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NFS का बहाना या नया भेदभाव, आरक्षित वर्ग के शिक्षकों की अनदेखी क्यों

इस मुद्दे पर दिल्ली यूनिवर्सिटी का उदाहरण सबसे बड़ा है. वहां के कई विभागों में दलित और आदिवासी उम्मीदवारों को जानबूझकर बाहर कर दिया गया.

देश की बड़ी यूनिवर्सिटियों और कॉलेजों में दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों को पढ़ाने का मौका नहीं मिल रहा है.

ये बात संसद की एक समिति की रिपोर्ट से सामने आई है.

इन लोगों को “NFS” यानी “Not Found Suitable” कहकर नौकरी या प्रमोशन देने से रोका जा रहा है

सोचने वाली बात ये है कि ये वही लोग हैं जिन्होंने परीक्षा पास की है, इंटरव्यू दिया है, सब योग्यता पूरी की है.

फिर भी उन्हें सिर्फ इसलिए हटा दिया जाता है क्योंकि भर्ती करने वालों को लगता है कि वो “उपयुक्त” नहीं हैं.

इस मुद्दे पर दिल्ली यूनिवर्सिटी का उदाहरण सबसे बड़ा है. वहां के कई विभागों में दलित और आदिवासी उम्मीदवारों को जानबूझकर बाहर कर दिया गया.

संसद की एससी/एसटी कल्याण समिति ने पाया कि बहुत सारे शिक्षकों को सिर्फ इसलिए नौकरी से वंचित कर दिया गया क्योंकि उन्हें NFS कह दिया गया.

समिति को यह भी जानकारी दी गई कि कुछ विभागों में तो लगभग 70% तक एससी/एसटी उम्मीदवारों को इसी बहाने से बाहर किया गया.

अब सवाल उठता है कि सरकार क्या कर रही थी? क्या उन्हें नहीं पता था कि विश्वविद्यालयों में ऐसी भेदभावपूर्ण प्रक्रिया चल रही है?

अगर सरकार को जानकारी थी तो उन्होंने पहले से इस पर कार्रवाई क्यों नहीं की?

सालों से आरक्षित पद खाली पड़े हैं, लेकिन सरकार की तरफ से न तो भर्ती करवाई गई और न ही विश्वविद्यालयों से जवाब मांगा गया.

क्या ये सिर्फ एक लापरवाही है या फिर जानबूझकर की जा रही अनदेखी?

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस मुद्दे को लेकर सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि NFS अब “नया मनुवाद” बन गया है.

उन्होंने आरोप लगाया कि ये एक सुनियोजित तरीका है जिससे दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों को शिक्षा और उच्च पदों से दूर रखा जा रहा है.

उनके बयान के बाद ये बहस और तेज़ हो गई कि क्या वाकई सरकार और व्यवस्था मिलकर आरक्षण को कमजोर कर रहे हैं?

कुछ आंकड़े इस बात की पुष्टि भी करते हैं.

देश भर के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के पदों पर OBC के 80%, ST के 83% और SC के 64% पद खाली हैं.

वहीं सामान्य वर्ग में सिर्फ 39% पद खाली हैं. ये फर्क साफ बताता है कि भर्ती में भेदभाव हुआ है.

इन खाली पदों को भरने की बजाय सरकार और विश्वविद्यालय दोनों चुपचाप बैठे रहे.

अब जब यह मुद्दा संसद में उठा है, तो सरकार ने एक कमेटी बनाकर यह जांच शुरू की है कि किस आधार पर NFS कहा गया.

लेकिन सवाल यही है कि इतनी देर क्यों की गई? क्या अगर यह मामला संसद में नहीं उठता तो सरकार अब भी चुप रहती?

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