तेलंगाना हाईकोर्ट ने चंचुपल्ली गाँव, कोठागुडेम मंडल की ज़मीनों से जुड़े एक अहम विवाद पर बड़ा आदेश सुनाया.
ये ज़मीनें अनुसूचित क्षेत्र (Scheduled Area) में आती हैं. सरकार ने 2016 में एक आदेश जारी किया था कि यहां की ज़मीने आदिवासी मालिकों को वापिस कर उनके नाम दर्ज की जाए.
कुछ लोगों ने सरकार के इस आदेश को चुनौती दी थी.
याचिकाएँ रवि चंद्रा बेज्जारम और अन्य लोगों ने दाखिल की थीं.
उनका कहना था कि उन्होंने 1969 में 2.23 एकड़ ज़मीन एक गैर-आदिवासी पट्टेदार से खरीदी थी और तब से लगातार खेती भी कर रहे हैं.
उन्होंने ज़मीन खरीदने का दस्तावेज़ (सेल डीड) भी अदालत के सामने रखा.
अदालत में क्या सामने आया?
न्यायमूर्ति नागेश भीमपाका ने इन याचिकाओं को खारिज कर दिया.
जाँच में पाया गया कि याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश किया गया कागज न तो पंजीकृत (registered) था और न ही सरकारी रिकॉर्ड से मेल खाता था.
अदालत ने यह भी माना कि यह कथित सौदा 1970 के बाद का है.
उस समय आंध्र प्रदेश अनुसूचित क्षेत्र भूमि अंतरण विनियमन (AP Scheduled Areas Land Transfer Regulation, 1970) लागू हो चुका था.
आंध्र प्रदेश अनुसूचित क्षेत्र भूमि अंतरण विनियमन, 1970 क्या कहता है?
यह क़ानून 1970 में बनाया गया था ताकि आदिवासी इलाक़ों की ज़मीनें गैर-आदिवासियों के हाथों में न चली जाएं. इस कानून के मुताबिक़ अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी से गैर-आदिवासी या गैर-आदिवासी से गैर-आदिवासी के बीच ज़मीन की ख़रीद-फरोख़्त, पट्टा या गिफ़्ट जैसी किसी भी तरह की ट्रांसफ़र पर रोक है.
अगर कोई ऐसा लेन-देन हो भी जाता है, तो उसे शुरुआत से ही अवैध और रद्द माना जाएगा.
सरकार या राजस्व अधिकारी ऐसी ज़मीन वापस लेकर असली आदिवासी मालिक या उनके वारिसों के नाम दर्ज कर सकते हैं.
इस क़ानून का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आदिवासी समुदाय अपनी पैतृक ज़मीन से वंचित न हो और बाहरी लोग उनकी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा न कर पाएं.
असली मालिक कौन निकले?
अदालत ने पाया कि जिस ज़मीन पर दावा किया गया, वह असल में भूक्या हरी सिंह नामक लांबाडी आदिवासी को सरकार ने दी थी.
सरकारी रिकार्ड और राजस्व विभाग के दस्तावेज़ों से यह साफ़ हुआ कि वही वैध पट्टेदार यानी असली मालिक हैं.
इस आधार पर अदालत ने माना कि याचिकाकर्ताओं का दावा गलत है.
अदालत ने क्या कहा?
न्यायमूर्ति ने स्पष्ट किया कि अनुसूचित क्षेत्रों में ज़मीनों की खरीद-फरोख्त पर लगे प्रतिबंध का मक़सद बहुत गहरा है.
इसका उद्देश्य आदिवासियों को शोषण से बचाना और उनकी पुश्तैनी ज़मीनों को सुरक्षित रखना है.
अदालत ने कहा कि अगर इस तरह के दावे मान लिए जाएँ तो आने वाली पीढ़ियों के अधिकारों पर ख़तरा पैदा हो जाएगा.