियांग जो कोकबोरोक बोलते हैं उनका लहजा थोड़ा अलग होता है. इस भाषा को रीआंग लोग “काब्रू” कहते हैं.
भारत के संविधान में इनका नाम “रियांग”(Riang) लिखा गया है, लेकिन ये खुद को “रीआंग”(Reang) ही कहते हैं और ज़्यादातर लोग इन्हें “ब्रू” के नाम से भी जानते हैं.
एक ज़माने में ये लोग अर्ध घूमंतू (semi-nomadic) होते हैं और पहाड़ों पर खेती करते हैं, जिसे झूम खेती कहते हैं.
इसमें एक जगह कुछ साल खेती करने के बाद ये लोग दूसरी जगह चले जाते हैं.
लेकिन अब रियांग समुदाय के लगभग सभी समूह स्थाई बस्तियों में बस गए हैं. लेकिन जीविका के लिए अभी भी झूम खेती पर ही निर्भर करते हैं.
रीआंग लोग तीन बड़े कुलों में बंटे हुए हैं – मेस्का, मोलसॉय और उचोई.
इनके अलावा पूरे समुदाय में कुल 14 छोटे-छोटे गोत्र या “पंजी” होते हैं – जैसे मोलसॉय, तुइमुई, म्शा, तौमायक्चो, अपेटो, वैरेम, मेस्का, रैकचक, चोरखी, चोंगप्रेंग, नौखाम, याकस्टम, जोलाई और वारिंग.
1950 के संविधान आदेश के मुताबिक, मिज़ोरम में रीआंग जनजाति को कुकी जनजाति की एक शाखा माना गया है, और इन्हें मिज़ोरम की अनुसूचित जनजातियों में रखा गया है.
कुकी और मिज़ो लोग कुकी-चिन भाषा परिवार से हैं, लेकिन ब्रू लोग अलग भाषा परिवार यानी ऑस्ट्रोएशियाटिक या मों-खमेर भाषा समूह से आते हैं.
इसलिए त्रिपुरा में ब्रू को एक अलग जनजाति के रूप में मान्यता दी गई है.
1997 में मिज़ोरम में दंगों के कारण करीब 30,000 ब्रू लोग त्रिपुरा में आकर बस गए थे.
2018 में केंद्र सरकार ने इन लोगों को वोट डालने का अधिकार देने का फैसला किया, और चुनाव आयोग ने मिज़ोरम सरकार से कहा कि वह इन लोगों के नाम वोटर लिस्ट में फिर से शामिल करे.
इसके बाद केंद्र सरकार, त्रिपुरा सरकार और मिज़ोरम सरकार के बीच एक समझौता हुआ ताकि 32,876 ब्रू लोगों को मिज़ोरम वापस भेजा जा सके.
लेकिन 16 जनवरी 2020 को एक नया समझौता हुआ, जिसमें केंद्र सरकार, त्रिपुरा और मिज़ोरम सरकारों के साथ-साथ ब्रू समुदाय के नेता भी शामिल थे.
इस समझौते में तय हुआ कि लगभग 34,000 ब्रू लोगों को मिज़ोरम की बजाय त्रिपुरा में ही स्थायी रूप से बसाया जाएगा.
इतिहास में जनसंख्या से जुड़े आंकड़े
साल 1951 में त्रिपुरा में रीआंग जनजाति के 8,471 लोग थे.
इसके बाद 1961 मेंइनकी संख्या बढ़कर 56,597 हो गई.
फिर 1971 में, त्रिपुरा में 64,722 रीआंग थे और ये राज्य की अनुसूचित जनजातियों में दूसरे नंबर पर सबसे बड़ी जनजाति बन गए.
2001 की जनगणना के अनुसार, त्रिपुरा में 1,65,103 रीआंग लोग थे.
और 2011 में इनकी संख्या बढ़कर1,88,220 हो गई.
अब मिज़ोरम की बात करें तो वहाँ रीआंग लोगों की ठीक संख्या का कोई पक्का रिकॉर्ड नहीं है.
