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जानिए, बीजेपी के लिए आदिवासी वोट कितने अहम

एक तरफ जहां बीजेपी खुद को आदिवासियों का सबसे बड़ा शुभचिंतक दिखाने की कोशिश कर रही है. वहीं कांग्रेस पार्टी बीजेपी सरकार को आदिवासी विरोधी बता रही है. कांग्रेस के तमाम नेता बीजेपी और उसकी नीतियों को आदिवासी विरोधी बता रहे हैं.

जैसे-जैसे देश में चुनावी सरगर्मियां बढ़ रही है, राजनीतिक दलों के बीच देश के आदिवासी समुदाय को अपनी ओर खींचने की कोशिश शुरू हो गई हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय दल भी आदिवासियों के बीच अपना आधार बनाने के लिए प्रयासरत हैं. इसकी एक बड़ी कोशिश देश में मौजूदा पांच राज्यों के चुनाव के दौरान भी दिखाई दी.

15 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनजातीय गौरव दिवस के उपलक्ष्य में झारखंड के खूंटी में एक सभा को संबोधित किया. यह दिन आदिवासियों के स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का सम्मान करने के लिए समर्पित है.

साथ ही 15 नवंबर, झारखंड राज्य का स्थापना दिवस और संथाल परगना क्षेत्र में मुंडा एसटी समूह के एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की जयंती भी है.

इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने आदिवासी समुदायों के लिए कल्याणकारी कई योजनाओं अनावरण किया. जिसमें प्रधानमंत्री विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) विकास मिशन भी शामिल था, जो 24 हज़ार करोड़ की पहल है जिसका उद्देश्य पीवीटीजी की सामाजिक आर्थिक स्थितियों को बढ़ाना है.

ऐसे में पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के बीच यह आदिवासी आउटरीच बेहद अहम है. तो आइए इस आदिवासी आउटरीच के महत्व को समझते हैं…

भारत में ST आबादी कितनी बड़ी है?

2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत की आदिवासी आबादी 104.5 मिलियन है, जो 2011 में देश की कुल आबादी 1.2 बिलियन का 8.6 फीसदी है.

राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) जैसे अन्य सरकारी सर्वेक्षणों के डेटा से पता चलता है कि एसटी भारत में 9.5 फीसदी की जनसंख्या हिस्सेदारी के साथ सबसे छोटा सामाजिक समूह है.

2019-21 एनएफएचएस के आंकड़ों के मुताबिक अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की जनसंख्या हिस्सेदारी 42 प्रतिशत, अनुसूचित जाति (एससी) की 21.9 प्रतिशत और गैर-एससी/एसटी/ओबीसी समूहों की जनसंख्या हिस्सेदारी 26.6 प्रतिशत है.

  • एसटी आबादी कुछ ही राज्यों में केंद्रित है

2011 की जनगणना में 35 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से सिर्फ पांच राज्यों में भारत की 104.5 मिलियन एसटी आबादी का आधा हिस्सा था और आठ राज्यों में भारत की 104.5 मिलियन एसटी आबादी का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा था.

इन आठ राज्यों में से कोई भी उत्तर-पूर्व से नहीं है, जहां राज्य की जनसंख्या में आदिवासियों का अनुपात बहुत अधिक है लेकिन कुल मिलाकर आदिवासी आबादी कम है.

अगर इसे जिला स्तर पर देखते हैं तो एसटी आबादी की सघनता और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है. 2011 की जनगणना में 640 जिलों में से सिर्फ 72 जिलों में कुल एसटी आबादी का 50 फीसदी हिस्सा था और 251 जिलों में 90 फीसदी एसटी आबादी थी.

  • जनसांख्यिकी से राजनीति तक

भारत के 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों (PCs) में से 47 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. इसका मतलब यह है कि इन संसदीय क्षेत्रों से सिर्फ एक एसटी उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकता है.

ये सभी संसदीय क्षेत्र 17 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में स्थित हैं और सिर्फ नौ क्षेत्रों में 75 फीसदी से अधिक संसदीय क्षेत्र है. 47 में से 47 एसटी आरक्षित पीसी पूर्वोत्तर राज्यों के बाहर हैं. यह अपेक्षित है क्योंकि उत्तर-पूर्वी राज्यों में कुल आबादी कम होने के कारण बहुत कम संसदीय क्षेत्र हैं.

  • बीजेपी ने 2014 और 2019 से पहले भी एसटी सीटों पर बहुमत हासिल किया था

भाजपा ने न सिर्फ 2014 और 2019 में लोकसभा में अपने दम पर बहुमत हासिल किया बल्कि 47 एसटी आरक्षित सीटों में से भी अधिकांश पर जीत हासिल की. कुल मिलाकर एसटी-आरक्षित सीटों में इसकी सीट हिस्सेदारी थोड़ी बेहतर थी. यह बाद का रुझान भाजपा के दीर्घकालिक प्रदर्शन को ध्यान में रखते हुए है.

1998 के चुनावों के बाद से एसटी-आरक्षित संसदीय क्षेत्रों में भाजपा की सीट हिस्सेदारी उसकी कुल सीट हिस्सेदारी से बेहतर रही है. जबकि 1998 और 1999 दोनों चुनावों में भाजपा की कुल सीट हिस्सेदारी 33.5 फीसदी रही. पार्टी ने 1999 में भी एसटी-आरक्षित विधानसभा क्षेत्रों में बहुमत हासिल किया.

