HomeAdivasi Dailyटी ट्राइब को कब तक बहलाएगी सरकार, जनजाति का दर्जा कब मिलेगा

टी ट्राइब को कब तक बहलाएगी सरकार, जनजाति का दर्जा कब मिलेगा

टी-ट्राइब को असम की राजनीति में एक अहम वोटबैंक के रूप में देखा जाता है. हर बार चुनाव से पहले कई वादे इनसे किए जाते हैं, लेकिन आज तक ज़्यादातर वादे अधूरे ही हैं. आख़िर इस समुदाय की मांगे क्या है ये जानने के लिए हमें पहले टी ट्राइब्स को जानना होगा.

असम सरकार टी-ट्राइब समुदाय के कल्याण के लिए उप-समिति की सिफारिशों को शॉर्ट टर्म, मीड टर्म और लॉन्ग टर्म उपायों के माध्यम से सुलझाने के लिए ठोस कदम उठाएगी. मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ‘हमदर मोनेर कोठा’ (हमारे मन की बात) नामक एक समारोह में शामिल होने आए थे.

असम में टी ट्राइब कहे जाने वाले आदिवासी समुदायों के मसलों को समझने और उनको सुलझाने के लिए क्या क्या किये जाने की ज़रूरत होगी, समितियाँ ये बताएँगी.

सरमा ने कहा कि राज्य सरकार ने चाय बाग़ान में काम करने वाले आदिवासी समुदायों के लोगों के लिए स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, कौशल और रोजगार, आर्थिक सशक्तिकरण, कला और संस्कृति, खेल, भूमि आवंटन और आवास को कवर करते हुए सात उप-समितियां गठित की हैं.

उन्होंने कहा कि राज्य सरकार उप-समिति की सिफारिशों को शॉर्ट टर्म, मीड टर्म और लॉन्ग टर्म उपायों के माध्यम से संबोधित करने के लिए ठोस कदम उठाएगी.

मुख्यमंत्री ने कहा कि वर्तमान राज्य सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में टी-ट्राइब की नई पीढ़ी को आगे बढ़ाने के लिए कदम उठाने सहित इस समुदाय के व्यापक कल्याण के लिए कई कदम उठाए हैं.

उन्होंने कहा कि 97 मॉडल स्कूल स्थापित किए गए हैं और 22 चाय बागान क्षेत्रों में निर्माणाधीन हैं. उन्होंने यह भी कहा कि हाल ही में राष्ट्रपति ने ऐसे 100 स्कूलों का शिलान्यास किया, जिसके पूरा होने पर कुल स्कूलों की संख्या 219 हो जाएगी.

राज्य सरकार इन स्कूलों को हायर सेकेंडरी स्कूलों में तब्दील करेगी. उन्होंने कहा कि 12 से 15 चाय बागानों को कवर करते हुए एक-एक कॉलेज का निर्माण किया जाएगा.

सीएम सरमा ने कहा कि मेडिकल कॉलेजों में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा दी गई है और इस समय यह संख्या 27 हो गई है. साथ ही नए मेडिकल कॉलेजों में से प्रत्येक में तीन सीटें आरक्षित की जाएंगी.

ऐसे में एक बार फिर से असम सरकार ने टी ट्राइब्स को ठगने का काम किया गया है. एक बार फिर मुख्यमंत्री ने समुदाय की विशिष्ट मांगों के लिए कोई ठोस प्रतिबद्धता पर स्पष्ट नहीं किया.

टी-ट्राइब को असम की राजनीति में एक अहम वोटबैंक के रूप में देखा जाता है. हर बार चुनाव से पहले कई वादे इनसे किए जाते हैं, लेकिन आज तक ज़्यादातर वादे अधूरे ही हैं. आख़िर इस समुदाय की मांगे क्या है ये जानने के लिए हमें पहले टी ट्राइब्स को जानना होगा.

टी-ट्राइब्स कौन हैं?

औपनिवेशिक काल में, 1823 में रॉबर्ट ब्रूस नामक एक ब्रिटिश अधिकारी द्वारा चाय की पत्तियों को उगाए जाने के बाद, वर्तमान के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों से आदिवासी समुदायों के लोगों को असम में चाय बागानों में काम करने के लिए लाया गया.

1862 तक, असम में 160 चाय बागान थे. इनमें से कई समुदायों को उनके गृह राज्यों में अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया गया है.

असम में, इन लोगों को चाय जनजाति के रूप में जाना जाने लगा. वे एक विषम, बहु-जातीय समूह हैं और सोरा, ओडिया, सदरी, कुरमाली, संताली, कुरुख, खारिया, कुई, गोंडी और मुंडारी जैसी विविध भाषाएं बोलते हैं.

उन्होंने औपनिवेशिक काल में इन चाय बागानों में काम किया था और उनके वंशज आज भी राज्य में चाय बागानों में काम कर रहे हैं. वे असम को अपना घर बना रहे हैं और इसके समृद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने को जोड़ रहे हैं. आज असम में 8 लाख से अधिक चाय बागान कर्मचारी हैं और चाय जनजातियों की कुल जनसंख्या 65 लाख से अधिक होने का अनुमान है.

