कर्नाटक के चामराजनगर के घने जंगलों में एक अनोखा बदलाव बड़ी शांति से हो रहा है… ये बदलाव इंफ्रास्ट्रक्चर या भारी मशीनों से नहीं बल्कि प्रकृति के कुछ सबसे छोटे लेकिन सबसे शक्तिशाली यानि बिना डंक वाली मधुमक्खियों (Stingless bees) से हो रहा है.
इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (ICAR) के तहत नेशनल ब्यूरो ऑफ एग्रीकल्चरल इंसेक्ट रिसोर्सेज (NBAIR) ने इस इलाके के आदिवासी गांवों को भारत के पहले ‘बिना डंक वाली मधुमक्खी गांवों’ में बदलने की एक बड़ी पहल शुरू की है.
इन गांवों में शांत और मेहनती टेट्रागोनुला मधुमक्खियां (Tetragonula bees) बेहतर आजीविका, इकोलॉजिकल सुधार और महिलाओं के नेतृत्व वाले एंटरप्रेन्योरशिप की वजह बन गई हैं.
जो पूरी तरह से एक वैज्ञानिक कोशिश के तौर पर शुरू हुआ था. लेकिन अब वह धीरे-धीरे टिकाऊ मधुमक्खी पालन के लिए एक दोहराए जाने वाले मॉडल और आदिवासी परिवारों के लिए आय के एक भरोसेमंद स्रोत के रूप में विकसित हो रहा है.
पारंपरिक मधुमक्खी पालन में एपिस सेराना मधुमक्खियों का इस्तेमाल होता है. उसके उलट यह मेलिपोनिकल्चर (Meliponiculture) जिसके बारे में माना जाता है कि इसकी शुरुआत लैटिन अमेरिका में हुई थी, मेलिपोनिनी जनजाति की मधुमक्खियों पर निर्भर करता है.
NBAIR के सीनियर साइंटिस्ट, प्रोफेसर अमाला उदयकुमार, जिन्होंने अपनी टीम के साथ जंगलों में कैंप लगाकर आदिवासी महिलाओं को ट्रेनिंग दी. उन्होंने कहा, “पारंपरिक मधुमक्खी पालन में डंक लगने का ख़तरा होता है, जिसके लिए किसानों को सुरक्षा गियर पहनने पड़ते हैं. ज़्यादातर डंक से सिर्फ़ हल्की सूजन या दर्द होता है लेकिन कुछ लोगों के लिए ये गंभीर एलर्जिक रिएक्शन में बदल सकते हैं. ये ख़तरे तब और बढ़ जाते हैं जब आदिवासी समुदाय जंगली छत्तों से छत्ते काटकर शहद निकालते हैं. बिना डंक वाली मधुमक्खी पालन की ओर जाने से ये ख़तरे पूरी तरह खत्म हो जाते हैं.”
उन पारंपरिक तरीकों के मुकाबले, बिना डंक वाली मधुमक्खी पालन एक कम लागत वाला, कम रखरखाव वाला लेकिन बहुत ज़्यादा मुनाफ़े वाला काम है.
साथ ही मेलिपोनिकल्चर से इकट्ठा किया गया शहद, आम शहद के मुकाबले क्वालिटी में बेहतर माना जाता है.
जहां आम शहद 700 से 800 रुपये प्रति किलो बिकता है. वहीं मेलिपोना शहद (Melipona honey) अपनी औषधीय गुणों और आयुर्वेदिक दवाओं में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने की वजह से 4,000 से 5,000 रुपये प्रति किलो तक की बहुत ज़्यादा कीमत पर बिकता है.
इन फ़ायदों से प्रोत्साहित होकर ICAR–NBAIR के वैज्ञानिकों ने नेशनल बी बोर्ड (NBB) के सहयोग से चामराजनगर के आदिवासी इलाकों को चुना, जहां पश्चिमी और पूर्वी घाट मिलते हैं ताकि इस खास रोज़गार कार्यक्रम को शुरू किया जा सके.
NBAIR के डायरेक्टर सुशील SN ने कहा, “पहले फेज में हमने पांच गांवों – कोम्बुडिक्की, मेंडारे, इंडिगनाट्टा, गोरसाने और कीरनहोला से करीब 60 आदिवासी महिलाओं को एक साथ लाया और उन्हें बिना डंक वाली मधुमक्खी पालन की बारीकियों की ट्रेनिंग दी क्योंकि हमारा आइडिया है कि हर घर में एक मधुमक्खी कॉलोनी हो.”
NBAIR में डिवीजन (जर्मप्लाज्म कंजर्वेशन एंड यूटिलाइजेशन) के हेड के सुबाहरन ने कहा, “लगभग एक महीने तक इन महिलाओं ने कॉलोनी हैंडलिंग, रखरखाव, कॉलोनी डिवीजन, रानी, नर और काम करने वाली मधुमक्खियों की पहचान करने के प्रैक्टिकल सेशन में हिस्सा लिया. उन्हें मौसमी कॉलोनी मैनेजमेंट, रीक्वीनिंग टेक्नीक और साइंटिफिक शहद निकालने के तरीकों की भी ट्रेनिंग दी गई.”
वैज्ञानिकों ने बताया कि एपिडे परिवार से संबंधित टेट्रागोनुला एसपीपी.., सोशल कॉर्बिकुलेट मधुमक्खियां हैं और नारियल, सूरजमुखी, लौकी और ग्रीनहाउस में उगाई जाने वाली मीठी मिर्च जैसी फसलों के लिए महत्वपूर्ण परागणक हैं.
एक अन्य वैज्ञानिक ने कहा, “आजीविका को सहारा देने के अलावा ये बिना डंक वाली मधुमक्खियां स्वाभाविक रूप से पुरानी दीवारों की दरारों, पेड़ों के खोखले हिस्सों, दीमक के टीलों और घनी वनस्पति के अंदर छिपी जगहों पर पनपती हैं, ऐसे आवास जो आमतौर पर आदिवासी बस्तियों के आसपास पाए जाते हैं.”
ट्रेनिंग प्रोग्राम के बाद हर पार्टिसिपेंट को खुद से मेलिपोनिकल्चर शुरू करने के लिए बिना डंक वाली मधुमक्खियों की कॉलोनियां दी गईं.
साल 2024 में NBAIR ने इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस (ITBP) और आर्मी सर्विस कॉर्प्स की कई यूनिट्स को उनके फील्ड स्टेशनों पर बिना डंक वाली मधुमक्खियों की कॉलोनियों को मैनेज करने की ट्रेनिंग भी दी, जो इस टिकाऊ प्रैक्टिस को बढ़ावा देने में एक और महत्वपूर्ण कदम है.

