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Rajasthan Assembly Election 2023: चुनावी मैदान में एक-दूसरे के खिलाफ हुए गुजरात के आदिवासी नेता के बेटे

राजस्थान के आदिवासी इलाकों की 25 विधानसभा सीटों में से कम से कम 17 पर कांग्रेस और बीजेपी के साथ-साथ बीटीपी और बीएपी के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं.

राजस्थान विधानसभा चुनाव (Rajasthan Assembly Election) की वोटिंग में कुछ ही दिन बचे हुए हैं. बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही मुख्य दल अपने प्रचार अभियान में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं. राज्य की आधा दर्जन सीटें ऐसी हैं जहां परिवार के लोग एक एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं. इसमें एक आदिवासी नेता का परिवार भी शामिल है जिसके दो बेटे चुनावी मैदान में एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं.

गुजराती आदिवासी नेता छोटूभाई वसावा (Chhotubhai Vasava) के दो बेटे आगामी विधानसभा चुनाव के लिए राजस्थान के आदिवासी इलाके में एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं. उनके बड़े बेटे महेश, भारतीय ट्राइबल पार्टी (Bharatiya Tribal Party) का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसने 2018 के राजस्थान राज्य चुनावों में दो सीटें जीतीं.

जबकि छोटे बेटे दिलीप, नवगठित भारतीय आदिवासी पार्टी (Bharatiya Adivasi Party) का समर्थन कर रहे हैं. जिसके टिकट पर इस बार बीटीपी के दो विधायक चुनाव लड़ रहे हैं.

दोनों विधायक 2018 में बीटीपी से जीते थे और 2023 के चुनावों के लिए बीएपी में शामिल हो गए थे. दोनों बेटों की दुश्मनी का कनेक्शन गुजरात से है.

2022 में गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले, महेश ने अपने पिता के खिलाफ विद्रोह कर दिया, जिन्होंने 2017 में बीटीपी की स्थापना की और सात बार के विधायक छोटू वसावा को अपने गृह निर्वाचन क्षेत्र झगड़िया से मैदान में नहीं उतारा, जिससे उन्हें स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा.

छोटू हार गए जिससे गुजरात के भीतर उनके राजनीतिक प्रभाव में गिरावट का संकेत मिला और बीटीपी का भी पतन हुआ, जो गुजरात में एक भी विधानसभा सीट जीतने में नाकामयाब रही.

2017 में छोटू और महेश ने वहां बीटीपी के टिकट पर जीत हासिल की थी.

राजस्थान में दो मौजूदा विधायकों सहित बीटीपी के कई वरिष्ठ सदस्यों ने अलग होने का फैसला किया. जिसकी परिणति 25 नवंबर के चुनाव से छह महीने पहले भारतीय आदिवासी पार्टी के गठन के रूप में हुई, जिसने आदिवासी बहुल दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान क्षेत्र में राजनीति को नया आकार दिया.

राजस्थान के आदिवासी इलाकों की 25 विधानसभा सीटों में से कम से कम 17 पर कांग्रेस और बीजेपी के साथ-साथ बीटीपी और बीएपी के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं.

चुनावी मैदान

आदिवासी बहुल सलूंबर निर्वाचन क्षेत्र के मध्य में स्थित गुड़ गांव के 82 वर्षीय पदमसिंहजी राजपूत अपने घर के पास धूल भरी गलियों की ओर एक पुरानी छड़ी से इशारा करते हुए उस स्थिर परिदृश्य की ओर दिखाते हैं जो दशकों से काफी हद तक अपरिवर्तित बना हुआ है.

उन्होंने क्षेत्र में विकास की कमी पर नाराजगी जताते हुए कहा, “पिछले 50 वर्षों से इन हिस्सों में बहुत कुछ नहीं बदला है. लोग अभी भी पलायन करने को मजबूर हैं और हमारे सरकारी कर्मचारियों को पिछले पांच महीनों से वेतन नहीं मिला है. राज्य सरकार के साथ साझेदारी में केंद्र द्वारा हमारे गांव के पास 105 किलोमीटर लंबी सड़क परियोजना को मंजूरी दी गई है लेकिन हमें ज्यादा काम होता नहीं दिख रहा है. हमारे गांव के लिए श्मशान की बात भी कई सालों से चल रही है. हमारे क्षेत्र में एक कांग्रेसी सरपंच और एक भाजपा विधायक होने के बावजूद वास्तविक प्रगति और विकास मायावी लगता है. अब हम BAP और BTP के बारे में सुनते हैं, आइए देखें कि वे क्या कर सकते हैं.”

