HomeAdivasi Dailyडिजिटल इंडिया की दौड़ में आदिवासी भारत अब भी पीछे

डिजिटल इंडिया की दौड़ में आदिवासी भारत अब भी पीछे

मोबाइल है पर नेटवर्क नहीं, खाता है पर फ्रीज़ है. डिजिटल इंडिया का सपना आदिवासी भारत में अधूरा क्यों?

भारत में डिजिटल भुगतान और बैंकिंग सेवाएं तेज़ी से बढ़ रही हैं. बैंकिंग तक पहुंच, यूपीआई लेनदेन और डिजिटलीकरण के ज़रिए भारत ने वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) में कई सफलताएं दर्ज की हैं.  

आरबीआई के अनुसार, मार्च 2025 तक भारत का वित्तीय समावेशन सूचकांक (FI – Index) 67.0 रहा. 2021 में जब वित्तीय समावेशन सूचकांक लांच किया गया था तब यह आंकडा 53.9 ही था. यानी 2021 से 2025 तक 24.3 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज की गई है.

लेकिन यह बढ़ोत्तरी यह नहीं दर्शाती कि आदिवासी इलाको में बैंक या लेन-देने की सुविधा समान स्तर पर पहुंच चुकी है.

देश के आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्र अभी भी इस क्रांति से वंचित ही हैं. सरकार खुद मान रही है कि इन इलाकों में वित्तीय समावेशन की राह अब भी कठिन है.

मुंबई में ग्लोबल फिनटेक फेस्ट 2025 के अवसर पर मीडिया से बात करते हुए केंद्रीय वित्तीय सचिव (Secretary of Central Finance Ministry) एम नागराजु ने कहा, “यूपीआई की वृद्धि अब भी काफी अच्छी रही है परंतु आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले सभी समुदाय को औपचारिक वित्तीय प्रणाली के दायरे में लाना हमारे सामने एक चुनौती है. कई जगहों पर, हमारे सामने इंटरनेट की चुनौती भी है. इसलिए ऑफलाइन लेनदेन और ग्रामीण लेनदेन हमारे लिए चुनौती हैं. “

उन्होंने आगे कहा कि कई फिनटेक कंपनियां अब ऐसे नवाचारों पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं जो इस डिजिटल विभाजन को पाट सकें.

सरकार का इस चुनौती को स्वीकार करना एक महत्तवपूर्ण कदम है. क्योंकि जब समस्या को मान लिया जाता है तभी उस पर समाधान की दिशा में ठोस कार्रवाई की योजना बनाई जा सकती है.

वित्तीय सचिव का बयान दर्शाता है कि केंद्र सरकार इस दिशा में गंभीरता से कार्य करने के लिए तत्पर है. उन्होंने इंटरनेट उपलब्ध न होने की समस्या का ज़िक्र तो किया लेकिन आदिवासी इलाकों में ज़मीनी स्तर पर और भी कई बाधाएं हैं.

समस्याएं और आंकडें

इंटरनेट और मोबाइल नेटवर्क की कमी के कारण डिजिटल लेन-देन और ऑनलाइन बैंकिंग सेवा में तो समस्या आती ही है. इसके अलावा दूरदराज के गांवों में बैंक शाखा या एटीएम तक पहुंच होना भी बड़ी चुनौती है.

साथ ही बैंकिंग ऐप और पोर्टल ज़्यादातर हिंदी या अंग्रेज़ी में होते हैं और आदिवासी भाषाओं में ऐसे ऐप उपलब्ध नहीं हैं, इस कारण भी कई लोग इनका उपयोग नहीं कर पाते.

कई आदिवासी लोग बैंकिंग से डरते हैं. दस्तावेज़ों की कमी, अनिश्चित आय और जटिल बैंकिंग प्रक्रियाओं के कारण वे बैंकिंग सेवाओं का उपयोग करने से बचते हैं.

आदिवासी इलाकों में जागरुकता की भी बेहद ज़रूरत है. जागरुकता की महत्ता को पिछले साल यानी अक्टूबर 2024 में सामने आए एक सर्वे से समझा जा सकता है. NREGA सहायता केंद्रों ने झारखंड के आदिवासी बहुल ज़िलों लेटहार और लोहरदगा में एक सर्वे किया था.

इस सर्वे में पता चला था कि 244 घरों में से लगभग 60% घरों का कम से कम एक बैंक खाता फ्रीज़ पाया गया था, जबकि कुछ घरों के सभी खाते ही फ्रीज़ थे. ये खाते केवायसी अपडेट न करवाने के कारण फ्रीज़ किए गए थे.

यदि इन आदिवासी परिवारों को केवायसी अपडेट के नियम के बारे में समय से बताया गया होता तो ये परिवार सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित नहीं होते.

इंडीजीनस नैविगेटर और महिला एवं लिंग अनुसंधान केंद्र ने झारखंड के 5 आदिवासी बहुल ज़िलों के 27 गांवों में सर्वे के बाद ‘इंडिजिनस नेविगेटर कम्युनिटी सर्वे रिपोर्ट-2023’ पेश की थी.

इस सर्वेक्षण में शामिल 46 प्रतिशत से ज़्यादा लोग गरीबी रेखा के वर्ग में शामिल थे.

जब सरकारी मदद जैसे पेंशन, छात्रवृत्ति या महिला सहायता बैंक खाते और डिजिटल तरीके से मिलती है और अगर उनके खाते फ्रीज़ हों या इंटरनेट या डिजिटल सुविधा उपलब्ध न हो तो इसका सीधा असर उनके रोज़मर्रा के जीवन और ज़रूरतों पर पड़ता है. मतलब पैसे मिलने में रुकावट उनके खाने-पीने, शिक्षा और अन्य जरूरी कामों में समस्या पैदा कर देती है.

राष्ट्रीय वित्तीय शिक्षा केंद्र (NCFE) द्वारा 2019 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में केवल 27% वयस्क वित्तीय रूप से साक्षर हैं.

अधिकांश भारतीयों को बुनियादी वित्तीय अवधारणाओं जैसे बजट बनाना, बचत करना, निवेश करना और ब्याज दरों की समझ में कठिनाई होती है. और यह आंकडा आदिवासी क्षेत्रों में तो और भी कम हो सकता है. इसलिए वित्तीय साक्षरता भी एक बड़ी समस्या है.

इसलिए वित्तीय समावेशन केवल तकनीकी उपलब्धियों तक सीमित नहीं है. यह स्थानीय समस्याओं, भरोसे और साक्षरता को ध्यान में रखकर ही प्रभावी बन सकता है.

जब तक आदिवासी इलाकों में इंटरनेट, बैंकिंग सुविधाएं और वित्तीय जागरूकता नहीं पहुंचती तब तक डिजिटल इंडिया का वादा आदिवासी भारत के लिए अधूरा ही है.

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