मध्य प्रदेश के कई आदिवासी इलाकों में इन दिनों चिंता का माहौल है. इस चिंता की वजह है वन अधिकार कानून के तहत किए गए दावों को खारिज करना.
अब यह मुद्दा विधानसभा तक पहुंच चुका है. मानसून सत्र के दौरान विपक्ष ने इस विषय को ज़ोर-शोर से उठाया. इसके बाद इस मुद्दे पर विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच जमकर बहस भी हुई.
विपक्ष के नेता उमंग सिंघार ने एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के जरिए आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों के मुद्दे को उठाया.
सिंघार ने कहा कि वन क्षेत्रों में पीढ़ियों से रह रहे आदिवासी परिवारों के दावे बड़े पैमाने पर खारिज किए जा रहे हैं. उन्हें अपने ही पुश्तैनी इलाकों से हटाया जा रहा है.
उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार “कानूनी प्रक्रिया” के नाम पर आदिवासियों की जमीनें निजी कंपनियों या निजी हितों को देने की तैयारी कर रही है.
आंकड़ों के माध्यसृम से विपक्ष हमलावर
सिंघार ने विधानसभा में आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि प्रदेश में अब तक 3.22 लाख वनाधिकार दावे खारिज किए जा चुके हैं.
उनका कहना था कि यह आदिवासी समुदाय के साथ “खुला अन्याय” है. उनके अनुसार सरकार को अपनी नीति में बदलाव करना चाहिए.
उन्होंने यह भी बताया कि बुरहानपुर ज़िले की नेपानगर विधानसभा क्षेत्र के 40 गांवों के 3,000 से ज्यादा दावे खारिज हुए हैं.
वन विभाग की कार्यशैली पर सवाल
सिंघार ने वन विभाग के पेड़ लगाने के दावों पर भी सवाल खड़े किए.
उन्होंने कहा, “सरकार कहती है कि पिछले 10 साल में 41 करोड़ पौधे लगाए गए, जो राज्य की आबादी से भी ज्यादा हैं. लेकिन ये पेड़ कहां हैं? नर्मदा किनारे लाखों पौधे लगाए जाने का दावा हुआ, लेकिन एक भी पेड़ जीवित नहीं बचा.”
सिंघार ने इस पूरे अभियान को सार्वजनिक धन की बर्बादी बताया.
सरकार का पलटवार
वहीं मुख्यमंत्री मोहन यादव ने विपक्ष के आरोपों को खारिज किया.
उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार के समय ग्रामीण इलाकों में एक भी पट्टा (भूमि अधिकार पत्र) जारी नहीं हुआ.
उन्होंने दावा किया कि भाजपा सरकार ने अब तक 26,500 से ज्यादा पट्टे बांटे हैं.
मुख्यमंत्री ने यह भी निर्देश दिए कि बरसात के दौरान किसी भी आदिवासी का घर न तोड़ा जाए.
वन विभाग के राज्य मंत्री दिलीप अहिरवार ने भी कहा कि सभी नियमों और प्रक्रियाओं को ध्यान में रखकर ही दावों को अस्वीकार किया गया है.
उनका कहना है कि सब कुछ प्रक्रियाओं के मुताबिक ही हुआ है.
2006 का वन अधिकार अधिनियम आदिवासी समुदायों को उनकी उस भूमि पर कानूनी अधिकार देता है, जिस पर वे लंबे समय से रह रहे हैं या खेती कर रहे हैं.
अब इन दावों के बड़े पैमाने पर खारिज होने से हजारों परिवारों के सिर से छत और आजीविका का सहारा छिन सकता है.
यही कारण है कि यह मामला राज्य की राजनीति में टकराव का बड़ा कारण बन गया है.