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बिना आंखों के देखा सबसे ऊँचा सपना: छोंजिन अंगमो ने फतह किया माउंट एवरेस्ट

उनकी यह सफलता उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा है जो सोचते हैं कि वह कुछ नहीं कर सकते. खासकर दिव्यांग जनों के लिए छोंजिन एक उम्मीद की किरण बन चुकी हैं.

छोंजिन अंगमो ने वह कर दिखाया है, जो बहुत से लोग केवल सपना देखने की हिम्मत करते हैं.

वह भारत की पहली ऐसी महिला बनी हैं, जिनकी आंखों में रोशनी नहीं है, फिर भी उन्होंने दुनिया की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट (8,848 मीटर) पर चढ़ाई की.

उनकी यह कहानी सिर्फ एक खबर नहीं है, यह हिम्मत, आत्मविश्वास और हौसले की मिसाल है.

छोंजिन का जन्म हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले की हंगरांग घाटी में हुआ था.

उनका बचपन बिलकुल आम बच्चों की तरह बीता, लेकिन जब वह लगभग आठ साल की थीं, तब एक गंभीर बीमारी के कारण उनकी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गई.

यह हादसा किसी भी बच्चे के लिए बहुत बड़ा झटका होता है, और उस उम्र में किसी का पूरी तरह से अंधा हो जाना आसान नहीं होता.

परिवार, समाज और जीवन की मुश्किलें उनके सामने खड़ी थीं.

लेकिन छोंजिन ने कभी अपने अंधेपन को कमजोरी नहीं बनने दिया. उन्होंने इसे अपनी ताकत बना लिया.

उन्होंने लद्दाख के महाबोधि रेजिडेंशियल स्कूल में पढ़ाई की, जहाँ उन्हें पहली बार यह समझ आया कि वह भी बाकी सभी लोगों की तरह कुछ बड़ा कर सकती हैं.

इस स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने आत्मविश्वास पाना शुरू किया और अपनी पहचान बनानी शुरू की.

स्कूल के दिनों में ही छोंजिन को साइकिल चलाने का शौक हुआ.

पहले तो लोगों को लगा कि एक दृष्टिहीन लड़की साइकिल कैसे चला सकती है. लेकिन छोंजिन ने सबको गलत साबित कर दिया.

उन्होंने मनाली से खारदुंगला, नीलगिरी, स्पीति और किन्नौर जैसे कठिन पहाड़ी रास्तों पर साइकिल चलाई.

उन्होंने कई बार पहाड़ों पर साइकिलिंग की, जो आम लोगों के लिए भी आसान नहीं होती.

इसके बाद उनका मन पर्वतारोहण (माउंटेनियरिंग) की तरफ गया. उन्होंने पर्वतारोहण की ट्रेनिंग ली और फिर एक-एक करके ऊँचाई की ओर बढ़ती गईं.

उन्होंने लद्दाख की कांग यात्से-2 और माउंट कानमो पीक जैसी 6,000 मीटर से ऊँची चोटियों पर सफलता से चढ़ाई की.

 ये चढ़ाइयाँ बहुत मुश्किल होती हैं, लेकिन छोंजिन ने हर मुश्किल का सामना डटकर किया.

साल 2021 में छोंजिन ने सियाचिन ग्लेशियर पर भी चढ़ाई की, जो दुनिया के सबसे कठिन इलाकों में से एक है.

खास बात यह है कि उस टीम में सभी सदस्य दिव्यांग थे और वह टीम में अकेली महिला थीं. यह उनके जीवन का एक और बड़ा मोड़ था.

इन तमाम उपलब्धियों के बाद भी उनका सबसे बड़ा सपना बाकी था — माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई. यह सपना उनके दिल में सालों से था.

उन्होंने इसकी तैयारी की, मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से खुद को तैयार किया.

फिर एक दिन मौका आया, जब उन्होंने एक पेशेवर पर्वतारोहण टीम पायनियर एक्सपीडिशन्स के साथ मिलकर एवरेस्ट पर चढ़ाई शुरू की.

यह चढ़ाई आसान नहीं थी. रास्ते में बहुत ठंड थी, बर्फीली आँधियाँ चल रही थीं, ऑक्सीजन की कमी थी और हर कदम पर मौत का डर था. लेकिन छोंजिन ने कभी हार नहीं मानी.

उनके साथ एक गाइड था जो उन्हें रास्ता दिखाता रहा, लेकिन कदम-कदम पर खुद को संभालना और आगे बढ़ते रहना सिर्फ उनकी हिम्मत और जज़्बे की वजह से ही संभव हो सका.

आख़िरकार वह दिन आया, जब छोंजिन ने दुनिया की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा लहराया. यह पल पूरे देश के लिए गर्व का था.

छोंजिन खुद कहती हैं, “मेरी आँखों की रोशनी नहीं है, लेकिन मेरे अंदर का उजाला मुझे रास्ता दिखाता है. मेरी कमजोरी ही मेरी सबसे बड़ी ताकत बन गई है.”

उनकी यह सफलता उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा है जो सोचते हैं कि वह कुछ नहीं कर सकते. खासकर दिव्यांग जनों के लिए छोंजिन एक उम्मीद की किरण बन चुकी हैं.

उन्होंने साबित कर दिया कि असली रोशनी बाहर नहीं, अंदर होती है.

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