हालाँकि, एक रिसर्च रिपोर्ट “Insurgency in Mizoram: A study of its Origin, Growth and Dimensions (2008)” के अनुसार, 1997 में करीब41,000 ब्रू लोगों को मिज़ोरम से भागकर त्रिपुरा आना पड़ा था क्योंकि वहाँ हिंसा हो गई थी.
लेकिन 2008 में एक रिपोर्ट ‘Baptist Today’ में बताया गया कि मिज़ोरम के 80 गांवों में कुल58,269 ब्रू लोग रह रहे थे.
इन गांवों में 11,350 ब्रू परिवार शामिल थे.
इससे साफ़ होता है कि रीआंग जनजाति की आबादी समय के साथ तेज़ी से बढ़ी है, लेकिन मिज़ोरम में उन्हें काफी संघर्ष और विस्थापन का सामना करना पड़ा.
विवाह प्रणाली
रीआंग लोग आमतौर पर अपने समुदाय के भीतर शादी को प्राथमिकता देते हैं. लेकिन जनजाति के बाहर शादी करने पर भी कोई कड़ी रोक नहीं है.
आजकल ब्रू समुदाय में अन्य जातियों और जनजातियों के साथ भी शादियाँ हो रही हैं.
रीआंग की शादी की प्रणाली त्रिपुरा की दूसरी त्रिपुरी जनजातियों से मिलती जुलती है.
यहाँ दहेज की परंपरा नहीं है.
शादी के दो मुख्य तरीके होते हैं:
- मोईसेंग (Moiseng):
इसमें शादी के समय दुल्हन के परिवार को “ब्राइड प्राइस” यानी कन्या मूल्य दिया जाता है.
यह रीआंग समाज में मान्यता प्राप्त तरीका है. - चमरूई (Chamarui):
इसमें दूल्हा शादी से पहले लड़की के घर कुछ समय तक रहकर सेवा करता है.
यह एक तरह की परीक्षा जैसी शादी होती है, जिसमें देखा जाता है कि लड़का परिवार के योग्य है या नहीं.
करीबी रिश्तेदारों में शादी पहले आम थी, अब कम हो गई है. पर आज भी कई माता-पिता चाहते हैं कि अपने ही रिश्तेदारी में शादी करें.
बाल विवाह (child marriage) की अनुमति नहीं है.
विधवा विवाह (widow remarriage) की अनुमति है, लेकिन नियमों के साथ.
विधवा या विधुर को एक साल तक कोई गहना पहनने या मनोरंजन करने की इजाजत नहीं होती.
एक साल का शोक (mourning) पूरा होने के बाद ही दोबारा शादी हो सकती है.
शादी कैसे तय होती है:
शादी तय करने का काम एक मध्यस्थ (एंड्रा – Andra) करता है.
वह दुल्हन के माता-पिता से बातचीत करके “ब्राइड प्राइस” तय करता है.
जब दोनों परिवार मान जाते हैं, तो शादी ओचाई (Ochai) नाम के धार्मिक व्यक्ति द्वारा कराई जाती है.
शादी अक्सर आधी रात को होती है.
शादी का समारोह सादगी से लेकिन खुशी के साथ मनाया जाता है.
समारोह काउसुंगमो नाम की जगह पर होता है, जहाँ सूअर का मांस, मुर्गी, चावल और चावल की शराब परोसी जाती है.
रीआंग समाज में शादी का बंधन बहुत मजबूत माना जाता है. पति, पत्नी की मंज़ूरी के बिना तलाक नहीं ले सकता.
अगर कोई व्यक्ति विवाह के बाहर संबंध रखता है और साबित हो जाता है, तो उस पर सख्त सज़ा और भारी जुर्माना लगाया जाता है.
तलाक होना आम बात है और तलाक के बाद दोबारा शादी की इजाजत होती है.
लेकिन अगर किसी महिला का दो बार तलाक हो चुका हो, तो तीसरी शादी में उसे कोई ब्राइड प्राइस नहीं मिलता.
यदि पति की मृत्यु हो जाती है, तो पत्नी तब तक दोबारा शादी नहीं कर सकती जब तक पति की अस्थियाँ विधि द्वारा विसर्जित न की जाएं.
इसी तरह, विधुर भी पत्नी के अंतिम संस्कार की रस्में पूरी होने तक दोबारा शादी नहीं कर सकता.
