HomeAdivasi Dailyआदिवासी छात्र की मौत ने फिर उठाए छात्रावासों की हालत पर सवाल  

आदिवासी छात्र की मौत ने फिर उठाए छात्रावासों की हालत पर सवाल  

आदिवासी छात्र की दुखद मृत्यु ने भारत के कई छात्रावासों की खराब स्थिति पर एक बार फिर से ध्यान केंद्रित किया है, खासकर आदिवासी छात्रों के लिए बने छात्रावासों पर. यह समस्या पिछले कुछ सालों में कई बार सामने आई है, जिसमें छात्रों को गंदगी, सुविधाओं की कमी और कुप्रबंधन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है.

आंध्र प्रदेश के पारवतीपुरम ज़िले में एक और आदिवासी छात्र की मौत ने फिर से आदिवासी छात्रावासों की हालत पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.

12 साल का छात्र चिन्नारी दशहरे की छुट्टियों में अपने घर गया था और वहां मलेरिया के इलाज के बाद वापस लौटा था.

लेकिन लौटने के कुछ ही दिन बाद उसकी तबीयत फिर से बिगड़ने लगी.

 पहले उसे पास के अस्पताल में ले जाया गया, लेकिन जब हालत ज्यादा खराब हो गई, तो उसे विशाखापट्टनम के किंग जॉर्ज अस्पताल में भर्ती किया गया.

वहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई.

डॉक्टरों ने बताया कि चिन्नारी के शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था.

उसकी किडनी खराब हो चुकी थी, फेफड़ों में पानी भर गया था और मल्टी ऑर्गन फेलियर की वजह से उसकी जान नहीं बचाई जा सकी.

यह कोई पहली घटना नहीं है.

पिछले कुछ हफ्तों में इसी जिले में आदिवासी हॉस्टल से चार बच्चों की मौत हो चुकी है.

यह सभी घटनाएं यह दिखाती हैं कि आदिवासी छात्रों के लिए बनाए गए आवासीय विद्यालय और छात्रावास बुनियादी सुविधाओं के मामले में बेहद कमजोर हैं.

पृष्ठभूमि में जाएं तो, सितंबर 2023 में भी इसी जिले के एक सरकारी आदिवासी छात्रावास में दो छात्र अचानक बीमार पड़े थे.

एक छात्र की अस्पताल पहुंचने से पहले ही मौत हो गई थी, जबकि दूसरे को गंभीर हालत में विजयनगरम भेजा गया था.

बाद में जांच में पता चला कि उन्हें खाने में दी गई दाल से फूड पॉइज़निंग हुई थी.

इसी तरह 2021 में भी मण्यं क्षेत्र के एक आदिवासी स्कूल में छात्र को डेंगू बुखार हुआ था, लेकिन समय पर इलाज न मिलने से उसकी मौत हो गई थी.

इन सभी घटनाओं में एक बात समाने आई है—बीमारी की शुरुआत मामूली लगती है, लेकिन सही समय पर इलाज नहीं मिल पाने के कारण बच्चे की जान चली जाती है.

बच्चों के माता-पिता और गांव वाले प्रशासन पर लापरवाही का आरोप लगा रहे हैं.

उनका कहना है कि जब बच्चे बीमार होते हैं, तो हॉस्टल में उनकी हालत को गंभीरता से नहीं लिया जाता. इलाज में देरी होती है, और जब हालत बिगड़ती है तब जाकर अस्पताल भेजा जाता है.

छात्रों की भी शिकायत है कि उनकी स्वास्थ्य संबंधी बातों को अनसुना कर दिया जाता है.

हॉस्टल में कोई नर्स नहीं है, कोई नियमित मेडिकल चेकअप नहीं होता.

कई बार खाने की गुणवत्ता भी बेहद खराब होती है. इन हालातों में बच्चे डरे हुए हैं, और उनके परिवार वाले भी.

सरकारी अधिकारियों का कहना है कि चिन्नारी को इलाज के लिए समय पर भेजा गया, लेकिन गांव वालों का कहना है कि अगर शुरुआत में ही ठीक इलाज होता, तो उसकी जान बचाई जा सकती थी.

इस घटना के बाद कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी राज्य सरकार से मांग की है कि आदिवासी छात्रावासों में स्वास्थ्य व्यवस्था को प्राथमिकता दी जाए.

खासकर दूरदराज और पहाड़ी क्षेत्रों में जहां अस्पताल या डॉक्टर आसानी से उपलब्ध नहीं हैं, वहां के हॉस्टलों में कम से कम एक नर्स और प्राथमिक चिकित्सा की सुविधा जरूर होनी चाहिए.

यह दुखद सच्चाई है कि परवतीपुरम मण्यं ज़िले में आदिवासी छात्र की मौत कोई अलग-थलग घटना नहीं है.

देशभर में आदिवासी इलाकों में बने छात्रावासों और आवासीय विद्यालयों में ऐसी घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं, जो बच्चों के स्वास्थ्य, सुरक्षा और जीवन को लेकर गंभीर लापरवाही को उजागर करती हैं.

ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी आदिवासी छात्रों की मौत के मामले सामने आ चुके हैं.

कभी दूषित खाना, कभी बुखार का इलाज न मिलना, तो कभी समय पर अस्पताल न पहुंच पाना. हर बार कारण भले अलग हो, लेकिन नतीजा एक ही होता है.

एक और मासूम बच्चा हमसे हमेशा के लिए दूर चला जाता है.

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