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असम में चुनाव आया तो आदिवासी को ज़मीन और पहचान का सपना दिखाया

बीजेपी ने 10 साल में असम के चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी समुदायों से ज़मीन और पहचान के सिलसिले में किए हर वादे को तोड़ा है.

असम सरकार ने 25 नवंबर को Assam Fixation of Ceiling on Land Holdings (Amendment) Bill, 2025 विधानसभा में पेश किया है. 

असम सरकार इस विधेयक के ज़रिए राज्य के करीब 3.33 लाख चाय मज़दूर परिवारों को ज़मीन का पट्टा देने का इरादा है. लेकिन  इंडियन प्लांटर्स एसोसिएशन की कंसल्टेटिव कमेटी (CCPA) ने राज्य सरकार की इस पहल पर कई गंभीर आपत्तियाँ प्रकट की हैं. 

इसके साथ ही इस संगठन ने चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासियों को ज़मीन का पट्टा देने के लिए ज़मीन अधिग्रहण के लिए कुछ और शर्तें रखी हैं.

क्या हैं प्लांटर्स की मुख्य आपत्तियाँ

CCPA के अनुसार, चाय बागानों में जो लेबर लाइन्स (मज़दूर कॉलोनियाँ) मौजूद हैं, वे Plantation Labour Act 1951 के तहत ‘‘स्टैच्यूटरी फैसिलिटी’’ यानी वैधानिक सुविधाएँ हैं. इसलिए इन्हें किसी भी प्रकार से ट्रांसफरेबल लैंड ओनरशिप में बदला नहीं जा सकता।

चाय बागान कंपनियों का कहना है कि राज्य सरकार पहले ही चाय बागानों की बड़ी भूमि Ceiling Act 1956 के तहत अधिग्रहित कर चुकी है . उनका कहना है कि बागानों को केवल वही भूमि वापस की गई थी, जो ‘‘टी व एंसिलरी’’ यानी चाय उत्पादन व उससे जुड़ी आवश्यकताओं के लिए अनिवार्य थीं.

इसलिए अगर चाय बागानों से और जमीन ली गई तो इससे चाय उद्योग की दीर्घकालीन आर्थिक स्थिरता प्रभावित होगी.

चाय बागान कंपनियों ने यह भी कहा कि यदि किसी भी बागान की भूमि अधिग्रहित की भी जाती है, तो मुआवजा Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition Act, 2013 यानि भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013 के तहत ही दिया जाए.

चाय बागान मालिकों का यह भी कहना है कि यदि मज़दूरों को भूमि का पट्टा दिया जाता है, तो बागान प्रबंधन को उन जिन्हें वे वर्तमान में वैधानिक रूप से उपलब्ध करवाते हैं. 

चाय बागानों में अभी भी औसत नकद मजदूरी 250 रुपए प्रति दिन ही है. क्योंकि चाय बागान के मालिक यह दावा करते हैं कि बागानों की तरफ से मज़दूरों को पानी, बिजली और अन्य मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं.

बीजेपी का चुनावी स्टंट

असम के चाय बागानों में लाखों आदिवासी मज़दूर काम करते हैं. इनमें से ज़्यादातर मज़दूरों को ज़मीन का पट्टा अभी तक नहीं मिला है. इस वजह से जिन घरों में वे पीढ़ियों से रह रहे हैं उनका मालिकाना हक़ उनके पास नहीं है.  


असम के चाय बागान मज़दूर—जिन्हें स्थानीय रूप से “टी ट्राइब्स” या “चाय जनजाति” कहा जाता है—पारंपरिक रूप से कांग्रेस का वोट बैंक माने जाते थे. लेकिन 2016 से वे भाजपा के लिए निर्णायक समूह बनकर उभरे हैं.

बीजेपी ने इन आदिवासी मज़दूरों को ज़मीन का पट्टा, अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करना के अलावा उनकी दैनिक मज़दूरी बढ़ाने का वादा भी किया था.

लेकिन इन सभी वादों में से बीजेपी ने एक भी वादा पूरा नहीं किया है. 

असम में विधान सभा चुनाव का माहौल बन चुका है, यहां पर मार्च – अप्रैल तक चुनाव होंगे. इसलिए बीजेपी ने एक बार फिर आदिवासी समुदायों को यह दिखाने की कोशिश की है कि वह उनके अधिकारों के लिए काम कर रही है.

जबकि पिछले 10 साल में उसने आदिवासियों से किया एक भी वादा पूरा नहीं किया है. 

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