पोशाक और आभूषण
रीआंग जनजाति की पारंपरिक पोशाक बाकी त्रिपुरी जनजातियों की तरह सरल और सादा होती है.
पुरुष सामान तौर पर हाथ से बुना हुआ एक लबां कपङा (लोईन क्लॉथ) पहनते हैं, और ऊपर के शरीर को ढकने के लिए एक कपड़े का टुकड़ा लपेटते हैं.
इसके साथ सिर पर भी एक बुना हुआ कपड़ा लपेटा जाता है, जिसे कमसोई में “कमसोई माइटांग” कहा जाता है.
महिलाएं कमर से घुटनों तक एक लंबा कपड़ा पहनती हैं जिसे “रिनई” कहते हैं.
इसके साथ वे छाती को ढकने के लिए “रिसा” पहनती हैं और पूरे ऊपर के शरीर को ढकने के लिए “रिकाटूह” का इस्तेमाल करती हैं.
ये कपड़े रीआंग महिलाएं खुद ही बुना करती हैं और ये बहुत रंगीन होते हैं.
हालांकि अब आधुनिकता के कारण कई ब्रू लोग खासकर शहरों में पारंपरिक कपड़े कम पहनते है.
रीआंग महिलाएं अपनी सजावट को बहुत पसंद करती हैं.
वे गहनों, फूलों और मेकअप का खूब इस्तेमाल करती हैं, जैसे दूसरी त्रिपुरी महिलाओं की तरह.
खासतौर पर चांदी के गहने उनके बीच बहुत लोकप्रिय हैं.
चांदी के सिक्कों का हार जिसे “रंगबौह” कहा जाता है, रीआंग महिलाओं की शान माना जाता है, और यह उनकी उच्च स्थिति को दर्शाता है.
इसके अलावा वे “संगाई डुनांग”, “नाबक”, “अंगकली”, “तार”, “ट्रो”, “चंद्रहा”, “बींगी” जैसे नाम के अन्य गहने भी पहनती हैं.
धार्मिक विश्वास और प्रथाएं
रीआंग जनजाति के लगभग 80% लोग वैष्णव हिंदू धर्म का पालन करते हैं.
यह बंगाली हिंदुओं से अलग है जो त्रिपुरा में ज्यादातर शक्ति पूजा करते हैं. बाकी 20% लोग ईसाई धर्म मानते हैं.
हिंदू परिवारों के घरों के सामने त्रिशूल का निशान होता है जिससे पता चलता है कि वे हिंदू हैं, लेकिन हिंदू और ईसाई परिवार मिल-जुलकर रहते हैं.
रीआंग लोग, जैसे अन्य त्रिपुरी लोग, अनेक देवताओं में विश्वास करते हैं. उनकी पूजा में त्रिपुरा के चौदह मुख्य देवता और देवियाँ शामिल हैं.
इनके महत्वपूर्ण त्योहार भी त्रिपुरा के बाकी लोगों के जैसे ही होते हैं, जैसे बुसी, केर, गोंगा मटाई, गोरिया, चित्रगुप्रा, सॉन्गरांगमा, होजागिरी, काटांगी पूजा, लम्परा उओठोह आदि.
यहाँ लक्ष्मी पूजा बहुत प्रसिद्ध है, जो कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है. धार्मिक आयोजन पूरे समुदाय के लिए होते हैं और हर परिवार को अपनी हिस्सेदारी या ‘खैन’ का भुगतान करना होता है.
सभी धार्मिक त्योहारों की योजना साल में एक बार मुखियाओं की बैठक में होती है, जहां राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर चर्चा कर निर्णय लिए जाते हैं.
रीआंग जनजाति के देवता अन्य त्रिपुरी लोगों के देवताओं से मिलते-जुलते हैं.
