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आंध्र प्रदेश में जनगणना में देरी से जनजातीय कल्याण प्रभावित – एक्सपर्ट

शिक्षा का अधिकार अधिनियम दूरदराज के इलाकों में रहने वाले आदिवासी बच्चों के लिए विशेष प्रावधानों का प्रावधान करता है. लेकिन अपडेटेड आंकड़ों के अभाव में स्कूल के इंफ्रास्ट्रक्चर, छात्रावासों और परिवहन सुविधाओं की योजना बनाना मुश्किल हो जाता है.

भारत में जनगणना एक ऐसी प्रक्रिया है जो देश की सामाजिक, आर्थिक और जनसांख्यिकीय संरचना को समझने का आधार प्रदान करती है. यह हर दस साल में आयोजित की जाती रही है, जिसकी शुरुआत 1872 में ब्रिटिश शासनकाल में हुई थी.

हालांकि नियमित और वैज्ञानिक रूप से पहली जनगणना 1881 में शुरू हुई. आज़ादी के बाद से यानि 1951 से लेकर 2011 तक यह प्रक्रिया निर्बाध रूप से चलती रही.

लेकिन 2021 में प्रस्तावित जनगणना, जो हर मायने में बेहद महत्त्वपूर्ण थी, अभी तक शुरू नहीं हो सकी है. यह देरी आजादी के बाद पहली बार हुई है और इसके पीछे कई कारणों के साथ-साथ इसके प्रभाव भी व्यापक हैं.

जनगणना का महत्त्व केवल आंकड़े जुटाने तक सीमित नहीं है. यह नीति-निर्माण, संसाधन आवंटन, सामाजिक न्याय और आर्थिक नियोजन के लिए आधार तैयार करती है.

आदिवासी विकास हो रहा प्रभावित

ऐसे में आंकड़ों का अभाव आंध्र प्रदेश में जनजातीय विकास के लिए एक बाधा बन गया है.

आंध्र विश्वविद्यालय के कृषि-आर्थिक अनुसंधान केंद्र के चेट्टी प्रवीण कुमार ने कहा, “अल्लूरी सीताराम राजू और पार्वतीपुरम मान्यम जैसे नवगठित जिलों में बड़ी संख्या में आदिवासी आबादी रहती है इसलिए जनगणना में देरी के कारण कल्याणकारी योजनाओं की योजना बनाना और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करना मुश्किल होता जा रहा है.”

2011 की जनगणना के मुताबिक, पहले के संयुक्त आंध्र प्रदेश की जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) की हिस्सेदारी लगभग 5.3 फीसदी थी. लेकिन तब से राज्य के विभाजन सहित कई प्रशासनिक परिवर्तनों ने जनसांख्यिकीय स्वरूप को बदल दिया है, खासकर आदिवासी बहुल क्षेत्रों में.

प्रवीण ने बताया, “अपडेटेड जनगणना आंकड़ों की कमी का मतलब है कि स्थानीय योजना अभी भी दशकों पुराने आंकड़ों पर निर्भर है, जिससे कल्याणकारी कार्यक्रमों की सटीकता और पहुंच सीमित हो जाती है.”

जनजातीय उप-योजना (TSP) के तहत धन का आवंटन मुख्य रूप से अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या पर निर्भर करता है.

जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों के अनुपात के आधार पर यह रणनीति शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, आवास और वन अधिकारों से संबंधित योजनाओं के लिए वित्तीय नियोजन निर्धारित करती है.

चेट्टी प्रवीण ने कहा, “जनसंख्या के हालिया आंकड़ों के बिना, धन आवंटन अनुमानों पर आधारित होता है, जिससे जमीनी स्तर पर सेवाओं की गुणवत्ता और लक्ष्यीकरण प्रभावित होता है.”

उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश के आदिवासी समुदाय, जिनमें विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूह (PVTGs) भी शामिल हैं, वो विभिन्न अधिकारों के लिए सटीक जनसंख्या मैपिंग पर निर्भर हैं.

आदिवासियों की स्वास्थ्य सेवा प्रभावित

प्रवीण ने कहा, “विशाखापत्तनम एजेंसी जैसे इलाकों में कई बस्तियों को अभी भी आधिकारिक मान्यता नहीं मिली है क्योंकि वहां के निवासियों के बारे में अपडेटेड आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. इससे छात्रावास, स्कूल, स्वास्थ्य सेवा केंद्र जैसी ज़रूरी सेवाएं और वन अधिकार अधिनियम (2006) के तहत मिलने वाले अधिकार प्रभावित होते हैं.”

उन्होंने आगे कहा कि इस देरी का असर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा योजना पर भी पड़ता है.

उदाहरण के लिए, शिक्षा का अधिकार अधिनियम (Right to Education Act) दूरदराज के इलाकों में रहने वाले आदिवासी बच्चों के लिए विशेष प्रावधानों का प्रावधान करता है. लेकिन अपडेटेड आंकड़ों के अभाव में स्कूल के इंफ्रास्ट्रक्चर, छात्रावासों और परिवहन सुविधाओं की योजना बनाना मुश्किल हो जाता है.

इसी तरह टीकाकरण अभियान या सिकल सेल एनीमिया की जांच जैसी आउटरीच गतिविधियों के लिए विश्वसनीय जनसंख्या अनुमानों की जरूरत होती है.

प्रवीण ने कहा कि अगर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) जैसे सैंपल सर्वे कुछ जानकारी प्रदान करते हैं लेकिन वे पूर्ण जनगणना का स्थान नहीं ले सकते.

उन्होंने कहा, “एनएफएचएस के आंकड़ों में अक्सर छोटे आदिवासी समूहों या कम आबादी वाले क्षेत्रों को शामिल नहीं किया जाता, जो आंध्र प्रदेश में आम हैं. नतीजतन योजनाकारों और नीति निर्माताओं को स्थान-विशिष्ट और समुदाय-संवेदनशील हस्तक्षेपों को डिज़ाइन करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.”

उन्होंने कहा, “जनगणना कानूनी मान्यता दिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. कई आदिवासी समुदाय आधिकारिक समावेशन या आवास मान्यता का इंतज़ार कर रहे हैं, जो जनगणना पर निर्भर करता है. इसके बिना ज़मीन, मुआवज़ा और सरकारी सहायता के दावे अधूरे रह जाते हैं.”

ऐसे में चेट्टी प्रवीण ने जनगणना प्रक्रिया को फिर से शुरू करने और स्थानीय रजिस्टरों, ग्राम-स्तरीय सर्वेक्षणों और अनुसंधान सहयोगों के माध्यम से वैकल्पिक डेटा स्रोतों को मज़बूत करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर दिया.

उन्होंने आगे कहा, “समय पर और सटीक डेटा यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि आंध्र प्रदेश में आदिवासी समुदायों को पहचान मिले, उनका प्रतिनिधित्व हो और लक्षित विकास प्रयासों के माध्यम से उन्हें समर्थन मिले.”

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