मध्य प्रदेश सरकार ने एक अहम फैसला लिया है, जिससे मालवा और नीमर इलाके के हजारों आदिवासी परिवारों को राहत मिलेगी.
सरकार अब इन क्षेत्रों के 33,000 से ज्यादा आदिवासी घरों को बिजली कनेक्शन देने जा रही है.
इस योजना के लिए राज्य सरकार ने 179 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत की है.
इसका मकसद यह है कि जो गांव और बस्तियाँ अब तक अंधेरे में डूबी हुई थीं, वहां भी अब रोशनी पहुंचे और लोग एक बेहतर जीवन की ओर बढ़ें.
यह पूरी योजना प्रधानमंत्री जनजातीय उन्नत ग्राम अभियान यानी पीएम-जुगा के अंतर्गत शुरू की जा रही है.
इस अभियान के तहत सरकार उन गांवों को प्राथमिकता दे रही है जहां अब तक बिजली, पानी, सड़क या स्वास्थ्य सेवाएं नहीं पहुंची हैं.
कई ऐसे गांव हैं जहां केवल 5 से 7 घर हैं और ये दूर-दराज के जंगलों, पहाड़ियों या नदी किनारे बसे हुए हैं.
इन जगहों तक बिजली पहुंचाना एक बड़ी चुनौती रहा है, लेकिन अब सरकार ने तय किया है कि इन गांवों को भी मुख्यधारा से जोड़ा जाएगा.
बिजली देने की जिम्मेदारी मध्य प्रदेश पश्चिम क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी को दी गई है.
कंपनी इन गांवों का सर्वे कर रही है ताकि सही तरीके से यह पता चल सके कि किन घरों को कनेक्शन की जरूरत है.
जहां बिजली लाइनें नहीं हैं, वहां नई लाइनें बिछाई जाएंगी और ट्रांसफॉर्मर लगाए जाएंगे.
इसके अलावा घरों में मीटर भी लगाए जाएंगे ताकि सभी को नियमित और सुरक्षित बिजली मिल सके.
इस योजना से आदिवासी समुदायों की ज़िंदगी में बड़ा बदलाव आ सकता है.
बच्चों को अब अंधेरे में पढ़ाई नहीं करनी पड़ेगी, महिलाएं सुरक्षित महसूस करेंगी और लोग छोटे स्तर पर कारोबार शुरू कर पाएंगे.
बिजली से शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के नए रास्ते खुलेंगे.
क्या 179 करोङ काफी हैं इस परियोजना के लिए ?
सरकार ने मालवा-नीमर के 33,000 आदिवासी घरों को बिजली से जोड़ने के लिए ₹179 करोड़ की योजना घोषित की है.
यह सुनने में बड़ा कदम लगता है, असल में, यह योजना सरकार की आदिवासी इलाकों के प्रति पुरानी उपेक्षा और कागज़ी विकास की एक और मिसाल बनती जा रही है.
सरकार की ओर से बार-बार यह दावा किया जाता है कि आदिवासियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए बड़े पैमाने पर काम हो रहा है.
लेकिन सच्चाई यह है कि कई बस्तियों तक आज तक सड़क तक नहीं पहुंची, और अब बिजली पहुंचाने का दावा किया जा रहा है — वह भी सिर्फ ₹179 करोड़ में.
व्यवहारिक रूप से देखें तो ₹179 करोड़ के बजट में प्रति घर लगभग ₹54,000 खर्च आता है.
जबकि दुर्गम आदिवासी क्षेत्रों में बिजली पहुंचाने की वास्तविक लागत ₹60,000 से ₹70,000 तक होती है, इसलिए यह राशि साफ़ तौर पर नाकाफी है।
कई बस्तियाँ पहाड़ी, जंगल और नदी पार के क्षेत्रों में बसी हैं जहाँ बिजली लाइनें बिछाना, पोल गाड़ना और ट्रांसफार्मर लगाना आसान काम नहीं है.
ऐसे में ₹179 करोड़ में 33,000 घरों को रोशनी देना व्यवहारिक रूप से नामुमकिन है.
सरकार ने ये भी स्पष्ट नहीं किया है कि क्या इस राशि में वितरण तंत्र, मानव संसाधन, मेंटेनेंस और निगरानी का खर्च भी शामिल है या नहीं.
यदि ये लागतें अलग से नहीं जोड़ी गईं हैं, तो योजना आधी-अधूरी ही साबित होगी.
इसके अलावा, राज्य सरकार की नीतियों में पारदर्शिता की कमी और नीचे स्तर पर भ्रष्टाचार की आशंकाएँ पहले से रही हैं.
कई बार देखा गया है कि सर्वे गलत होते हैं, ठेकेदार मनमर्जी से काम करते हैं और लाभार्थियों तक सुविधा समय पर नहीं पहुंचती.