असम के चाय बागान

चाय जनजाति कल्याण निदेशालय के अनुसार, वर्तमान में असम में 803 चाय बागान हैं. डिब्रूगढ़ 177 चाय बागानों के साथ आगे है, इसके बाद तिनसुकिया में 122, उसके बाद जोरहाट में 88, शिवसागर में 85, गोलाघाट में 74, सोनितपुर में 59, कछार में 56, उदलगुरी में 24 और करीमगंज में 23 चाय बागान है.

नगांव में 21, हलाइकांडी में 19, कार्बी आंगलोंग में 15, लखीमपुर में 9, बख्शा और दरांग में चार-चार, धुबरी, कामरूप (मेट्रो), कामरूप (ग्रामीण) और कोकराझार में तीन-तीन, धेमाजी में दो-दो , दीमा हसाओ और गोलपारा, और बोंगाईगांव, चिरांग और मोरीगांव में एक-एक बागान है.

एसटी दर्जे की मांग

चाय श्रमिक विभिन्न आदिवासी समुदायों से आते हैं जिन्हें अन्य राज्यों में एसटी का दर्जा दिया गया है इसलिए असम में भी वो ऐसा ही चाहते हैं. अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने से सदस्यों को आरक्षण और छूट जैसे कुछ सामाजिक लाभ मिलते हैं, जो वर्तमान में चाय जनजातियों के लिए नहीं हैं.

हाल ही केंद्र सरकार ने अनुसूचित जनजाति सूची को अपडेट किया और इनमें पांच राज्यों- छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश की 12 जनजातियां और पांच उप-जनजातियां शामिल थीं.

लेकिन सूची में असम की छह जनजातियां – ताई अहोम, मोरन, मटक, चुटिया, कोच राजबंशी और चाय जनजाति को छोड़ दिया गया. ये जनजातियां लंबे समय से एसटी दर्जे की मांग कर रहे हैं.

बीजेपी ने इन समुदायों को एक नहीं, बल्कि दो लगातार राज्य विधानसभा चुनाव घोषणापत्रों में अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने का वादा किया था. लेकिन वादा पूरा करने में नाकाम रही हैं.

गुजारा भत्ता की मांग

असम के कई चाय बागानों में समस्या पैदा हो रही है, जहां टी-ट्राइब्स के श्रमिकों को एक साथ रहने के लिए मजबूर किया गया है, जो सिर्फ 167 रुपये के दैनिक वेतन पर काम कर रहे हैं.

फरवरी 2021 में, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने उच्च वेतन, दैनिक वेतन में 50 रुपये की वृद्धि का मार्ग प्रशस्त करने में मदद की. लेकिन चाय बागान इस बढ़ोतरी के खिलाफ कोर्ट चले गए. परिणामस्वरूप, चाय बागान के कर्मचारी अदालती मामले के परिणाम तक इस मामूली वृद्धि से भी वंचित रह गए.

फिर 22 मार्च, 2021 को, पहले चरण के चुनाव से कुछ दिन पहले चाय बागानों ने स्वेच्छा से 26 रुपये की बढ़ोतरी के लिए सहमति व्यक्त की जो एक मामूली राशि है.

असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एटीटीएसए), ऑल आदिवासी स्टूडेंट्स एसोसिएशन ऑफ असम (आसा) और असम चाय मजदूर संघ (एसीएमएस) जैसे टी-ट्राइब्स के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों ने एक बुनियादी जीवनयापन वेतन से इनकार पर नाराजगी व्यक्त की है.

दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी ने 2016 के चुनावों में दैनिक वेतन के रूप में 351 रुपये का वादा किया था, एक वादा जिसे उन्होंने स्पष्ट रूप से छोड़ दिया.

टी-ट्राइब्स की चुनावी ताकत

आज टी-ट्राइब्स जिनमें संथाल, कुरुख, मुंडा, गोंड, कोल और तांतियों सहित विभिन्न जातीय समूहों के लोग शामिल हैं, असम के कुल 126 विधानसभा क्षेत्रों में से 42 में प्रभावशाली हैं. इसलिए किसी भी पार्टी के लिए उनकी अनदेखी करना मुमकिन नहीं है.

लेकिन असम में टी ट्राइब को जनजाति का दर्जा देने का वादा बेशक दिया जाता हो, लेकिन इस वादे को पूरा करना आसान काम नहीं है. क्योंकि यहाँ के मूल आदिवासी समुदाय इसका विरोध करते हैं. असम पहले ही जातीय हिंसा के एक लंबे दौर से गुज़रा है.

इसलिए सरकार यह नहीं चाहेगी कि यहाँ एक बार फिर उन संगठनों को ज़मीन मिल जाए जिन्हें बड़े लंबे संघर्ष के बाद मिली शांति को भंग करना चाहते हैं. इसलिए यह एक मुद्दा है जो किसी भी राजनीतिक दल या मुख्यमंत्री के लिए एक पेचीदा सवाल था और रहेगा.

असम के चाय बाग़ानों में काम करने वाले आदिवासी समुदाय भी इस बात को समझते हैं. लेकिन इन आदिवासी समुदाय के नेता कम से कम इस मसले पर बार बार दबाव बना कर अगर जनजाति का दर्जा ना भी हासिल कर सकें, अपने समुदाय के लिए कुछ सुविधाएँ तो सरकार से हासिल कर ही सकते हैं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments