HomeAdivasi Dailyडिजिटल इंडिया में पेड़ बना मोबाइल टावर

डिजिटल इंडिया में पेड़ बना मोबाइल टावर

OTP पाने के लिए पेड़ों से लटकते मोबाइल, नेटवर्क की तलाश में पहाड़ियों पर भटकतीं आदिवासी महिलाएं"

महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले की आदिवासी महिलाएँ इन दिनों एक अजीब लेकिन दुखद स्थिति से गुजर रही हैं.

उन्हें सरकार की “लाडकी बहिन योजना” का फायदा लेने के लिए OTP (वन टाइम पासवर्ड) चाहिए होता है, जो मोबाइल पर आता है.

लेकिन इन इलाकों में नेटवर्क बहुत खराब है.

यही वजह है कि महिलाएँ अपने मोबाइल को पेड़ की शाखा से बांध देती हैं और दूर खड़ी होकर इंतजार करती हैं कि फोन में ओटीपी आ जाए.

यह दृश्य सुनने में अजीब लगता है, लेकिन इन आदिवासी इलाकों की हकीकत है.

नंदुरबार जिले के धड़गांव तालुका के खारदे खुर्द गाँव में सैकड़ों महिलाएँ रोज पहाड़ी इलाके में एक पेड़ के पास जाती हैं.

गाँव में कहीं भी मोबाइल नेटवर्क नहीं आता, सिर्फ उस एक पेड़ के नीचे थोड़ा बहुत सिग्नल मिल जाता है.

महिलाएँ फोन को एक रस्सी या कपड़े से पेड़ पर टांग देती हैं और इंतजार करती हैं कि कभी तो फोन में ओटीपी आएगा.

इस ओटीपी की जरूरत सरकार की “लाडकी बहिन योजना” में ई-केवाईसी (e-KYC) पूरा करने के लिए होती है.

योजना के तहत महिलाओं को हर महीने 1,500 रुपये मिलते हैं, लेकिन इसके लिए ऑनलाइन फॉर्म भरना और आधार से जुड़ी पहचान सत्यापित करना जरूरी होता है.

इसके लिए मोबाइल नंबर पर ओटीपी आता है, जो अक्सर नेटवर्क की वजह से नहीं पहुंचता.

इन महिलाओं को हर दिन करीब 1-2 किलोमीटर चलकर पहाड़ी पर जाना पड़ता है. गर्मी हो, बारिश हो या ठंडी, वो हर मौसम में पेड़ के नीचे पहुंचती हैं.

कुछ महिलाएँ तो सुबह से लेकर दोपहर तक वहीं बैठी रहती हैं, लेकिन कई बार घंटों इंतजार के बाद भी ओटीपी नहीं आता.

कई महिलाओं के लिए 300 रुपये खर्च करके नजदीकी शहर जाकर फॉर्म भरवाना भी मुमकिन नहीं है. कई लोगों के पास स्मार्टफोन तक नहीं है या किसी और का मोबाइल इस्तेमाल कर रही हैं.

कुछ महिलाओं का आधार कार्ड बैंक खाते से लिंक नहीं है या आधार में जानकारी गलत है, जिससे उनका आवेदन बार-बार रिजेक्ट हो जाता है.

इस समस्या को सरकार के अधिकारी भी मानते हैं. धङगांव के तहसीलदार ज्ञानेश्वर सपकाले ने बताया की उन्होंने मोबाईल कपींनीयो. को नेटवक्र सुधारने के लिए कहा.

उन्होंने कहा कि कुछ जगहों पर टावर लगे हैं, लेकिन नेटवर्क अब भी काफी कमजोर है.

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2020 में कहा था कि इंटरनेट तक पहुंच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है, जो संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में मौलिक अधिकार के रूप में दिया गया है.

लेकिन नंदुरबार की आदिवासी महिलाओं की हालत देखकर लगता है कि यह हक़ जमीन पर अभी सच नहीं बन पाया है.

इसलिए यह हिस्सा लेख में जोड़ा गया है, ताकि लोगों को समझ में आए कि डिजिटल सेवाओं की कमी, लोगों के अधिकारों को भी प्रभावित कर रही है

जिला प्रशासन अब आधार सत्यापन करने वालों को गाँव-गाँव भेजने की योजना बना रहा है.

राज्य की महिलो और बाल विकास मंत्री अदिति तटकरे  ने कहा कि सरकार को महिलाओं की समस्या की जानकारी है और कोशिश की जा रही है कि सभी को योजना का लाभ मिले.

अभी तक कई महिलाओं को योजना की पहली किस्त के पैसे मिल चुके हैं, लेकिन जिन्हें नहीं मिले हैं, उनके लिए ई-केवाईसी जरूरी है.

लेकिन राज्य के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने साफ कहा है कि ई-केवाईसी की प्रक्रिया को हटाया नहीं जाएगा.

उन्होंने कहा कि इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सिर्फ सही और ज़रूरतमंद महिलाओं को ही योजना का लाभ मिले.

हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि अगर ज़रूरत पड़ी तो आवेदन की आखिरी तारीख 15 नवंबर से आगे बढ़ाई जा सकती है.

कुछ सामाजिक संस्थाएँ, जैसे “उलगुलान फाउंडेशन”, इन महिलाओं की मदद करने की कोशिश कर रही हैं.

वे एक ऐसी जगह पर मोबाइल और लैपटॉप लेकर शिविर लगाते हैं जहाँ थोड़ा बहुत नेटवर्क मिलता है.

लेकिन फिर भी इंटरनेट बार-बार बंद हो जाता है या वेबसाइट लोड नहीं होती.

इन सब बातों से एक ही बात साफ होती है — सरकार ने योजना तो अच्छी बनाई है, लेकिन ज़मीन पर सुविधा देने में अभी भी बहुत काम बाकी है.

जब तक मोबाइल नेटवर्क, इंटरनेट और आधार जैसी जरूरी सुविधाएँ ठीक से नहीं मिलतीं, तब तक लाखों महिलाएँ ऐसे ही पेड़ों के नीचे खड़ी रहेंगी, एक ओटीपी के इंतजार में.

ये सिर्फ महाराष्ट्र की नहीं, बल्कि पूरे देश की उस हकीकत को दिखाता है

जहाँ एक तरफ “डिजिटल इंडिया” की बात होती है, और दूसरी तरफ आदिवासी महिलाएँ पेड़ से मोबाइल लटकाकर सरकारी मदद की उम्मीद में खड़ी होती हैं.

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