मुंबई के बीचों-बीच फैले संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान और आसपास के हरे-भरे इलाकों में कई पीढ़ियों से रहने वाले आदिवासी परिवार इन दिनों परेशान हैं.
कारण है सरकार द्वारा लाई गई एक नई योजना, जिसमें इन जंगलों को ‘इको सेंसिटिव ज़ोन’ यानी पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाना है.
इसके लिए एक लंबा चौड़ा ड्राफ्ट यानि मसौदा तैयार किया गया है, जिसमें बताया गया है कि इस पूरे इलाके को तीन हिस्सों में बांटा जाएगा.
इस योजना का उद्देश्य पर्यटन को बढ़ावा देना और जंगल की रक्षा करना बताया गया है. लेकिन इस योजना से वहां रहने वाले आदिवासी लोग काफी नाराज़ हैं.
उनका कहना है कि यह विकास नहीं, बल्कि उन्हें उनकी ज़मीन और जीवन से दूर करने की तैयारी है.
सरकार की ओर से जो ड्राफ्ट जारी किया गया है, वह पूरी तरह अंग्रेज़ी में है और 356 पन्नों का है.
आदिवासी परिवारों और उनके नेताओं का कहना है कि इतनी लंबी अंग्रेज़ी फाइल को वे न तो पढ़ सकते हैं और न ही समझ सकते हैं.
इसलिए वे सरकार से मांग कर रहे हैं कि यह ड्राफ्ट मराठी में जारी किया जाए ताकि वे जान सकें कि आखिर उनके इलाके में क्या बदलाव होने वाला है.
आदिवासी हक्क संवर्धन समिति के अध्यक्ष दिनेश हाबले ने साफ कहा है कि अगर सरकार ने मराठी में जानकारी नहीं दी और उन्हें जबरन हटाने की कोशिश की, तो वे बड़े आंदोलन की राह पर जाएंगे.
यह बात तब सामने आई जब मुंबई महानगरपालिका ने इको सेंसिटिव ज़ोन के लिए ड्राफ्ट ज़ोनल प्लान जारी किया.
इसमें लिखा गया है कि यह इलाका तीन ज़ोन में बंटेगा – एक हिस्सा ऐसा होगा जहां कोई नया निर्माण नहीं होगा, दूसरा जहां थोड़ी बहुत छूट दी जाएगी और तीसरा वह जो पूरी तरह संरक्षित रहेगा.
इस योजना में कहा गया है कि लगभग 34 प्रतिशत ज़मीन अब भी जंगल है और बाकी लगभग 66 प्रतिशत ज़मीन को “अविकसित” माना गया है.
यह खबर सामने आते ही जंगल में रहने वाले कई आदिवासी परिवार सामने आए और उन्होंने अपनी आपत्ति दर्ज कराई.
कुछ परिवारों ने कहा कि जब से ये योजनाएं आई हैं, तब से उन्हें डर सताने लगा है कि कहीं उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल न कर दिया जाए.
Aarey कॉलोनी और SGNP (संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान) में रहने वाले इन आदिवासी परिवारों ने कहा है कि वे पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं और उनके पास रहने का कानूनी अधिकार भी है, लेकिन इसके बावजूद उन्हें हटाने की कोशिशें हो रही हैं.
Aarey कॉलोनी मुंबई का एक बहुत ही खास, हरा-भरा और विवादों में घिरा इलाका है.
एक महिला, शमुबाई बाप, जो वर्षों से जंगल में रह रही हैं, बताती हैं कि कई बार वन विभाग के अधिकारी आकर उनकी गाय और बकरियां ज़ब्त कर लेते हैं.
उनके पास बिजली, पानी और शौचालय जैसी जरूरी चीजें नहीं हैं.
उन्होंने कहा कि पहले जब सरकार कहती थी, तो वे थोड़ा-बहुत हट जाते थे, लेकिन अब उनकी नई पीढ़ी का बच्चा पढ़ा-लिखा है, और वे अब जंगल नहीं छोड़ेंगे.
एक और महिला, प्रमिला भोइर, ने कहा कि वे किसी इमारत में जाकर नहीं रह सकतीं. उनका घर जंगल में है, जहां खुली हवा, पेड़-पौधे और प्रकृति है.
उन्होंने कहा कि वे Aarey कॉलोनी से भी पहले से वहां रह रही हैं. अब उन्हें क्यों हटाया जा रहा है? उन्होंने चेतावनी दी कि अगर जबरदस्ती की गई, तो वे आंदोलन करेंगी.
Yeoor गांव के रमेश वालवी ने बताया कि उन्होंने वन अधिकार अधिनियम के तहत अपने रहने के हक के लिए आवेदन कर रखा है, लेकिन आज तक सरकार ने उन पर कोई फैसला नहीं लिया.
उल्टा, हर कुछ महीनों में कोई न कोई नई योजना लाकर उन्हें परेशान किया जाता है.
उन्होंने यह भी बताया कि जब वे BMC (Brihanmumbai Municipal Corporation) में अपनी आपत्तियां लेकर जाते हैं, तो अधिकारी उन्हें आवेदन स्वीकारने से भी मना कर देते हैं.
इन इलाकों में रहने वाले आदिवासी अपने घरों, ज़मीन और पहचान को लेकर बेहद चिंतित हैं.
वे न तो इस योजना की भाषा समझ पा रहे हैं, न ही उनके पास यह जानने का कोई साधन है कि सरकार उनके साथ क्या करने जा रही है.
उनकी सबसे बड़ी मांग यही है कि उन्हें जानकारी उनकी भाषा में मिले, ताकि वे भी अपने भविष्य के बारे में फैसला ले सकें.