चेहरे पर फैली गहरी स्याही की लकीरें, गर्दन पर उकेरे गए अनोखे चिह्न और आंखों में ऐसी गहराई मानो इतिहास खुद इनमें झांक रहा हो.
कोन्याक मर्दों के चेहरों पर बने ये टैटू और क्यों इनको हैड हंटर कहा जाता है?
यह कोई कहानी नहीं हैं, ये खून से लिखे गया इतिहास है, बल्कि यह कहना चाहिए की यह जीता-जागता और बोलता इतिहास है…
इन टैटूज़ में वीरता, सम्मान और अभिमान की छाप है.
कोन्याक मर्द के बदन की गुदाई को देख कर आप उसके कुल, गांव और भाषा को समझ सकते हैं.
लेकिन इसके लिए आपको कोन्याक नागा आदिवासियों के इतिहास को ध्यान से देखना होगा.
किसी भी देश या समाज की परंपराएं समय के साथ बदलती हैं. इस प्रक्रिया से ही इतिहास बनता है.
नागालैंड के मोन ज़िले और म्यंमार में रहने वाले कोन्याक आदिवासियों में भी अब हेडहंटिंग भी अब इतिहास की प्रथा या चलन बंद हो चुका है.
लेकिन इन टैटूज़ के ज़रिये आज भी कोन्याक समुदाय की सांस्कृतिक विरासत को पढ़ा और समझा जा सकता है.
कोन्याक जनजाति और उनका इतिहास
कोन्याक जनजाति नागालैंड की 16 प्रमुख नागा जनजातियों में से एक है. इन सभी नागा जनजातियों में कोन्याक की जनसंख्या सबसे अधिक है.
ये जनजाति मुख्यत: नागालैंड के उत्तर-पूर्वी कोने में स्थित मोन ज़िले में रहती है.
असम और अरुणाचल प्रदेश के कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों जैसे तिराप और चांगलांग ज़िलों में भी ये जनजाति मौजूद है.
उनकी उत्पत्ति मंगोलॉइड नस्ल से मानी जाती है.
ये जनजाति सिर्फ टैटू और हेड हंटर की वजह से अलग नहीं हैं. इनका इतिहास भी कई दृष्टिकोणों से अनोखा है.
ब्रिटिश शासन से पहले, कोन्याक जनजाति एक एकीकृत समुदाय की तरह नहीं थी बल्कि ये अलग-अलग भौगोलिक समूहों में बंटी हुई थी.
भाषा, टैटू डिज़ाइनों और स्थानीय रीति-रिवाज़ों के आधार पर हर क्षेत्र या समूह की अपनी विशेष पहचान होती थी.
अंग्रेज़ों ने इन्हें एक समूह में समेटते हुए कोन्याक नाम दिया.
कोन्याक जनजाति की अपनी कोई लिखित लिपि नहीं है.
इसलिए इनकी संस्कृति और परंपराएं लोकगीतों, कहावतों और जनश्रुतियों के माध्यम से आगे बढ़ती रहीं.
ऐसा माना जाता है कि कोन्याक समुदाय के पूर्वजों ने पटकै पहाड़ियों को पार करते हुए वर्तमान नागालैंड के मोन ज़िले में बसावट की थी.
कोन्याक समाज पितृसत्तात्मक है और आमतौर पर घर की संपत्ति का उत्तराधिकार सबसे बड़े बेटे को मिलता है.
इनके सामाजिक ढांचे में ‘अंग’ (Angh) नामक मुखिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. ये मुखिया न केवल गांव का नेतृत्व करता है बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक निर्णयों में भी मार्गदर्शन करता है.
टैटू और हेड हंटिंग
कुछ नागा समुदायों में टैटू बनवाने की परंपरा सीधे सिर कलम करने (हेडहंटिंग) से जुड़ी हुई थी.
माना जाता था कि हर नागा जन्म से योद्धा होता है. लेकिन जब तक वह युद्ध में दुश्मन का सिर न काट ले, तब तक उसे असली योद्धा नहीं माना जाता था. टैटू उसकी जीत का प्रतीक बनते थे.
पहले के नागा समाज में दुश्मन का सिर काटना न केवल बहादुरी की पहचान था बल्कि यह माना जाता था कि इससे योद्धा और उसके गाँव में समृद्धि आती है.
जिस योद्धा ने सबसे ज़्यादा सिर काटे होते थे, उसे सबसे ज़्यादा टैटू मिलते थे. सबसे ज़्यादा सिर काटने वाले व्यक्ति को गाँव का सबसे बहादुर इंसान माना जाता था.
डिज़ाइन में छिपा संकेत
कोन्याक टैटू के डिज़ाइन भी साधारण नहीं होते थे. डायमंड और लोज़ेन (lozenge) जैसे पैटर्न्स सौंदर्यशास्त्र को ध्यान में रखकर बनाए जाते थे.
ये आकृतियां किसी व्यक्ति के कबीले की पहचान, वीरता और कुलीनता का संकेत भी देती थीं.