हालांकि, बीजेपी 2004 और 2009 के चुनावों में एसटी-आरक्षित संसदीय क्षेत्र में इस बहुमत को बरकरार नहीं रख सका. फिर भी इन संसदीय क्षेत्रों में इसकी सीट हिस्सेदारी इसके समग्र सीट शेयर से बेहतर थी.

इन संसदीय क्षेत्रों में पार्टी के 2014 और 2019 के प्रदर्शन के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि एसटी-आरक्षित संसदीय क्षेत्रों में इसका वोट शेयर और सीट शेयर दोनों 1999 की तुलना में अधिक था.

2019 के लोकसभा चुनाव में आदिवासी वोटरों ने दिल खोलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट दिया था. 2019 के लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 सीटों में 31 पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी.

  • राज्य स्तर पर संघर्ष जारी

राष्ट्रीय स्तर के विपरीत भाजपा हमेशा एसटी-आरक्षित विधानसभा क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन नहीं करती है. हाल ही में हुए राज्य चुनावों (जिनके परिणाम घोषित किए गए हैं) में एसटी सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन 17 राज्यों में से सिर्फ सात राज्यों में उसके समग्र प्रदर्शन से बेहतर था, जहां पार्टी ने कोई विधानसभा सीट जीती है.

बाकी 10 राज्यों में एसटी सीटों पर इसका प्रदर्शन झारखंड, त्रिपुरा, मणिपुर और छत्तीसगढ़ में इसके समग्र प्रदर्शन से सबसे पीछे है.

कभी कांग्रेस का मजबूत वोटबैंक था

आजादी के बाद लंबे समय तक आदिवासी समुदाय कांग्रेस का वोटबैंक रहा. लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद बीजेपी ने बेहद नियोजित ढंग से जहां एक ओर इस समुदाय को देश की साझी विरासत और इतिहास से जोड़ा. वहीं दूसरी ओर उसने आदिवासियों को हिंदुत्व के नजदीक लाने की कोशिश की.

बीजेपी को इसका फायदा 2019 के लोकसभा चुनावों में मिला था. इस दौरान बीजेपी की केंद्र सरकार आदिवासी समुदाय के लिए तमाम योजनाएं लेकर आई. इनमें आदिवासियों के भगवान कहे जाने वाले बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस का नाम देना हो या फिर जनजातीय संग्रहालय बनाना या देश की आजादी की लड़ाई में आदिवासियों के योगदान को रेखांकित करना. फिर चाहे द्रौपदी मुर्मु को राष्ट्रपति बनाने की बात हो.

ये तमाम कोशिशें आदिवासी समुदाय पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाने की कोशिश के तौर पर ही देखा जा सकता है. पीएम मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने खुद को आदिवासियों के करीब बताने की कोशिश की.

कांग्रेस ने सवाल उठाए

एक तरफ जहां बीजेपी खुद को आदिवासियों का सबसे बड़ा शुभचिंतक दिखाने की कोशिश कर रही है. वहीं कांग्रेस पार्टी बीजेपी सरकार को आदिवासी विरोधी बता रही है. कांग्रेस के तमाम नेता बीजेपी और उसकी नीतियों को आदिवासी विरोधी बता रहे हैं.

राहुल गांधी लगातार बीजेपी पर आदिवासी समुदायों के अपमान का आरोप लगाते रहे हैं. कांग्रेस मोदी सरकार पर लगातार आदिवासियों के हितों से जुड़े कानून को कमजोर करने का आरोप भी लगाती रही है.

मणिपुर में आदिवासी महिलाओं के साथ हुई बदसलूकी, सीएनटी/एसपीटी एक्ट को खत्म करना, सरना धर्म कोड को जनगणना में शामिल करने वाले झारखंड सरकार के बिल को गर्वनर की मंजूरी न मिलना और बिल को लटकाना, वन संक्षण नियम 2022 में वन भूमि अभियोजन में ग्राम सभा के अधिकार को खत्म करना जैसी घटनाओं को लेकर कांग्रेस केंद्र सरकार को घेर रही है.

आदिवासी भी हो रहे गोलबंद

हालांकि, अब आदिवासी समुदाय भी अपने अधिकारों के लिए गोलबंद होने लगा है. वो फिर चाहे धर्म से जुड़ा मामला हो या रोजगार से जुड़ा. पिछले दिनों झारखंड की राजधानी रांची में आयोजित एक बड़े कार्यक्रम में आदिवासियों के संगठन अखिल भारतीय जनजातीय संगठन आदिवासी सेंगेल अभियान (एएसए) आदिवासी समुदाय के लिए सरना धर्म कोड की मांग की.

एएसए ने ऐलान किया कि संसद के शीतकालीन सत्र में बीजेपी या कांग्रेस में से जो भी पार्टी सरना धर्म कोड की बात करेगी, आने वाले लोकसभा चुनाव में आदिवासी समुदाय उसी को वोट देगा.

दूसरी ओर आंध्र प्रदेश में पिछले दिनों आदिवासी शिक्षकों ने एक बड़ा धरना दिया. जहां उनकी मांग थी कि आंध्र प्रदेश में आदिवासियों के लिए आरक्षित इलाकों में गैर-आदिवासी शिक्षकों की नियुक्ति की जा रही है. यह समुदाय इसे अपने अधिकारों पर ख़तरा बताते हुए इसका विरोध कर रहा है.

कुल मिलाकर बीजेपी समेत विभिन्न राजनीतिक दलों का आदिवासी समुदाय को अपनी ओर खींचने का एक बड़ा कारण उनका वोटबैंक है.

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