HomeGround Reportपहाड़ी और हाटी समुदाय को जनजाति का दर्जा कितना जायज़ है ?

पहाड़ी और हाटी समुदाय को जनजाति का दर्जा कितना जायज़ है ?

देश की कुल आबादी का 10 प्रतिशत आदिवासी है. इस आबादी को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना ना तो संभव है और ना ही जायज़ है. जब कोई समुदाय अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल कर लिया जाता है तो उसकी भाषा और संस्कृति का संरक्षण करने में उसे मदद मिलती है. इसलिए इस मामले को गंभीरता से लेना ज़रूरी है.

जम्मू कश्मीर में पहाड़ी भाषा बोलने वाले समुदायों को सरकार ने अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का फैसला कर लिया है. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही में कश्मीर दौरे पर कहा कि जी डी शर्मा कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर पहाड़ी भाषी लोगों को गुज्जर और बकरवाल समुदायों के साथ अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल कर लिया जाएगा.  

इससे पहले 5 राज्यों में 15 समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के प्रस्ताव को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी दी थी.

इस मंज़ूरी में हिमाचल प्रदेश के हाटी समुदाय का प्रस्ताव भी शामिल था. हाटी समुदाय का प्रस्ताव इससे पहले भी की बार केन्द्र के पास आया था. लेकिन रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने उनके प्रस्ताव को मंज़ूरी नहीं दी थी.

सरकार के इन फ़ैसलों पर कई सवाल उठाए गए हैं. इसके अलावा सरकार के उपर आरोप लगा है कि जनजाति की सूचि में किस समुदाय को शामिल किया जाएगा, यह अब पूरी तरह से चुनाव में फ़ायदे की दृष्टि से किया जा रहा फैसला बन चुका है.

मसलन हिमाचल प्रदेश के गिरीपार के इलाके में रहने वाले हाटी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किये जाने के फ़ैसले से वहां की अनुसूचित जाति के लोग नाराज़ बताए जा रहे हैं. 

MBB से बात करते हुए गिरीपार अनुसूचित जाति संघर्ष समिति के अध्यक्ष अनिल मेगट का कहना था, “एथनोग्राफी रिपोर्ट में 12-14 जातियों के नाम शामिल किए गए थे, उनमें से दो जातियों को ही अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किया गया है. ये दो जातियां दरअसल ब्रहाम्ण और राजपूत हैं. संविधान के अनुसार यह संभव ही नहीं है कि इन जातियों को अनुसूचित जनजाति माना जा सके.”

वो आगे कहते हैं, “दरअसल कुछ राजपूतों और ब्राहम्णों ने चालाकी से रिकॉर्ड में अपना नाम बदलवा लिया, जैसे कुछ ब्राहम्ण अपने आप को भाट कहने लगे तो कुछ राजपूतों ने अपने आप को कनैत घोषित करवा लिया. यह उन राजपूतों और ब्राहम्णों के साथ भी धोखा है जो इस आंदोलन में शामिल थे.”

अनिल मेगट कहते हैं कि हाटी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का कोई संवैधानिक आधार नहीं है. यह फैसला पूरी तरह से राजनीतिक फैसला है. बीजेपी को लगता है कि इस फैसले से उन्हें चुनाव में फ़ायदा मिल सकता है. 

एक्सपर्ट क्या कहते हैं

लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी अचारी भी कहते हैं,” अगर राजपूत और ब्राहम्ण को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किया गया है तो यह निश्चित ही हैरान करने वाला फ़ैसला है. मुझे लगता है कि यह संविधान के प्रावधानों की भावना के खिलाफ़ भी है.”

जम्मू कश्मीर में पहाड़ी भाषा लोगों को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के फैसले की घोषणा गृह मंत्री अमित शाह के किये जाने पर भी पीडीटी अचारी आपत्ति प्रकट करते हैं. 