टैटू से यह भी जाना जा सकता था कि वह व्यक्ति कौन से ‘अंग’ के अधीन था, कितनी लड़ाइयों में भाग ले चुका है और समाज में उसका स्थान क्या है.
कोन्याक समाज में टैटू की विशेष सामाजिक श्रेणी भी थी. ऐसे पुरुष जिनके पूरे चेहरे पर टैटू होते थे, उन्हें थेंदु कहा जाता था.
जिन पुरुषों के टैटू केवल माथे और ठुड्डी पर होते थे, उन्हें थेंथोकी श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता था.
इन श्रेणियों का अंतर भी व्यक्ति की वीरता और सामुदायिक मान्यता के स्तर को दिखाता था.
कौन बनाता था ये टैटू ?
टैटू बनवाने की प्रक्रिया आसान नहीं थी. ये टैटू ‘अंग्याज’ नामक विशेष महिला कलाकारों द्वारा बनाए जाते थे.
‘अंग्याज’ कभी – कभी गाँव के मुखिया (अंग) की पत्नी होती थीं.
टैटू बनाने के लिए वे रतन की लकड़ी की नुकीली सुइयों का प्रयोग करती थीं.
रंग के लिए लकड़ी के कोयले या देवदार के पेड़ के पाउडर का इस्तेमाल किया जाता था.
ये प्रक्रिया काफ़ी दर्दनाक होती थी लेकिन जो व्यक्ति यह दर्द सहन करता था, उसे समाज में बहादुर और सम्मानित माना जाता था.
इस कला को माँ अपनी बेटियों को सिखाती थीं और ऐसे ही यह पीढ़ियों तक चलती रही.
आध्यात्म से भी जुड़ा है टैटू
कोन्याक समाज में ऐसा माना जाता था कि जब किसी की मृत्यु होती है और उसकी आत्मा अपने पूर्वजों के लोक (जगह) में जाती है, तो वहां मौजूद पूर्वज उसे उसके टैटू देखकर पहचानते हैं.
यानी टैटू सिर्फ बहादुरी या पहचान का निशान नहीं था. बल्कि मरने के बाद आत्मा की पहचान और उसकी आगे की यात्रा के लिए भी ज़रूरी माना जाता था.
आधुनिक समय में टैटू की स्थिति
ब्रिटिश शासन के दौरान 1935 में हेडहंटिंग पर पहली बार प्रतिबंध लगाया गया.
1960 में भारत सरकार ने इसे पूरी तरह अवैध घोषित कर दिया.
भारत सरकार द्वारा हेडहंटिंग पर प्रतिबंध लगाने के बाद यह प्रथा और उससे जुड़ा टैटू बनवाने का चलन धीरे-धीरे खत्म हो गया.
आज नागालैंड की कोन्याक जनजाति हेडहंटिग जैसी ख़तरनाक प्रथा को पूरी तरह से छोड़ चुकी है. लेकिन अभी भी अपने त्योहारों पर बड़ी शान से उन बुजर्गों का सम्मान करती है जो किसी ज़माने में हेडहंटर रहे थे.
इस पूरी कहानी का अगर यह उजला पक्ष है कि अब हेडहंटिंग और नागा गांवों के बीच दुशमनी ख़त्म हो चुकी है तो एक दुखद पक्ष ये है कि कोन्याक जनजाति के बीच अब पारंपरिक टैटू कला समाप्त हो चुकी है.
इस कला को समाज ने शायद इसलिए समाप्त होने दिया कि वह एक कुप्रथा से जुड़ी थी. लेकिन सामाजिक संगठनों या सरकारों को इस कला को बचाने का प्रयास करना चाहिए था.
इस कला को नए रुप में किसी उत्सव से जोड़ा जा सकता था. मसलन आज भी नागालैंड के मोन ज़िले के कई गांवों में नागा त्योहार बड़े स्तर पर मनाए जाते हैं.
इन आयोजनों में गांव के परंपारगत मोरांग (Morung) में लोग जमा होते हैं. यहां पर रखे गए लॉग ड्रम (Log Drum) को ज़ोर-शोर से बज़ाते हैं.
इन त्योहारों में नागा परिधानों में सज़े स्त्री-पुरुष अपने परंपरागत लोकगीत गाते हैं. इसके अलावा कई तरह के नृत्य और पारंपरिक खेलों का आयोजन भी होता है.
इन आयोजनों के ज़रिए कोन्याक समुदाय यह दिखाता है कि वह अपनी संस्कृति और परंपरा के अलावा अपने इतिहास पर गर्व करता है.
ज़ाहिर है इस तरह के उत्सवों के ज़रिए उनकी संस्कृति तो बचती ही है उनके समाज में एक संवाद और एकता भी कायम रहती है.
लेकिन इन उत्सवों से कोन्याक जनजाति की टैटू कला गायब है, कितना अच्छा होता अगर इन आयोजनों में टैटू कला भी शामिल होती.