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आदिवासी युवकों को नक्सली घोषित कर कराया सरेंडर, अब झारखंड हाईकोर्ट ने सरकार से मांगी रिपोर्ट

याचिकाकर्ता संगठन ने कहा है कि सरकार ने तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा लागू की गई आत्मसमर्पण नीति के ज़रिए निर्दोष आदिवासियों और ग्रामीणों के आत्मसमर्पण को उग्रवादी दिखाया है.

झारखंड हाईकोर्ट ने बुधवार को आदिवासी युवाओं को नक्सली बताकर फर्जी सरेंडर कराए जाने से जुड़े मामले की जनहित याचिका पर सुनवाई की.

चीफ जस्टिस तरलोक सिंह चौहान और जस्टिस राजेश शंकर की खंडपीठ ने इस मामले में राज्य सरकार को स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है.

यह जनहित याचिका झारखंड काउंसिल फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स की ओर से दाखिल की गई है. इस संगठन ने युवकों के फर्जी सरेंडर का पर्दाफाश किया था, जिसमें उन्हें नक्सली बताया गया था.

याचिकाकर्ता संगठन की ओर से अधिवक्ता राजीव कुमार ने अदालत को बताया कि पुलिस और राज्य सरकार ने मिलकर 514 आदिवासी युवकों के आत्मसमर्पण को चरमपंथी संगठनों का सदस्य बताकर दिखाया था.

युवाओं को सरकार के सामने सरेंडर करने के लिए मजबूर किया गया और उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि उन्हें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) में सरकारी नौकरी मिल जाएगी.

युवाओं को सीआरपीएफ में नौकरी दिलाने का लालच देने के साथ-साथ इसके लिए राज्य सरकार के खजाने से करोड़ों रुपए खर्च किए गए.

यह सब कुछ इसलिए किया गया ताकि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अपनी उपलब्धि दिखा सकें और केंद्रीय गृह मंत्री के समक्ष पुरस्कार प्राप्त कर सकें.

पूर्व में इस मामले की सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने केंद्रीय गृह मंत्रालय और राज्य सरकार के गृह सचिव को युवाओं के सरेंडर संबंधी तथ्यों पर सीलबंद रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया था.

अदालत ने यह भी पूछा था कि क्या जिन युवाओं को नक्सली बताकर सरेंडर कराया गया, उन्हें वास्तव में रांची के पुराने जेल परिसर में प्रशिक्षण दिलाया गया था और अगर हां, तो क्या वह प्रशिक्षण कानूनी रूप से वैध था?

इस कथित फर्जी सरेंडर प्रकरण में दिग्दर्शन कोचिंग इंस्टीट्यूट का नाम सामने आया था.

आरोप है कि इस संस्थान ने पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से 514 छात्रों को नक्सली घोषित कर सरेंडर कराया.

पुलिस की आंतरिक जांच रिपोर्ट के मुताबिक, इन युवाओं में से केवल 10 के ही नक्सली गतिविधियों से संबंध पाए गए. जांच दल ने 128 युवाओं के बयान दर्ज किए, जिनमें से अधिकांश के पते की पुलिस सत्यापन नहीं कर पाई या वे उन पतों पर मिले ही नहीं.

जांच प्रक्रिया अधूरी रहने के बावजूद मामले को बंद कर दिया गया था.

क्या है पूरा मामला?

याचिकाकर्ता संगठन ने कहा है कि सरकार ने तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा लागू की गई आत्मसमर्पण नीति के ज़रिए निर्दोष आदिवासियों और ग्रामीणों के आत्मसमर्पण को उग्रवादी दिखाया है.

सरकार ने 2014 में एक समारोह में चिदंबरम के समक्ष 300 माओवादियों का आत्मसमर्पण दिखाया था.

हालांकि बाद में पता चला कि जिन लोगों को माओवादी दिखाया गया था, उनमें से कई निर्दोष थे और उन्हें झूठे मामलों में फंसाया गया था.

नक्सली बताए गए आदिवासियों को राजधानी की पुरानी बिरसा मुंडा जेल में रखा गया था और उन्हें सीआरपीएफ में कांस्टेबल के पद पर नियुक्ति के लिए प्रशिक्षण दिया गया था.

यह जनहित याचिका 2015 में दायर की गई थी, जिसके बाद हाई कोर्ट ने राज्य सरकार से उग्रवादी संगठनों के सदस्य बताए गए आदिवासियों के आत्मसमर्पण के संबंध में जानकारी मांगी थी.

कोर्ट ने बुधवार को सरकार को एक रिपोर्ट दाखिल कर यह बताने का निर्देश दिया कि क्या पुराने जेल परिसर में रखे गए युवाओं को सीआरपीएफ कांस्टेबल के रूप में नियुक्ति के लिए प्रशिक्षण दिया गया था.

याचिकाकर्ता ने यह भी कहा था कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और राज्य सरकार के अधिकारी इस रैकेट में शामिल थे और उन्होंने अपने कारनामे के लिए सरकारी मान्यता और पदक पाने के लिए ही आत्मसमर्पण दिखाया था.

अदालत ने अगली सुनवाई की तारीख 20 नवंबर तय की है.

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