इनके प्रमुख देवता हैं:
- सिबराई (जो सर्वोच्च देवता हैं)
- तुईमा (नदी की देवी)
- माइनोउहमा (धान की देवी)
- खुलूहमा (कपास की देवी)
- गोरिया (धन, समृद्धि, सुख-शांति और युद्ध के देवता)
- कालैया (गोरिया के भाई)
- सांगरंगमा ( धरती माता)
- हाताइकचुमा (पहाड़ों की देवी)
- बुराहा (जंगल के देवता)
- तुन्हैरौ( मृत्यु के देवता)
- बोनिरौ (बुरी आत्माओं के देवता)
- नौहसुमा( घरों की देवी)
पूजा-अर्चना के तरीके मुख्य त्रिपुरी पूजा के समान होते हैं.
एक पुजारी जिसे “आओकचाई” कहते हैं, पूजा करता है और उसकी मदद एक सहायक करता है.
पूजा में हरे रंग की बांस की डंडी का उपयोग देवता के रूप में किया जाता है.
पूजा में मुर्गी, सूअर, बकरी, जैसे जानवरों की बलि दी जाती है.
पूजा का स्थान गाँव से कुछ दूर होता है.
देवताओं के नाम पर बलि चढ़ाई जाती है और हरे बांस की डंडी के सामने रखी जाती है.
लेकिन नौहसुमा की पूजा घर के अंदर ही होती है.
पूजा में दो मिट्टी के घड़े होते हैं जिनमें नया उगाया गया चावल भरा होता है और उनके ऊपर खास तरह के अंडाकार पत्थर रखे जाते हैं, जिन्हें “भाग्य के पत्थर” कहा जाता है.
ये घड़े जिन्हे रांगतौह के नाम से भी पुकारा जाता हैं, उसे चावल के आटे, सिंदूर और माला से सजाया जाता हैं. एक घड़े का नाम माइनोउहगमा और दूसरे का खुलूहगमा होता है.
विश्व प्रसिद्ध होजागिरी
रीआंग जनजाति के जीवन में नृत्य एक अहम हिस्सा है.
रीआंग समुदाय का प्रसिद्ध पारंपरिक नृत्य होज़ागिरी पूरी दुनिया में जाना जाता है. यह नृत्य सिर्फ रीआंग जनजाति की महिलाएं करती हैं.
होज़ागिरी नृत्य आमतौर पर लक्ष्मी पूजा के अवसर पर किया जाता है, जो दशहरे के तीसरे दिन के बाद पूर्णिमा की रात को मनाया जाता है.
इस दिन देवी मैलुमा (लक्ष्मी) की पूजा बहुत श्रद्धा से की जाती है.
इस नृत्य में चार से छह महिलाओं की एक टोली होती है जो मिलकर नृत्य करती हैं. रीआंग समुदाय के पुरुष पारंपरिक वाद्य यंत्र खाम (ढोल) और सुमुई (बांसुरी) बजाते हैं, और साथ ही पारंपरिक गीत भी गाते हैं.
महिलाएं भी कोरस (संगीत) में साथ देती हैं. होज़ागिरी नृत्य में कमर और शरीर के निचले हिस्से की हरकतें बहुत कोमल और नियंत्रित होती हैं.
यह नृत्य लगभग 30 मिनट तक चलता है, और इसमें झूम या हुक खेती के पूरे तरीके को दिखाया जाता है.
इसके लिए लंबी प्रैक्टिस की जरूरत होती है. यह नृत्य कुछ हद तक हुकनी नृत्य जैसा लगता है, लेकिन इसकी गति और शैली अलग होती है.
होज़ागिरी नृत्य त्रिपुरा राज्य में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है, और इसे कई अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक आयोजनों में भी प्रस्तुत किया गया है.
नैसिंगपारा होज़ागिरी समूह रीआंग समाज का सबसे लोकप्रिय नृत्य समूह माना जाता है. इस समूह की शुरुआत स्व. मणिराम रीआंग ने की थी, जो खुद एक बहुत अच्छे कलाकार थे.
इसी तरह, श्री सत्यराम रीआंग एक और प्रसिद्ध त्रिपुरी होज़ागिरी कलाकार थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन इस नृत्य को बढ़ावा देने और अगली पीढ़ी को सिखाने में लगा दिया.
उन्होंने एक विद्यालय भी खोला जहाँ बच्चों और युवाओं को होज़ागिरी नृत्य सिखाया जाता था.
भारत सरकार ने उनके इस योगदान के लिए उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया.