राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने हाल ही मे एक रिपोर्ट जारी की है जो एक बार फिर हमें यह याद दिलाती है कि देश में दलित और आदिवासी समुदायों के खिलाफ हिंसा आज भी बड़े पैमाने पर हो रही है.
रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2023 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ 57,789 मामले दर्ज किए गए, जो 2022 में दर्ज 57,582 मामलों की तुलना में 0.4% की मामूली वृद्धि दर्शाते हैं.
लेकिन सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा तब सामने आया अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ हिंसा के मामलों में चिंताजनक रूप से 28.8% की वृद्धि दर्ज की गई.
2022 में 10,064 मामलों के मुकाबले 2023 में यह आंकड़ा बढ़कर 12,960 तक पहुंच गया.
यह संख्या सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है, यह उन हजारों लोगों की पीड़ा और तकलीफ की गवाही है, जिन्हें हर दिन उनके जाति या समुदाय के नाम पर अपमान, हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
ये घटनाएं सिर्फ छोटे गांवों या दूरदराज के इलाकों तक सीमित नहीं हैं.
बल्कि देश के कई शहरों और कस्बों में भी दलित और आदिवासी लोगों को उनके नाम, पहचान या रहन-सहन के आधार पर तिरस्कार झेलना पड़ता है.
किराए पर मकान लेने में मुश्किल, स्कूलों में पढने वाले बच्चो से भेदभाव, अस्पतालों में नजरअंदाजी और नौकरियों में अनदेखी ये सभी चीजें आज भी आम बात है.
कई बार तो ऐसा होता है कि अच्छी पढ़ाई-लिखाई और हुनर होने के बावजूद भी दलितों को ज़बरदस्ती सफाई जैसे कामों में धकेल दिया जाता है. या फिर उन्हें सार्वजनिक जगहों से दूर रहने के लिए मजबूर किया जाता है.
दूसरी तरफ आदिवासी समुदायों को उनकी ही ज़मीन से बेदखल कर दिया जाता है, या फिर उन्हें ज़मीन के अधिकार ही नहीं दिए जाते.
आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी अगर कोई समुदाय खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है, तो ये सिर्फ उनके लिए नहीं, पूरे देश के लिए दुख की बात है.
संविधान में समानता की बात की गई है, लेकिन ज़मीनी हकीकत उससे अलग है.
दलित और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं, जैसे कि अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) अत्याचार निवारण अधिनियम (SC/ST PoA Act), लेकिन असली सवाल यही है कि इन कानूनों को कितनी ईमानदारी से लागू किया जाता है.
बहुत से मामलों में पुलिस एफआईआर दर्ज करने से भी कतराती है, और अगर कोई मामला दर्ज हो भी जाए, तो अदालत तक पहुंचते-पहुंचते सालों लग जाते हैं.
यह स्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब पीड़ित अगर आवाज उठाएं तो उन्हें ही चुप करा दिया जाता है.
कई बार उनके विरोध को देशविरोधी या धर्मविरोधी बताकर दबाने की कोशिश की जाती है. समाज में यह सोच अभी भी मौजूद है कि कुछ जातियां ऊपर हैं और बाकी नीचे.
यही सोच असल में जातीय हिंसा की जड़ है.
दुख की बात यह है कि सरकार ने इस दिशा में अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, जो लोगों की सोच को बदल सके.
स्कूलों, मीडिया, और समाज में ऐसा कोई मजबूत प्रयास नहीं दिखता जो यह समझा सके कि हर इंसान बराबर है, चाहे उसकी जाति या जन्म कुछ भी हो.
राजनीतिक दल अक्सर इन समुदायों को चुनाव के वक्त याद करते हैं.
कुछ जगहों पर नेताओं को आदिवासियों और दलितों के घर खाना खाते या मंदिरों में उनके साथ दिखने की तस्वीरें खिंचवाते देखा गया है,
लेकिन इन सभी चिजों को देखा जाए तो साफ पता चलता है की ये दिखावा है.
हमें ज़रूरत है ऐसी नीतियों की जो इन समुदायों की शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका और आत्मसम्मान से जुड़ी जरूरतों को पूरी गंभीरता से समझें और लागू करें.
अगर किसी बच्चे पर आज भी सिर्फ इस वजह से स्कूल में अत्याचार किया जा रहा है क्योंकि वह किसी नीची जाति से है, तो हमें सोचना होगा कि हमने समाज के तौर पर कहां गलती की है.
अगर एक गर्भवती महिला को इलाज नहीं मिल पा रहा सिर्फ इसलिए क्योंकि वह किसी आदिवासी गांव में रहती है, तो विकास की सारी बातें खोखली लगती हैं.