डूंगरपुर जिले के आसपुर गांव के 25 वर्षीय योगेश कलासुआ, जिनके पास अंग्रेजी साहित्य में मास्टर डिग्री है, आदिवासियों को स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने और मौलिक अधिकारों को सुरक्षित करने की वकालत करते हैं. वो ग्राम सभाओं के दौरान खुले तौर पर आयोजित बीएपी और उनकी पारदर्शी उम्मीदवार चयन प्रक्रिया की प्रशंसा व्यक्त करते हैं.

भाजपा और कांग्रेस के भव्य प्रदर्शनों, उनकी हाई-प्रोफाइल रैलियों और गाड़ियों की भीड़ के विपरीत आदिवासी पार्टियां विशेष रूप से कम महत्वपूर्ण दृष्टिकोण रखती हैं. उनकी अभियान  रणनीति जमीनी स्तर के तरीकों, सोशल मीडिया के उपयोग और घर-घर जाकर प्रचार करने पर निर्भर करती है. उनके नेता हेलिकॉप्टरों और भव्य मंचों से दूर रहते हैं, अक्सर गांवों में शाम बिताते हुए पाए जाते हैं, कुछ सौ व्यक्तियों की मामूली सभाओं में शामिल होते हैं.

ऐसे में राजपूत और कलासुआ जैसे कुछ लोग हैं जो बीटीपी और बीएपी जैसी पार्टियों से कुछ उम्मीद देखते हैं. वहीं कई लोग उन्हें मुख्य पार्टियों के लिए वोट काटने वाले के रूप में देखते हैं.

आदिवासी जमीन के लिए लड़ाई

राजस्थान में जनजातीय प्रतिनिधित्व के लिए 25 सीटें आरक्षित हैं, जिनमें से 17 सीटें जनजातीय उपयोजना या अनुसूचित क्षेत्रों (Tribal Sub Plan or the Scheduled Areas) के अंतर्गत आती हैं.

2013 के चुनावों में भाजपा ने 18 आरक्षित सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि कांग्रेस ने ऐसी 7 सीटों पर जीत हासिल की थी.

2018 के चुनावों में कांग्रेस ने 14 आरक्षित सीटें जीतीं, भाजपा ने 8 और बीटीपी ने 2 (बांसवाड़ा क्षेत्र में) जीती थी. बस्सी में एक एसटी आरक्षित सीट निर्दलीय उम्मीदवार लक्ष्मण मीना ने जीती थी, जिन्हें कांग्रेस ने आगामी चुनावों के लिए मैदान में उतारा है.

पूर्णतः जनजातीय क्षेत्र बांसवाड़ा, डूंगरपुर और प्रतापगढ़ हैं. जबकि आंशिक रूप से जनजातीय क्षेत्र उदयपुर, चित्तौड़गढ़, सिरोही, राजसमंद और पाली हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक, अनुसूचित क्षेत्र की कुल जनसंख्या 64 लाख 63 हज़ार 353 है. जिसमें से अनुसूचित जनजाति (ST) की जनसंख्या 45 लाख 57 हज़ार 917 है, जो अनुसूचित क्षेत्र की कुल जनसंख्या का 70.43 फीसदी है.

उदयपुर स्थित राजनीतिक विशेषज्ञ कुंजन आचार्य ने कहा, “BAP ने थोड़े समय में लोकप्रियता हासिल की है. BTP अभी भी आदिवासी क्षेत्रों में एक ताकत बनी हुई है. दोनों आदिवासी पार्टियां घर-घर जाकर व्यापक प्रचार अभियान चलाती हैं. बहुत से आदिवासी आज भी चुनाव से अपने बुनियादी अधिकार मांग रहे हैं. बीटीपी और बीएपी निश्चित रूप से आदिवासी क्षेत्र में कांग्रेस और भाजपा के वोट काटेंगे.”

राजस्थान में आदिवासियों ने गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से देश भर के आदिवासी समुदाय को एकजुट करने के लिए 2015 में जय भील प्रदेश नामक एक आंदोलन शुरू किया था.

