HomeAdivasi Dailyमणिपुर में सरकार कब तक स्थाई समाधान टालती रहेगी?

मणिपुर में सरकार कब तक स्थाई समाधान टालती रहेगी?

राज्य में शांति बनाए रखने के लिए प्रशासनिक कदम उठाए जा रहे हैं. लेकिन कानून के शासन में सुधार के लिए प्रशासनिक उपायों के साथ-साथ राजनीतिक पहल भी होनी चाहिए.

मणिपुर में राष्ट्रपति शासन को 6 महीने के लिए और बढ़ा दिया गया है. यह विस्तार 13 अगस्त 2025 से प्रभावी होगा. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस संबंध में 25 जुलाई को राज्यसभा में एक प्रस्ताव पेश किया, जिसे सदन ने स्वीकार कर लिया.

प्रस्ताव में कहा गया है, “यह सदन राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत मणिपुर के संबंध में 13 फरवरी, 2025 को की गई उद्घोषणा को 13 अगस्त, 2025 से छह महीने की और अवधि तक जारी रखने की स्वीकृति प्रदान करता है.”

राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाने का यह कदम ऐसे समय उठाया गया जब राज्य के मैतेई और नागा एनडीए विधायक राज्य में लोकप्रिय सरकार की बहाली के लिए महीनों से अभियान चला रहे हैं.

दरअसल, मणिपुर में लंबे समय से जारी जातीय हिंसा और प्रशासनिक विफलता के चलते 13 फरवरी 2025 को पहली बार राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था. अब इसकी समय सीमा खत्म होने के पहले राष्ट्रपति शासन की अवधि को बढ़ाया जा रहा है.

इससे पहले फरवरी में पूर्व मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. उन्हें यह कदम मैतेई समुदाय के अन्य भाजपा विधायकों के राजनीतिक दबाव के परिणामस्वरूप लेना पड़ा था जो उनके नेतृत्व के खिलाफ असंतोष जता रहे थे.

पिछले संसद सत्र में अमित शाह ने कहा था कि राष्ट्रपति शासन लागू करने का कदम इसलिए उठाया गया क्योंकि सिंह के इस्तीफे के बाद किसी ने भी सरकार का नेतृत्व करने का दावा नहीं किया था.

हालांकि, अप्रैल से बीरेन सिंह सहित एनडीए के विधायक, उनके करीबी विधायक और उनके खिलाफ असहमति जताने वाले विधायक राष्ट्रपति शासन के लिए समर्थन की कमी और राज्य में सामान्य स्थिति बहाल करने की दिशा में पर्याप्त प्रगति न होने की धारणा का हवाला देते हुए एक “लोकप्रिय” सरकार की बहाली की मांग कर रहे हैं.

राज्य में राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाने के कदम से मैतेई और नागा विधायकों में और अधिक असंतोष पैदा होने की संभावना है.

मैतेई बहुल घाटी और कुकी-ज़ो बहुल पहाड़ियों के बीच कई महीनों से अपेक्षाकृत शांति रही है.  दोनों समुदायों के बीच हिंसा का आखिरी बड़ा दौर पिछले साल नवंबर में हुआ था.

पिछले महीने राज्य में सुरक्षा बलों ने तीन महत्वपूर्ण हथियार बरामद किए हैं और सरकार ने वर्ष के अंत तक हिंसा से विस्थापित हुए लोगों के एक बड़े वर्ग को उनके घरों तक पहुँचाने की मंशा व्यक्त की है.

हालांकि, संघर्ष शुरू होने के 26 महीने से भी ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी मैतेई और कुकी-ज़ो समुदायों के हितधारकों के बीच बातचीत में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है.

राष्ट्रपति शासन और मणिपुर की स्थिति

राष्ट्रपति शासन लागू करना जो कभी केंद्र का लगातार और राजनीति से प्रेरित हथियार हुआ करता था, 1990 के दशक से काफ़ी कम हो गया है. यह स्वागत योग्य बदलाव एस.आर. बोम्मई के ऐतिहासिक फ़ैसले, राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव और इसके दुरुपयोग के प्रति जनता की नाराज़गी का नतीजा है.

