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छत्तीसगढ़: बोधघाट बहुउद्देशीय परियोजना को लेकर बस्तर में आदिवासी कर रहे व्यापक विरोध प्रदर्शन

मुख्यमंत्री विष्णु देव साय का कहना है कि इन परियोजनाओं के क्रियान्वयन से बस्तर के विकास को दोगुनी रफ्तार मिलेगी और यह क्षेत्र आत्मनिर्भर और समृद्ध बनेगा.

छत्तीसगढ़ के बस्तर में तनाव बढ़ रहा है क्योंकि प्रस्तावित बोधघाट बहुउद्देशीय परियोजना को स्थानीय आदिवासी और ग्रामीण समुदायों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है. बड़े पैमाने पर विस्थापन, पर्यावरण विनाश और सांस्कृतिक क्षरण की चिंताओं ने इस व्यापक विरोध को जन्म दिया है.

इस परियोजना से 50 हज़ार से ज़्यादा लोगों के विस्थापित होने की आशंका है, जिससे 57 गाँवों पर सीधा असर पड़ने की आशंका है. स्थानीय लोगों, मुख्य रूप से आदिवासी समुदायों ने कड़ा रुख अपनाया है और कहा है कि वे अपनी पुश्तैनी ज़मीन का एक इंच भी नहीं छोड़ेंगे.

इस परियोजना के खिलाफ़ करीब 30 गाँवों के लोग, जो कभी चुप रहते थे अब मुखर विरोध में एकजुट हो गए हैं.

स्थानीय प्रदर्शनकारियों में से एक ने कहा, “हम कहां जाएंगे?  इससे 18 पंचायतों के कई गाँव वाले प्रभावित होंगे. हमारी संस्कृति और धर्म, सब कुछ तबाह हो जाएगा और हममें से कोई भी अपना घर छोड़कर नहीं जाना चाहता. गाँवों को तबाह करके विकास नहीं होता. उनके पास पहले से ही पर्याप्त बिजली है, फिर इसकी क्या ज़रूरत है? जब स्थानीय लोग परेशान हों, तो उसे विकास नहीं कहा जा सकता.”

क्या है पूरा मामला?

यह मामला तब अचानक गरमा गया जब छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्षों से लंबित बोधघाट बहुउद्देशीय परियोजना को पुनर्जीवित करने की घोषणा की. जिसमें बस्तर में 3.5 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई के लिए 49,000 करोड़ रुपये का निवेश किया जाएगा.

यह परियोजना दंतेवाड़ा जिले में इंद्रावती नदी पर बनाई जाएगी. जिसका उद्देश्य दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा जिलों के ग्रामीण इलाकों में स्थायी सिंचाई और बिजली उत्पादन उपलब्ध कराना है.

राज्य सरकार के मुताबिक इस परियोजना का लक्ष्य 5 हज़ार मेगावाट बिजली पैदा करना है. साथ ही सिंचाई, मछली पालन और पेयजल आपूर्ति को बढ़ावा देने का वादा किया गया है.

लेकिन अनुमान है कि 13,783 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि और निजी कृषि भूमि जलमग्न हो जाएगी, जिसमें साल, सागौन और महुआ जैसे समृद्ध जैव विविधता वाले पेड़ शामिल हैं.

ऐसे में दंतेवाड़ा और बीजापुर जिलों के हितलकुडम और आस-पास के इलाकों में हज़ारों ग्रामीण बड़ी संख्या में विरोध प्रदर्शन करने के लिए इकट्ठा हुए हैं. उनका तर्क है कि उनकी ज़मीन और जीवन शैली को नष्ट करना अस्वीकार्य है.

आदिवासियों का कहना है कि हम अपनी जान दे देंगे, लेकिन अपनी ज़मीन नहीं देंगे.

यह पहली बार नहीं है कि आदिवासी समुदाय अपनी संप्रभुता और संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं.

आदिवासियों का कहना है कि हम अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए इकट्ठा हुए हैं, सरकार से परियोजना पर पुनर्विचार करने का आग्रह कर रहे हैं.

राजनीतिक हलचल भी तेज़

इस बीच, बस्तर से आने वाले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज ने प्रभावित समुदायों के साथ एकजुटता दिखाई है और हर परिस्थिति में समर्थन का वादा किया है.

बैज ने कहा, “कांग्रेस आदिवासी लोगों के साथ है, अगर वे परियोजना चाहते हैं तो ठीक है. लेकिन जब वे नहीं चाहते हैं, तो कोई रास्ता नहीं है. उनके विस्थापन के लिए सरकार की क्या योजना है, यह बोधघाट परियोजना की दिशा में कोई भी कदम उठाने से पहले स्पष्ट किया जाना चाहिए.”

जैसे-जैसे राजनीतिक हलचल बढ़ती जा रही है, राज्य सरकार की स्थिति अस्पष्ट बनी हुई है. हालांकि, राज्य और केंद्र सरकार दोनों ही बोधघाट परियोजना को क्षेत्र के लिए बहुउद्देशीय समाधान के तौर पर आगे बढ़ा रही हैं.

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और बस्तर के निवासी किरण सिंह देव का मानना है कि सरकार इस लंबे समय से चले आ रहे बस्तर के विकास कार्यक्रम को आगे बढ़ाने को लेकर गंभीर है.