वो कहते हैं, “यह एक संवैधानिक प्रावधान है जिसकी एक प्रक्रिया है. किसी मंत्री को किसी समुदाय के बारे में यह घोषणा नहीं करनी चाहिए कि उसे अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किया जा रहा है या फिर निकाला जा रहा है.”

पीडीटी अचारी कहते हैं, “दरअसल राजनीतिक दल और सरकारें इस तरह के फैसले राजनीतिक कारणों से करते हैं. यह पहला मौका नहीं है जब किसी सरकार या पार्टी ने राजनीतिक कारणों से किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया है.”

किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की एक लंबी प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया के अनुसार किसी समुदाय के बारे में सबसे पहले पर्याप्त शोध उपलब्ध होना चाहिए. आमतौर पर ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट को यह ज़िम्मेदारी दी जाती है कि वो ये शोध करें.

इस शोध को आधार बना कर राज्य सरकार किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए इसे केंद्र सरकार को भेज सकती है.

केंद्र सरकार की तरफ से आदिवासी कार्य मंत्रालय किसी समुदाय के बारे में शोध रिपोर्ट को रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इंडिया और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को भेजता है.

अगर ये दोनों ही संस्थाएं किसी समुदाय के प्रस्ताव को मंजूरी दे देती हैं तो फिर केंद्र सरकार मंत्रिमंडल में प्रस्ताव ला सकती है. 

आखिर में संसद में बिल लाकर संवैधानिक आदेश को संशोधित कर के किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किया जा सकता है. 

हाल ही में केंद्र सरकार ने कुछ समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के फ़ैसले पर जाने माने समाज शास्त्री बद्रीनारायण कहते हैं, “मुझे इसमें कुछ ग़लत नहीं लगता है. अगर कोई समुदाय दुर्गम इलाके में रहता है और सामाजिक तौर पर अलग थलग है तो उसे अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किये जाने का स्वागत किया जाना चाहिए.”

उन्होंने जम्मू कश्मीर के पहाड़ी बोलने वाले समुदायों के बारे में गृहमंत्री अमित शाह की घोषणा को भी जायज़ ठहराया है. वो कहते हैं, “जो समाज के हासिये पर पड़े समुदाय है अगर सरकार उनकी सुध ले रही है तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.”

राजनीतिक दलों का क्या कहना है

अनुसूचित जनजाति की सूचि में किसी समुदाय को शामिल करना या इस सूचि से बाहर करने का फैसला संसद में भी बहस का मसला बनता रहा है. इस मामले में लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी का कहना है, “मेरे लोकसभा क्षेत्र में कुड़मी समुदाय के लोगों को जनजाति की सूचि में शामिल किया जाना चाहिए था. लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया है. जबकि इस समुदाय के पास सारे प्रमाण मौजूद हैं जो उन्हें इस सूचि में शामिल करने की शर्तों को साबित करते हैं.’

वो कहते हैं, “मैने संसद में सरकार से आग्रह किया था कि किसी समुदाय को जनजाति की सूचि में शामिल करने पर एक व्यापक नीति होनी चाहिए. सरकार को टुकड़ों में यह काम नहीं करना चाहिए. क्योंकि देश के अलग अलग राज्यों से कई समुदाय के लोगों की मांग लंबे समय से लंबित है.”

अधीर रंजन चौधरी कहते हैं, “सरकार को सभी समुदायों के प्रस्तावों पर विचार करते हुए यह तय करना चाहिए कि किस किस समुदाय को जनजाति की सूचि में शामिल किया जाना चाहिए. लेकिन सरकार बार बार टुकड़ों में यह फैसला करती है. निश्चित ही ये फैसले राजनीति से प्रेरित होते हैं.”

अनुसूचित जनजाति की सूचि में कुछ समुदायों को जोड़ने के मसले पर जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा ने एक इंटरव्यू में कहा है, “इसको राजनीति के नज़रिए से नहीं देखा जाना चाहिए. यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके नियम तय हैं. उसके अनुसार यह प्रक्रिया चलती रहती है.”