जय भील प्रदेश के संस्थापक सदस्यों में से एक और बीएपी के अध्यक्ष मोहनलाल राउत ने कहा,  “हमारी ज़मीन छीन ली गई, हमारे घर विस्थापित हो गए और हमने देखा कि चाहे लोकसभा हो या राज्यसभा न तो कांग्रेस और न ही भाजपा ने हमारे लिए कोई मजबूत रुख अपनाया. हमें एक राजनीतिक मोर्चे की जरूरत थी और हमने बीटीपी का समर्थन करने के लिए हाथ मिलाया. लेकिन हमने पाया कि उनके पास भी अन्य पार्टियों की तरह एक हाईकमान प्रणाली थी इसलिए हमने उनसे अलग होने का फैसला किया.”

जुलाई 2020 में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के खुले विद्रोह के बाद राजस्थान में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के भीतर राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान बीटीपी ने सत्तारूढ़ दल को अपना समर्थन दिया.

राउत ने एक विशिष्ट घटना का हवाला देते हुए उनके और बीटीपी के बीच दरार की ओर इशारा किया, जब बीटीपी ने अपने दो विधायकों – राजकुमार रोत (चोरासी) और रामप्रसाद डिंडोर (सागवाड़ा) को 10 जून, 2022 को राज्यसभा चुनाव में मतदान से दूर रहने का निर्देश जारी किया था. यह निर्देश उदयपुर में बीटीपी विधायकों और कांग्रेस नेताओं के बीच एक बैठक के बाद आया, जहां उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए अपने समर्थन की घोषणा की.

उन्होंने कहा कि 2020 में डूंगरपुर जिले में पंचायत चुनाव में बीटीपी ने 13 सीटें जीतीं, जबकि भाजपा को आठ और कांग्रेस को छह सीटें मिली थी.

राउत ने कहा, “सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद हम बोर्ड नहीं बना सके क्योंकि कांग्रेस और भाजपा ने हमें सत्ता से बाहर रखने के लिए हाथ मिला लिया था. हम केवल यह चाहते हैं कि हमें वही दिया जाए जिसका वादा हमारा संविधान करता है. हमने राजस्थान की कांग्रेस सरकार को अपनी 17 सूत्री मांगें दीं लेकिन उन्होंने एक भी पूरी नहीं की. केंद्र और राज्य सरकार दोनों ही आदिवासियों को उनकी जमीन, जल और जंगल का अधिकार नहीं देना चाहती है. हमारी भाषा और संस्कृति के लिए कोई काम नहीं किया गया. हमारी मुख्य मांगों में से एक भीली भाषा बोलने वाले चार राज्यों के लोगों के लिए एक अलग राज्य की मांग है.”

भाजपा दिल्ली के प्रवक्ता सत प्रकाश राणा, जो राजस्थान में आदिवासी क्षेत्रों में पर्यवेक्षक के रूप में थे. उन्होंने कहा कि बीटीपी और बीएपी छोटी पार्टियां हैं और आगामी चुनावों में राजस्थान में तीसरे मोर्चे के उभरने के लिए कोई जगह नहीं है.

उन्होंने दावा किया कि केंद्र की जनजातीय उपयोजना सही जगह पर है और राजस्थान के आदिवासी इससे खुश हैं.

वहीं गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष शक्तिसिंह गोहिल, जिन्हें राजस्थान चुनाव के लिए पार्टी द्वारा विशेष पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया है. उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी ने अपने उम्मीदवार चयन में आदिवासी समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया है, जिसमें गैर-एसटी आरक्षित सीटें भी शामिल हैं. जबकि भाजपा ने आदिवासी समुदाय को कम प्रतिशत प्रतिनिधित्व प्रदान किया है.

उन्होंने कहा, “राजस्थान में कांग्रेस द्वारा किए गए कल्याणकारी योजनाओं और विकास कार्यों को देखते हुए अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली सरकार के लिए सकारात्मक माहौल है.”

बीटीपी के अध्यक्ष वेलाराम घोगरा ने कहा कि बीटीपी ने आप्रवासन को रोकने, स्थानीय लोगों के लिए रोजगार पैदा करने के लिए छोटे उद्योगों को विकसित करने, आदिवासियों को समान नागरिक संहिता से छूट देने और आदिवासी उप-योजना क्षेत्रों में नौकरियों में वर्तमान 45 फीसदी से बढ़ाकर 90 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया है.

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