इस परियोजना को लेकर बड़े-बड़े वादे किए गए हैं लेकिन बढ़ते जन-विरोध, विस्थापन और पर्यावरणीय क्षति से जुड़े अनसुलझे सवालों के चलते, यह साफ नहीं है कि विरोध के बढ़ते दबाव के बीच परियोजना कितनी आगे बढ़ेगी.

फिलहाल, बोधघाट जलविद्युत परियोजना का भविष्य अधर में लटका हुआ है.

मुख्यमंत्री ने कहा – बस्तर के विकास को दोगुनी रफ्तार मिलेगी

माओवादी विद्रोह से लंबे समय से प्रभावित बस्तर क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में पिछड़ा हुआ है, खासकर सिंचाई सुविधाओं के मामले में. इस कमी को दूर करते हुए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने कहा कि राज्य सरकार क्षेत्र के व्यापक विकास को समर्थन देने के लिए बोधघाट बहुउद्देशीय बांध परियोजना और इंद्रावती-महानदी लिंक परियोजना सहित बड़े पैमाने पर इंफ्रास्ट्रक्चर की पहल कर रही है.

मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने हाल ही में (9 जून, 2025) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात कर बस्तर क्षेत्र की बहुप्रतीक्षित बहुउद्देशीय बोधघाट बांध परियोजना और इंद्रावती-महानदी इंटरलिंकिंग परियोजना पर विस्तार से चर्चा की.

इस दौरान उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार अब बस्तर संभाग के चहुमुखी विकास के लिए बहुउद्देशीय बोधघाट बांध परियोजना और इंद्रावती-महानदी लिंक परियोजना पर प्राथमिकता से काम कर रही है.

मुख्यमंत्री ने कहा कि इन परियोजनाओं के जरिए बस्तर क्षेत्र के दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा और कांकेर जिलों के 269 गांवों को सिंचाई सुविधा का सीधा लाभ मिलेगा.

साथ ही, बोधघाट परियोजना से 125 मेगावाट विद्युत उत्पादन, 4,824 टन वार्षिक मत्स्य उत्पादन और 49 मिलियन घनमीटर पेयजल उपलब्धता भी सुनिश्चित होगी. दोनों परियोजनाओं से लगभग 7 लाख हेक्टेयर भूमि में सिंचाई का विस्तार होगा.

उन्होंने कहा कि इन परियोजनाओं के क्रियान्वयन से बस्तर के विकास को दोगुनी रफ्तार मिलेगी और यह क्षेत्र आत्मनिर्भर और समृद्ध बनेगा.

उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से परियोजनाओं को शीघ्र स्वीकृति देने का आग्रह किया, जिससे बस्तर के विकास में एक नई सुबह का आरंभ हो सके.

माओवादी उन्मूलन के 31 मार्च, 2026 के लक्ष्य को प्राप्त करने के बाद ये परियोजनाएँ आकार लेंगी.

वहीं सरकारी अधिकारियों का कहना है कि यह परियोजना बस्तर के आर्थिक विकास और क्षेत्र के लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में अहम भूमिका निभाएगी.

गोदावरी की एक प्रमुख सहायक नदी इंद्रावती पर प्रस्तावित बोधघाट बांध, राज्यो के बीच जल विवाद और सुरक्षा संबंधी समस्याओं के कारण 45 साल से ज़्यादा समय से अधर में लटका हुआ है.

बोधघाट परियोजना का इतिहास

सबसे पहले 1950 में इंद्रावती नदी पर बोधघाट जल विद्युत परियोजना की कल्पना की गई थी.

जगदलपुर से करीब 100 किमी दूर इंद्रावती नदी पर पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने 1979 में पावर प्रोजेक्ट की आधारशिला रखी थी.

गीदम से करीब 20 किमी अंदर बारसूर में बोगदा पहाड़ के पास यह बांध बनना है. नदी के दोनों तरफ के दो पहाड़ों को जोड़कर 855 मीटर लंबा और 90 मीटर ऊंचा बांध बनाया जाना है.

साल 1979 में विज्ञान और तकनीकी विभाग से इस परियोजना के लिए पर्यावरण के लिए मंजूरी मिली.

फिर 1983 में भारत सरकार ने विश्व बैंक से आर्थिक मदद के लिए प्रस्ताव भेजा. 1984 में वाशिंगटन में विश्व बैंक और भारत सरकार के बीच आधिकारिक चर्चा हुई.

1985 में विश्व बैंक ने 300.4 मिलियन डॉलर (करीब 360 करोड़) सहायता की मंजूरी दी.

लेकिन 1986 में तत्कालीन केंद्रीय वन सचिव टीएन शेषन ने पर्यावरण के संबंध में आपत्तियां उठाईं. जिसके बाद 1988 में विश्व बैंक ने पर्यावरण संबंधी अड़ंगे के कारण वित्तीय सहायता स्थगित कर दी और काम बंद कर दिया गया.

इसके बाद एक बार फिर साल 2004 में इस परियोजना पर काम शुरू हुआ, लेकिन इस क्षेत्र में नक्सलियों का प्रभाव होने के कारण काम आगे नहीं बढ़ सका.

साल 2014 में बेंगलुरु की कंपनी ने काम शुरू किया, लेकिन स्थानीय विरोध के चलते वह भी भाग गई. अब एक बार फिर इस परियोजना को शुरू करने की योजना है.

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