गुजरात के आदिवासी इलाके छोटा उदयपुर की एक गर्भवती आदिवासी महिला ने अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया.
सड़क न होने के कारण परिजनों ने कपड़े का झूला बनाकर (अस्थायी स्ट्रेचर) पांच किलोमीटर तक गर्भवती महिला को कंधे पर ढोया. रास्ते में तबीयत और बिगड़ती गई और आखिरकार महिला की मौत हो गई.
ये घटना सोमवार को तुर्खेड़ा गाँव के खैदी फालिया की है.
35 वर्षीय आदिवासी महिला को दोपहर चार बजे तेज़ प्रसव पीड़ा शुरू हुई. लेकिन गांव तक कोई पक्की सड़क नहीं है.
इस कारण परिजन उसे कपड़े में डालकर, कंधे पर उठाकर कच्चे रास्तों से पांच किलोमीटर तक पैदल ले गए.
इतनी मशक्कत के बाद मुख्य सड़क तक पहुंचने के बाद एंबुलेंस पहुंची.
पहले परिजन महिला को क्वांट लेकर गए. बाद में छोटा उदयपुर अस्पताल ले जाते वक्त रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई. बेटी की जान बचा ली गई लेकिन मां ने दम तोड़ दिया.
महिला की यह पांचवीं डिलीवरी थी. इससे पहले वह 4 बेटियों को जन्म दे चुकी है.
ये पहली बार नहीं है. लगभग एक साल पहले, 1 अक्टूबर 2024 को भी बास्कारिया फालिया की एक महिला, कविता भील को भी इसी तरह अस्पताल ले जाया जा रहा था और उसकी भी रास्ते में ही मौत हो गई थी.
उस समय गुजरात हाईकोर्ट ने खुद संज्ञान लिया और तुर्खेड़ा की चार फलियों के लिए सड़क बनाने की मंजूरी दी थी. लेकिन आज तक खैडी और तेतरकुंडी फालिया को सड़क नहीं मिली.
तुर्खेड़ा गांव को लोग “चोटाउदेपुर का ऊटी” कहते हैं क्योंकि यह सुंदर पहाड़ियों के बीच बसा है.
यह जगह गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है. लेकिन आज़ादी के 78 साल बाद भी इस गांव को जोड़ने वाली सड़कें नहीं हैं.
बीमारी या आपात स्थिति में लोग मजबूर होकर मरीज को कपड़े या बांस की झूली में रखकर कंधे पर उठाते हैं और कई किलोमीटर तक चलते हैं.
पिछले एक साल में ऐसे कई मामले सामने आए हैं.
अक्टूबर 2024 से जुलाई 2025 तक मनुकला, खेड़ा, दुकता, जरखली, भुंडमारिया और पदवानी गांव की औरतों को भी प्रसव पीड़ा के समय कई किलोमीटर पैदल अस्पताल ले जाया गया.
कुछ महिलाएं बीच रास्ते में ही बच्चे को जन्म देने को मजबूर हुईं तो कुछ ने घर पर ही बिना इलाज के प्रसव किया.
एक मां को तो बच्चे के जन्म के बाद नवजात को गोद में लेकर पैदल घर लौटना पड़ा था.
बार-बार होने वाली ये घटनाएं साफ दिखाती हैं कि छोटा उदयपुर के अंदरूनी हिस्सों तक विकास की रोशनी अभी भी नहीं पहुंची है.
हाईकोर्ट के आदेश और सरकार के वादों के बावजूद गांव वाले आज भी उन्हीं कठिन हालात में जीवन जीने को मजबूर हैं.