झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में स्थित सारंडा जंगल एक बार फिर चर्चा में है. सरकार इस घने जंगल को एक वन्यजीव अभयारण्य (Wildlife Sanctuary) बनाने की योजना पर काम कर रही है.
लेकिन इस फैसले के सामने अब जनजातीय समुदाय की दीवार खड़ी हो गई है.
स्थानीय आदिवासी लोगों ने इस प्रस्ताव का जमकर विरोध किया है और कहा है कि यह फैसला उनके जीवन, संस्कृति और अधिकारों को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचाएगा.
सारंडा जंगल झारखंड का सबसे बड़ा साल वन क्षेत्र है.
यह इलाका न केवल पर्यावरण के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है, बल्कि यहां आदिवासी समुदायों का जीवन भी जंगल पर पूरी तरह निर्भर है.
यह इलाका लंबे समय तक माओवादी गतिविधियों से भी प्रभावित रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में हालात सुधरे हैं और अब सरकार यहां विकास की कोशिशें कर रही है.
सारंडा जंगल में करीब 50 राजस्व गाँव और 10 से ज़्यादा जंगल गाँव हैं, जिनमें लगभग 75,000 लोग रहते हैं.
इनमें से अधिकतर लोग हो जनजाति से संबंध रखते हैं.
इनका रहन-सहन, पूजा-पाठ, खेती-बाड़ी, लकड़ी और पत्तों का उपयोग, सब कुछ इसी जंगल से जुड़ा हुआ है.
सरकार की योजना है कि सारंडा क्षेत्र को एक सरकारी अभयारण्य घोषित किया जाए, ताकि वहां वन्यजीवों की सुरक्षा बढ़ सके और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सके.
यह योजना सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद बनाई गई है, जिसमें कहा गया था कि जैव विविधता और वन्यजीव संरक्षण के लिए ऐसे क्षेत्रों की पहचान कर उन्हें संरक्षित किया जाए.
सारंडा के आदिवासी समुदायों का कहना है कि अगर इस जंगल को अभयारण्य घोषित कर दिया गया, तो उन्हें कई तरह की पाबंदियों का सामना करना पड़ेगा.
वे जंगल से लकड़ी, फल, पत्ते और जड़ी-बूटियां इकट्ठा करते हैं, जो उनकी आजीविका का साधन हैं. अभयारण्य बनने पर यह सब बंद हो जाएगा.
इस क्षेत्र में कई धार्मिक स्थल हैं जैसे सरना स्थल, देशौली, मसना, जहाँ वे पूजा करते हैं. अगर ये इलाके संरक्षित क्षेत्र घोषित हो गए, तो वहां जाना मुश्किल हो जाएगा.
खेती और मवेशी चराना भी प्रभावित होगा क्योंकि अभयारण्य में इन गतिविधियों पर रोक होती है.
इसके साथ ही आदिवासी समुदायों को यह डर भी सता रहा है कि सरकार उन्हें जंगल से बाहर निकाल सकती है, यानी वे विस्थापित हो सकते हैं.
सारंंडा क्षेत्र के सैकड़ों आदिवासी, महिलाएं और युवा गांधी मैदान, चाईबासा में इकट्ठा हुए और वहां से जुलूस निकालकर उपायुक्त कार्यालय पहुंचे.
वहाँ उन्होंने राज्यपाल के नाम ज्ञापन सौंपा और सरकार से योजना वापस लेने की मांग की. प्रदर्शनकारियों ने टाटा कॉलेज मोड़ के पास सड़क जाम भी किया और वहां धरना दिया.
इस दौरान उनके हाथों में बैनर-पोस्टर थे जिन पर लिखा था – “हमारे जंगल, हमारे अधिकार” और “सारंडा हमारा है”.
प्रदर्शन में बुधराम लागुरी जैसे कई स्थानीय नेता मौजूद थे. उन्होंने साफ कहा कि यह प्रस्ताव संविधान की 5वीं अनुसूची के खिलाफ है.
इस अनुसूची में जनजातीय क्षेत्रों को विशेष अधिकार दिए गए हैं. सरकार बिना ग्राम सभा की सहमति के कोई फैसला नहीं ले सकती.
सरकार की ओर से इस मुद्दे पर अब तक कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं आई है.
लेकिन यह साफ है कि यदि बिना जनजातीय सहमति के यह योजना लागू की गई, तो इसका भारी विरोध झेलना पड़ सकता है.
सारंडा जंगल केवल एक पेड़-पौधों का इलाका नहीं है. यह वहां रहने वाले लोगों की पहचान, भावनाओं और जीवन का हिस्सा है.
अब इस प्रस्ताव को केवल विचार तक सीमित न रखते हुए झारखंड सरकार की कैबिनेट ने इसे मंजूरी दे दी है.
सरकार ने 314.65 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को सरांडा वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी है और इसके चारों ओर 1 किलोमीटर क्षेत्र को ईको-सेंसिटिव जोन माना जाएगा.
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद लिया गया है, जिसमें अदालत ने राज्य सरकार से कहा था कि वह एक हफ्ते के भीतर यह अधिसूचना जारी करे.
सरकार ने अदालत में यह भी स्पष्ट किया है कि इस फैसले से स्टील कंपनियों की खनन गतिविधियों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा है कि इस कदम से आदिवासी लोगों को न विस्थापित किया जाएगा और न ही उनके पारंपरिक अधिकारों को छीना जाएगा.
उन्होंने दावा किया कि Forest Rights Act के तहत जो कानूनी सुरक्षा आदिवासियों को मिली हुई है, वह जारी रहेगी.
हालांकि, आदिवासी समुदाय सरकार के दावों से संतुष्ट नहीं है. उन्होंने 25 अक्टूबर को कोल्हान क्षेत्र में आर्थिक नाकाबंदी करने का ऐलान किया है.
उनका कहना है कि सरकार के दावे खोखले हैं और असल में जमीन पर इन नीतियों से उनके जीवन पर गंभीर असर पड़ेगा.