जम्मू कश्मीर में पहाड़ी भाषी लोगों को जनजाति की सूचि में शामिल करने के सवाल पर वो कहते हैं, “पहाड़ी को एक भाषाई समुदाय नहीं कहा जा सकता है. यह एक समुदाय है जिसकी अपनी पहचान है. इस समुदाय को नियमों के तहत पूरी प्रक्रिया के बाद अनुसूचित जनजाति का दर्जा दने का फ़ैसला किया गया है.”

उन्होंने कहा, “इस फैसले में राजनीति नाममात्र को भी नहीं है. यह फैसला संविधान के प्रावधान के अनुरूप मैरिट पर लिया गया है.”

जब उनसे पूछा गया कि क्या पहाड़ियों के बाद दूसरे समुदायों को भी इस आधार पर जनजाति का दर्ज दिया जाएगा तो उनका कहना था, “हमें इस मामले में किसी बयान से बचना चाहिए. क्योंकि यह शोध के आधार पर चलने वाली एक निरंतर प्रक्रिया है.”

अनुसूचित जनजाति में कौन शामिल हो

अनुसूचित जनजाति में किसी समुदाय को शामिल करने का प्रावधान संविधान में किया गया है. इस मसले पर संविधान सभा में लंबी बहस हुई थी. अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल समुदाय को सिर्फ़ राजनीतिक या फिर नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण तक ही सीमित नहीं है.

अनुसूचित जनजातियों के मामले में यह दायरा काफ़ी व्यापक है. जब कोई समुदाय अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल कर लिया जाता है तो उसकी भाषा और संस्कृति का संरक्षण करने में उसे मदद मिलती है.

इसके अलावा अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल समुदायों की जीविका और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के भी विशेष प्रावधान हैं. आदिवासी समुदायों को भेदभाव और जातीय अत्याचारों से बचाने के लिए भी क़ानून मौजूद हैं.

लेकिन किसी समुदाय को जनजाति की सूचि में शामिल किया जा सकता है इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा संविधान निर्माता तय नहीं कर पाए. इस मामले में बने कई कमीशन भी इस मामले में किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँच पाए हैं.

फ़िलहाल कुछ बातों को किसी समुदाय को जनजाति की सूचि में शामिल करने के आधार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. मसलन सांस्कृतिक विशिष्ठता, मुख्यधारा से दूरी, आर्थिक पिछड़ापन और उत्पादन के आदिम तकनीक और बाहरी लोगों से मिलने में झिझक.

अनुसूचित जनजाति की सूचि से जुड़े कई पेचीदा मामले हैं. मसलन कई समुदाय सिर्फ़ इसलिए इस सूचि से बाहर हैं क्योंकि उनके नाम की वर्तनी में कुछ गड़बड़ी हो गई. कई समुदायों को उच्चारण के फ़र्क़ की वजह से छोड़ दिया गया है.

यह मसला लंबे समय से बहस का विषय है लेकिन अभी तक इस मसले का हल नहीं निकल पाया है.

किसी समुदाय को जनजाति की सूचि में शामिल करने के मामले पर बेशक आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा किसी राजनीति के आरोप को ख़ारिज करते हैं. लेकिन जिस तरह से बीजेपी की सभाओं में उनके बड़े नेता इस बात का श्रेय लेने की कोशिश कर रहे हैं, उससे यह स्पष्ट है कि इसमें राजनीति से इंकार करना इतना आसान भी नहीं है. 

यह बात भी उतनी ही सही है कि इस मामले में आज की सरकार को ही दोष नहीं दिया जा सकता है. लगभग हर सरकार ने इस सवाल को या तो टाल दिया है या फिर राजनीतिक दृष्टि से ही फ़ैसले किये हैं.

देश की कुल आबादी का 10 प्रतिशत आदिवासी है. इस आबादी को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना ना तो संभव है और ना ही जायज़ है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments