छत्तीसगढ़ के कोरिया ज़िले के मनेन्द्रगढ़ वन क्षेत्र में एक अनोखी और प्रेरणादायक पहल की शुरुआत की गई है.
यहाँ लंबे समय से खाली और बेकार पड़े ‘गोठानों’ यानी पशुओं के रहने के स्थान को फिर से उपयोग में लाया जा रहा है.
इन गोठानों में अब गाय-भैंस नहीं, बल्कि महुआ के पौधे लगाए जा रहे हैं, जिससे ना सिर्फ़ हरियाली लौट रही है बल्कि गाँव की अर्थव्यवस्था को भी नई ताक़त मिल रही है.
महुआ आदिवासी और ग्रामीण समुदाय के लिए केवल एक पेड़ नहीं, बल्कि रोज़गार, परंपरा और भोजन का स्रोत रहा है.
इसके फूलों और बीजों का उपयोग खाने, तेल निकालने और शराब बनाने तक में होता है.
लेकिन पिछले कुछ सालों में जंगलों की कटाई और ज़मीन की खराब हालत की वजह से महुआ के पेड़ कम होते जा रहे थे.
इसी को ध्यान में रखते हुए वन विभाग ने एक अनोखा विचार अपनाया, जहाँ गाय-भैंसों के लिए बनाए गए गोठान अब बेकार पड़े थे, वहाँ पर महुआ के पौधे लगाए जाएँ.
इस योजना के तहत अब तक लगभग 1.12 लाख पौधे लगाए जा चुके हैं, जिनमें से 60 हज़ार से अधिक सिर्फ़ गोठानों में ही लगे हैं.
इन पौधों की देखभाल के लिए स्थानीय गाँव वालों को जोड़ा गया है.
इसके लिए उन्हें छोटी-छोटी रकम भी दी जा रही है ताकि वे इन पौधों को अपना समझकर देखभाल करें.
इससे लोगों की आय भी बढ़ रही है और वे वन विभाग के साथ जुड़कर प्रकृति संरक्षण का हिस्सा बन रहे हैं.
महुआ के अलावा तेंदूपत्ता, आँवला, बेल, और बहेड़ा जैसे पौधे भी लगाए जा रहे हैं, जो आगे चलकर आय का साधन बन सकते हैं.
यह पहल न केवल पर्यावरण की रक्षा कर रही है, बल्कि गाँव में रहने वाले लोगों, ख़ासकर आदिवासी समुदाय को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक मज़बूत कदम है.
वन विभाग का मानना है कि अगर यह मॉडल सफल होता है, तो छत्तीसगढ़ के अन्य जिलों में भी इसे अपनाया जा सकता है.
इससे न केवल बेकार पड़ी ज़मीन का सही उपयोग होगा, बल्कि लोगों को जंगल और प्रकृति से फिर से जोड़ने का अवसर भी मिलेगा.