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मेघालय: खासी जनजाति की नई खाद्य मशरूम प्रजाति की खोज

यह मशरूम ना सिर्फ खासी जनजाति के लिए बल्कि पूरे क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी महत्वपूर्ण है स्थानीय लोग इसे न सिर्फ अपने खाने में इस्तेमाल करते हैं. बल्कि बाजार में भी बेचते हैं जिससे उन्हें आर्थिक मदद मिलती है.

मेघालय के पूर्वी खासी पहाड़ियों में हाल ही में एक नई खाद्य मशरूम प्रजाति की खोज हुई है. जिसका नाम वैज्ञानिकों ने “लैक्टिफ्लूस खासीअनस” (Lactifluus khasianus) रखा है.

यह मशरूम खास तौर पर खासी जनजाति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. जो इसे अपनी पारंपरिक भोजन संस्कृति का अहम हिस्सा मानते हैं.

स्थानीय भाषा में इसे ‘तित इओंग्नाह'(Tit Iongnah) कहा जाता है और यह मानसून के दौरान खासी जनजाति के लोगों के लिए पोषण का एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है.

यह मशरूम खासी पाइन के जंगलों में लगभग 1600 मीटर की ऊंचाई पर उगता है.

वैज्ञानिकों की एक टीम जिसमें भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण केंद्र के शोधकर्ता, सेंट जेवियर्स कॉलेज (दुमका) के प्रोफेसर और थाईलैंड की महिदोल यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञ शामिल थे.

इस टीम ने इसे परखा सूक्ष्मदर्शी से इसका अध्ययन किया और डीएनए अनुक्रमण के जरिए इसकी पहचान की.

यह भारत में इस प्रकार की पांचवीं प्रजाति है जिसे पहली बार खाद्य रूप में मान्यता मिली है.

मेघालय जो इंडो-बर्मा जैव विविधता हॉटस्पॉट क्षेत्र में आता है.

यहाँ 34 से अधिक लैक्टिफ्लूस प्रजातियाँ पाई जाती हैं. इस नई प्रजाति की खोज इस क्षेत्र की जैव विविधता की समृद्धि को दर्शाती है.

यह मशरूम ना सिर्फ खासी जनजाति के लिए बल्कि पूरे क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी महत्वपूर्ण है स्थानीय लोग इसे न सिर्फ अपने खाने में इस्तेमाल करते हैं. बल्कि बाजार में भी बेचते हैं जिससे उन्हें आर्थिक मदद मिलती है.

खासी जनजाति के लिए यह मशरूम प्रोटीन और कई सूक्ष्म पोषक तत्वों का अच्छा स्रोत है.

इस तरह के पारंपरिक खाद्य संसाधनों का संरक्षण न केवल भोजन की सुरक्षा के लिए जरूरी है. बल्कि यह सांस्कृतिक धरोहर को भी संजोने में मदद करता है.

साथ ही यह खोज वन संरक्षण की दिशा में भी एक बड़ा कदम है. क्योंकि इससे सतत वनों की कटाई रोकने और जंगलों के संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा.

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस प्रकार के मशरूम के अध्ययन से न केवल पोषण के क्षेत्र में नए अवसर मिलेंगे.

बल्कि चिकित्सा और जैव प्रौद्योगिकी में भी इसके प्रयोग हो सकते हैं.

यह खोज पारंपरिक जनजातीय ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच एक सुंदर समन्वय का उदाहरण है.

स्थानीय समुदायों का यह ज्ञान जो वर्षों से प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है जैव विविधता के संरक्षण में बहुत सहायक सिद्ध हो रहा है.

इस खोज से यह भी साफ हो जाता है कि प्राकृतिक संसाधनों और स्थानीय सांस्कृतिक ज्ञान का सम्मान और संरक्षण दोनों मिलकर ही पर्यावरण और सामाजिक विकास को संतुलित बना सकते हैं.

मेघालय की यह नई मशरूम प्रजाति हमें यह याद दिलाती है कि हमें अपनी प्राकृतिक विरासत को संजोना चाहिए और विज्ञान की मदद से उसे सुरक्षित बनाना चाहिए.

ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इसका लाभ उठा सकें.

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