अब इसका इस्तेमाल मणिपुर जैसे गंभीर संवैधानिक संकट या गंभीर आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों के लिए ही किया जाता है.

अब जब एक बार फिर मणिपुर में राष्ट्रपति शासन का विस्तार किया गया है तो इस विस्तार का विरोध बहुत कम लोग करेंगे क्योंकि केंद्र जातीय संघर्ष का स्थायी समाधान खोजने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहा है.

बीरेन सिंह के इस्तीफे और भाजपा सरकार के पतन के बाद वहां शांति है लेकिन उसकी स्थिति बहुत नाजुक है.

राज्य के सक्रिय उग्रवादी समूहों पर कार्रवाई से हिंसा में कमी आई है और मई 2023 से विस्थापित हुए कुछ परिवार घर लौटने लगे हैं. हालांकि, ये सकारात्मक प्रगति कुकी-ज़ो और मैतेई समुदायों के बीच गहरे जातीय मतभेदों के कारण फीकी पड़ गई है.

मणिपुर अभी भी बफर ज़ोन में बंटा हुआ है, जहां समुदायों को कठोरता से अलग-थलग रखा गया है.

राजनीतिक खाई भी उतनी ही गहरी है क्योंकि कुकी-ज़ो समूह अलग प्रशासन की अपनी मांग पर अड़े हुए हैं. जबकि कट्टरपंथी मैतेई संगठन अपने साथी नागरिकों को “बाहरी” बताते हुए अपनी बात पर अड़े हुए हैं.

मैतेई लोकप्रिय सरकार की बहाली चाहते हैं, जबकि आदिवासी शांति की प्रभावी बहाली तक राष्ट्रपति शासन जारी रखने के पक्ष में हैं.

हिंसा प्रभावित आदिवासी बहुल चुराचांदपुर ज़िले के एक आदिवासी ईसाई नेता का कहना है कि शांति सुनिश्चित किए बिना एक लोकप्रिय सरकार विनाशकारी होगी.

ईसाई नेता ने मीडिया से कहा, “संघीय सरकार अच्छी तरह जानती है कि अगर वह प्रभावशाली और शक्तिशाली मैतेई के दबाव में आकर लोकप्रिय सरकार को बहाल करती है तो इससे नई हिंसा भड़केगी और राज्य में अशांति बनी रहेगी.”

उन्होंने आगे कहा कि सच्ची शांति तभी प्राप्त हो सकती है जब दोनों पक्ष व्यापक हितों और कल्याण के लिए अपनी “हठ” त्याग दें.

उन्होंने कहा, “यह सच है कि संघीय शासन में कोई हिंसा नहीं होती लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राज्य में सब कुछ ठीक है.”

उन्होंने आगे कहा कि कई जगहों पर लोग “कैदियों” की तरह रह रहे हैं क्योंकि सरकार लोगों की मुक्त आवाजाही के लिए युद्धरत समूहों के बीच समझौता करने में विफल रही है.

राज्य में शांति बनाए रखने के लिए प्रशासनिक कदम उठाए जा रहे हैं. लेकिन कानून के शासन में सुधार के लिए प्रशासनिक उपायों के साथ-साथ राजनीतिक पहल भी होनी चाहिए.

भाजपा को सत्ता में आने पर घाटी और पहाड़ी इलाकों में समर्थन मिला था लेकिन वह जातीय शत्रुता को कम करने में नाकाम रही है.

इसकी मुख्य वजह यह है कि पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व ने इस मुद्दे को तुरंत सुलझाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और इस समस्या से निपटने का काम नौकरशाहों और सुरक्षा बलों पर छोड़ दिया.

केंद्र की ज़िम्मेदारी जातीय विभाजन को पाटने के लिए राजनीतिक माहौल तैयार करना है, लेकिन यह ज़िम्मेदारी साझा होनी चाहिए. राजनीतिक दलों और नागरिक समाज समूहों को कट्टरपंथियों का विरोध करना चाहिए और सुलह का काम शुरू करना चाहिए.

शांतिपूर्ण मणिपुर का भविष्य उन प्रतिबद्ध राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पहल से लिखा जाएगा जो जातीय विभाजन से ऊपर उठकर अपने खंडित समाज को वास्तविक रूप से स्वस्थ करने के लिए काम करने को तैयार हैं.

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